वीणा की मधुर आवाज सुनकर वह घिनौना शूकर समान जीव चौंक उठा और घिसटते हुए उस मनमोहक ध्वनि के पीछे चल पड़ा। उसकी चाल सामान्य मनुष्यों अथवा पशुओं की भांति नहीं थी। जैसे किसी कुत्ते के पिछले दोनों पैर किसी रथ के पहिए के नीचे आ गए हों, और वह अगले पैरों के सहारे अपने शरीर को घिसट रहा हो। वह मनुष्य जैसा दिख रहा जीव अपने हाथों के सहारे अपने पैरों को घिसटते हुए चल रहा था।
जिसे हम एक पग कह सकते हैं, उतनी दूरी चलने में उसके शरीर से पीब और रक्त टपक रहा था। यदि कोई उस पीब को ध्यान से देखे तो उसमें असंख्य सूक्ष्म कीड़े समागम करते दिख सकते थे। घने वन की झाड़ियों में लगे कांटों से उसका शरीर छिलता जा रहा था। इस रगड़ से उत्पन्न पीड़ा को दंतहीन मुख से दबाते हुए वह बढ़ता गया और उसे अद्भुत दृश्य दिखा। जिस वन प्रान्तर में सरीसृपों के अतिरिक्त कोई पशु तक न दिखता था, वहां एक पेड़ के नीचे भगवा धोती और श्वेत यज्ञोपवीत पहने एक युवा सन्यासी मगन होकर वीणा बजा रहा था।
आहट सुनकर सन्यासी के मुख पर मुस्कान खिल गई और उस निकृष्ट जीव के कीचड़ से भरे नेत्रों में सीधे देखते हुए वीणा से अधिक मधुर वाणी प्रस्फुटित हुई, "आओ अश्वत्थामा! तुम्हारे इस वन में तुम्हारा स्वागत है।"
चिंहुँक उठा वह। सदियों बाद किसी मनुष्य ने उसे देखा था। जब वह सुदर्शन व्यक्तित्व का स्वामी था, तब लक्ष-लक्ष मनुष्यों की भीड़ में भी उसे पहचानना अत्यंत सरल था। उस भीड़ में भले ही चक्रधारी कृष्ण हों, गाण्डीवधारी अर्जुन हों, कुण्डलधारी कर्ण हों, कौरववीर दुर्योधन हों, या समस्त मनुष्यों में सबसे सुंदर नकुल हों, अश्वत्थामा विशिष्ट था। पर आज, आज वह मवादों से भरा, दुर्गन्धयुक्त पशु था। फिर भी इस सन्यासी ने उसे उसके नाम से सम्बोधित किया! इतने प्रेम से तो उसके पिता द्रोण उसे पुकारते थे।
वक्र हाथों और मुड़ी उंगलियों से उसने एक मुद्रा बनाई जिसे प्रणाम मुद्रा कहा जा सकता है। अपनी मृत और घरघराती वाणी में बोला वह, "प्रणाम! आपकी वीणा और वाणी सुनकर लगता है कि मेरे सारे पाप धुल गए हों। कृपा कर अपना परिचय दें महात्मन।"
"मैं नारायण का भक्त नारद हूँ अश्वत्थामा। इस वन से होकर जा रहा था तो विश्राम के लिए कुछ क्षण रुक गया। मुझे ज्ञात था कि तुम यहीं-कहीं अपना निर्वासन काट रहे होगे। तुम्हें खोजना कठिन होता, अतः वीणा उठा ली कि कदाचित तुम तक इसकी लहरियां पहुंचें और तुम मुझे अपने दर्शनों का सौभाग्य प्रदान करो!"
"देवर्षि! देवर्षि नारद! अहोभाग्य! अहोभाग्य! मुझ अधम को ऋषि तो क्या सामान्य पशु और पक्षी भी अपने दर्शन नहीं देते। आप स्वयं आए, बड़ी कृपा की देव।"
"यह तो बताओ अश्वत्थामा, तुम्हें कोई अनुमान है कि महाभारत युद्ध बीते कितने वर्ष हो चुके हैं?"
