लव जिहाद का प्रकरण बारंबार सामने आता रहा है, इन प्रकरणों का बारंबार सामने आना ही यह दर्शाता है कि ऐसे मामलों से ना तो समाज ने कोई शिक्षा ली और ना ही न्याय व्यवस्था ने इन प्रकरणों पर ही कोई कड़े कदम ही उठाए हैं, बस इन प्रकरणों में यदि किसी की अहम भागीदारी रही है तो वह है इस समाज के तथाकथित समाज सुधारकों कि जिन्होंने ऐसे मामलों को तुष्टिकरण का एंगल देते हुए समाज में भ्रामक तथ्य प्रसारित किए।
इस क्रम में अमूमन ऐसा देखा गया है कि टेररिज्म हैज नो रिलिजन का झंडा लेकर खड़े होने वाले वामपंथी अथवा कम्युनिस्ट जब भी किसी विशेष समुदाय के आतंकवादी को बचाने की बात आती है तो सभी संवेदनाओं को एकत्रित कर एक दूसरे का साथ निभाते हुए खड़े होते हैं जबकि कभी यदि किसी विशेष समुदाय की लड़की के साथ दुष्कर्म हो और उसमें आरोपी यदि गलती से हिंदू धर्म का हो तो भारत से लेकर हिंदुत्व पर अपनी घृणित व फंडेड आवाज उठाने में कभी पीछे नहीं रहते।
इनके इस दोहरे मापदंड को ऐसे समझे कि अब जब अब एक हिन्दू युवती के साथ पुनः ह्रदय विदारक लव जिहाद की घटना घटित हुई है तो इस पर इन्हीं वामपंथियों ने ऐसे चुप्पी साधी है जैसे मानो परमेश्वर ने इन्हें शब्द दिए ही नहीं, दरअसल आफताब अमीन पूनावाला के रूप में पहचाने जाने वाले एक व्यक्ति द्वारा इस साल मई में अपने लिव-इन पार्टनर, श्रद्धा के रूप में पहचानी गई एक हिंदू महिला की नृशंस हत्या कर दी गई, आफताब ने उसके शरीर को 35 टुकड़ों में काट दिया, एवं उन्हें नए लाए गए फ्रिज में रखा।
जानकारी है कि कई दिनों तक आफताब एक बार में एक एक टुकड़ा महरौली के जंगलो में फेंकता रहा,अब तक कि जांच के अनुसार आफताब कुल 18 दिनों तक रात के करीब 2 बजे घर से निकल श्रद्धा के बॉडी पार्ट्स दिल्ली में इधर-उधर फेंकता रहा, हत्या की यह गुत्थी भी तब सुलझ पाई जब श्रद्धा की हत्या के करीब छह महीने बाद पिता की शिकायत पर पुलिस की जांच में यह खुलासा हुआ।
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक श्रद्धा मूल रूप से महाराष्ट्र के पालघर की निवासी थी। आफताब से उसकी मुलाकात मुंबई में हुई थी। दोनों मलाड के एक कॉल सेंटर में साथ काम करते थे। जान-पहचान कुछ समय बाद प्रेम में बदल गई। दोनों लिव इन रिलेशनशिप में रहने लगे। जब श्रद्धा ने शादी का दबाव बनाया तो शुरुआत में आफताब ने टालमटोल की। बाद में शादी का दबाव बढ़ने पर आफताब दिल्ली आया। फिर बहाने से श्रद्धा को भी उसने वहीं बुलाया।
यहाँ पर भी दोनों साथ रहने लगे। पुलिस पूछताछ में आफ़ताब ने बताया कि 18 मई 2022 को उसका शादी को लेकर श्रद्धा से काफी झगड़ा हुआ था। इसी दौरान उसने गुस्से में श्रद्धा को गला दबाकर मार डाला। बाद में सबूत छिपाने के लिए उसके शव के 35 टुकड़े किए और उसे दिल्ली के अलग-अलग हिस्सों में फेंक दिया।
इस बीच महाराष्ट्र में रहने वाले श्रद्धा के 59 वर्षीय पिता मदान वाकर ने लंबे समय से बेटी से सम्पर्क न होने पर उसकी खोजबीन शुरू की। वे बेटी द्वारा पूर्व में बताये गए फ्लैट के पते पर पहुँचे तो वहाँ ताला लगा मिला। आखिरकार 8 नवम्बर 2022 को उन्होंने बेटी की लापता होने की रिपोर्ट दर्ज करवाई। पुलिस ने अपनी जाँच के केंद्र में आफ़ताब को रखकर खोजबीन शुरू की व आरोपित का नंबर सर्विलांस पर लगा कर शनिवार को उसे खोज निकाला।