"नहीं देव। आरंभिक कुछ वर्षों तक, जब तक मैं सामान्य मनुष्य की भांति जीवित था, तब तक तो दिन गिनता रहा था। मैंने शिष्य बनाएं, शिक्षा दी। फिर यह शरीर मेरे पापों के बोझ तले दबता गया। मैं कुरूप और दुर्गन्धयुक्त होता गया। घने वनों में शरण ले ली मैंने। यहाँ दिन और रात समान हैं। इस अंधकार में कुछ पता ही नहीं चलता कि कब दिन बीता, कब रात हुई।"
तनिक देर उसे देखने के पश्चात देवर्षि उठते हुए बोले, "अच्छा! तो मैं चलता हूँ वत्स। आज्ञा दो।"
"लज्जित न करें देव। मैं कौन होता हूँ आपको आदेश देने वाला। परन्तु कृपया तनिक ठहर जाएं। जाने कौन से पुण्य किये थे जो आपके दर्शन हुए। कृपया अपनी शीतल पवित्रता से मुझे थोड़ी देर और आप्लावित होने दें।"
नारद बैठ गए और बोले, "जैसा तुम चाहो वत्स। तनिक निकट आ जाओ।" अश्वत्थामा घिसटते हुए निकट आ गया, तब देवर्षि पुनः बोले, "तो बताओ वत्स, क्या चाहते हो? क्या मैं पुनः अपनी वीणा बजाऊं?"
"कृपा होगी। आपकी वीणा सुनना साक्षात स्वर्ग के दर्शन के समान है। परन्तु मुझे आपसे वार्ता करने का, आपकी वाणी सुनने का अधिक लोभ है। यदि आप प्रसन्न हों तो क्या मेरे कुछ प्रश्नों के समाधान देंगे देवर्षि?"
देवर्षि की मुस्कान और नेत्रों की भंगिमा को सकारात्मक पाकर अश्वत्थामा बोलता गया, "श्रीकृष्ण ने मुझे दंड दिया, जो मैंने स्वीकार किया। मैं दोषी था। परन्तु क्या मात्र मैं ही दोषी था? मात्र मुझे ही दंड क्यों?"
"तुम और किसे दोषी मानते हो वत्स?"
"हम युद्ध कर रहे थे। वह जो भी था, धर्मयुद्ध तो नहीं ही था। एक परिवार की आपसी लड़ाई को विश्वयुद्ध बना दिया गया। युद्ध के नियम सबने भंग किए, फिर मुझे ही दंड क्यों मिला?"
"परिवार की आपसी लड़ाई? हाँ, वह लड़ाई परिवार के बीच की बात थी, परन्तु वह तुम्हारा परिवार तो नहीं था न? तो तुम क्यों लड़े? उन पांच भाइयों को लड़ने दिया होता उन सौ भाइयों से। पर नहीं, तुमने एक पक्ष चुना। वैसे ही सबने अपने पक्ष चुन लिए। कौरवों के पक्ष में तुम, तुम्हारे पिता, देवव्रत भीष्म थे। वनवास की पूरी अवधि में दुर्योधन सैन्य गठबंधन करता रहा था। तब क्या तुमने उसे रोका था कि घर की लड़ाई में बाहर वालों को क्यों बुला रहे हो? नहीं न? कौरव शक्तिशाली होते गए थे। तो क्या पांडवों को अपने मित्रों के बिना कौरव सेना के सम्मुख उपस्थित हो जाना चाहिए था? क्रिया की प्रतिक्रिया तो होगी ही!"
"पर युद्ध में तो पांडवों ने कितने ही नियम तोड़े। फिर उन्हें क्यों धर्म के पक्ष में मान लिया गया? वे विजेता थे और जो विजेता होता है, वो अपने आप को सही सिद्ध कर देता है। क्या यहां भी यही नहीं हुआ था?"