पुलिस पूछताछ में आफताब ने अपना अपराध स्वीकार्य किया। अब पुलिस आफताब से हुई पूछताछ के आधार पर मृतका श्रद्धा के शव के हिस्से तलाशने में जुटी हुई है। बताया जा रहा है कि अभी तक पुलिस कुछ हड्डियों को बरामद कर पाई है। रिपोर्ट के अनुसार हत्या के बाद 18 दिनों तक आफताब रोज रात के करीब 2 बजे घर से निकलता था। श्रद्धा के शव के टुकड़ों को जंगलों के फेंक आता था ताकि जानवर उसे खा लें।
अब इस प्रकरण के सामने आने के उपरांत इस पर सभी कम्युनिस्ट मीडिया हाउसेस ने भी अपनी सेलेक्टिव रिपोर्टिंग प्रारंभ कर दी है I अन्य मीडिया आउटलेट्स की तरह, टाइम्स ऑफ इंडिया ने भी इस वीभत्स हत्या की रिपोर्ट प्रकाशित की है, जिसका शीर्षक था "दिल्ली का इंटरफेथ लव: श्रद्धा का शरीर आफताब द्वारा टुकड़ों में काटा गया, हालांकि रिपोर्ट की शुरुआती हेडलाइन में जहां हत्यारे की पहचान की गयी थी वहीं कुछ घंटों के भीतर ही इस मुद्दे पर TOI का हृदय परिवर्तित हो गया और आफ़ताब के नाम को शीर्षक से हटा लिया गया
बता दें कि कम्युनिस्ट झुकाव वाले मीडिया समुहों का यह आचरण कोई नया नहीं है, TOI की ही बात करें तो जनवरी 2022 में, TOI ने कट्टरपंथी इस्लामवादियों द्वारा हत्या पर से लोगों का ध्यान भटकाने के लिए किशन बरवाड़ हत्याकांड पर कई रिपोर्टें प्रकाशित कीं, जिनमें से सभी अस्पष्ट सुर्खियों में थीं, वर्तमान प्रकरण में ही देखें तो इंडिया टुडे, द क्विंट, एबीपी लाइव सहित अन्य सभी मीडिया पोर्टल्स ने इस प्रकरण की रिपोर्ट देते हुए आरोपी आफताब का नाम उजागर नहीं किया है, जो इनके अपराधी का धर्म देख कर की जाने वाली रिपोर्टिंग शैली को ही दर्शाता है।
इसके अतिरिक्त आश्चर्यजनक यह भी है कि हर छोटे बड़े मुद्दे पर प्लेकार्ड के साथ तस्वीरें खिंचवाने वाली बॉलीवुड की तथाकथित फेमिनिस्टों ने भी इस प्रकरण को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया है, उनसे भी यह पूछे जाने की आवश्यकता है कि क्या वे स्त्री के धर्म को देखते हुए स्त्री के प्रति संवेदना प्रकट करने में विश्वास रखते हैं ? क्या इन फेमिनिस्टों का नारीवाद इतना संकुचित है?
यदि वे वास्तव में नारियों के हित की समर्थक होती तो अपराध के विरुद्ध आवाज जरूर उठाती किन्तु उनका नारीवाद भी सिलेक्टिव ही है, ऐसे में यह बेहद आवश्यक है कि आज की नई पीढ़ी के युवक, युवतियां जो सामान्यतः इन मीडिया समुहों को विश्वसनीय जानकारी का आधार तथा इन तथाकथित नारी वादियों को अपना आदर्श मानते रहे हैं, वे इन नारीवादियों की चुप्पी एवं मीडिया की सेलेक्टिव एवं भ्रामक रिपोर्टिंग पर अपनी पैनी दृष्टि डालें तभी शायद वे इस कम्युनिस्ट भ्रमजाल के आवरण को पहचान पाएंगे
एक यक्ष प्रश्न यह भी है कि बात-बात पर मुद्दों का स्वतः संज्ञान लेने वाले न्यायीक व्यवस्था में बैठे न्यायधीश इस संगठित अपराध पर अपनी ‘नीतियुक्त’ टिप्पणी क्यों नहीं देते और यदि नहीं तो क्या समाज मे घट रहे इन अपराधों के प्रति वे अपने उत्तरदायित्व का पूर्णतया निर्वाहन कर रहे हैं, यह भी की यदि नूपुर शर्मा के मामले में न्यायधीशों की खंडपीठ मौखिक टिप्पणी कर सकती है तो बहुसंख्यक समाज के विरुद्ध चलाए जा रहे इस संगठित अपराध पर ऐसी कोई टिप्पणी क्यों नहीं की जा सकती इस मामले में भी, शायद इसलिए कि पीड़िता एक हिंदू है और हिंदुओं के संरक्षण का विषय आते ही सभी कथित धर्मनिरपेक्षवादी प्रैक्टिकल एवं प्रगतिशील दिखाई देने लगते हैं, शर्मनाक!