"युद्ध के नियम? अवश्य थे नियम, जिसके अंतर्गत युद्ध करने का उत्तरदायित्व सबका था। क्या तुम यह तो नहीं मान रहे कि एक पक्ष तो इन नियमों को तोड़ता रहे और दूसरा उन नियमों का पालन करता रहे? नियम तो यह था न कि सैनिक से सैनिक, रथी से रथी और महारथी से महारथी लड़ेंगे! पर कौरव सेनापति भीष्म ने तो प्रण ले लिया था कि वे प्रतिदिन दस सहस्र सैनिकों का वध करेंगे।"
"यह तो अर्जुन ने भी किया। उसने भी कितने ही सैनिकों का वध किया।"
"परिप्रेक्ष्य समझो। भीष्म ने उन सैनिकों का वध किया, जो उनसे युद्ध करने नहीं आये थे। और अर्जुन को चक्रव्यूह से दूर करने के लिए तुम्हारे सेनापति द्रोण की आज्ञा से, दुर्योधन की कुटिल नीति से हजारों सैनिक टिड्डी दल की भांति घेर रहे थे।"
"भीष्म की हत्या, मेरे पिता द्रोण की हत्या, कर्ण की हत्या, दुर्योधन की हत्या, यह सब तो पांडवों ने ही किया।"
"युद्ध में हत्या नहीं, वध होता है। और यह तो कौरवों ने भी किया, अपितु पांडवों से पहले किया। हजारों सैनिकों का भीष्म जैसे महारथी द्वारा वध, राजकुमार उत्तर का दिव्यास्त्रों द्वारा वध, अभिमन्यु का अनेकों महारथियों द्वारा घेरकर किया गया वध। पहले भी बताया, क्रिया की प्रतिक्रिया तो होगी ही।"
"फिर तो मैंने भी यही किया न? पांडव पुत्रों का वध! पांडव वंश का वध!"
"नहीं पापात्मा, तुमने वध नहीं हत्याएं की थी। दुर्योधन के परास्त होने के पश्चात युद्ध समाप्त हो चुका था। तुमने युद्ध-पश्चात सोते हुए पांडव पुत्रों की छुपकर हत्या की थी। तुमने उत्तरा के गर्भ में पल रहे पांडव-वंश की हत्या का प्रयास किया था।"
"छुपकर हत्या करना अनुचित है तो यह तो त्रेता में श्रीराम ने भी किया था।"
"विचारहीन तर्क न करो वत्स। दो कृत्य एक समान होते हुए भी उद्देश्य की भिन्नता के कारण भिन्न हो सकते हैं। तुमने मात्र अपने क्रोध में, बिना किसी शुभ फल की प्राप्ति के लिए छिपकर वार किया था। युद्ध समाप्त था, कौरव मारे जा चुके थे, पाण्डवपुत्रों की हत्या से कौरवपक्ष को कोई लाभ नहीं मिलने वाला था। श्रीराम ने बाली को छुपकर मारा, क्योंकि अन्य कोई उपाय नहीं था और बालीवध से कई शुभ फल प्राप्त हो रहे थे। राम बाली से द्वंद्व कर सकते थे, पर द्वंद्व युद्ध में अनावश्यक समय की हानि होती।
दुदुम्भी इत्यादि असुरों से बाली का द्वंद्व महीनों तक चला था। क्या राम के पास इतना समय था? क्या सीता को महीनों तक के लिए भुलाया जा सकता था? उधर अयोध्या में भरत निश्चित तिथि पर राम की प्रतीक्षा कर रहे थे, और राम के उस तिथि तक न लौटने पर आत्मदाह कर लेते। क्या सीता और भरत की बलि दी जा सकती थी? और बाली तो पापी था ही, अपनी अनुजवधु सहित अनेक स्त्रियों का बलात्कारी था। नरभक्षी भेड़िए और पागल कुत्ते का वध, द्वंद्व से नहीं, छिपकर किया जाना न्यायसंगत है। बाली
जैसे पापी सामान्य मानवाधिकार नहीं रखते।"
नारद चुप हो गए, और अश्वत्थामा भी उनके उत्तरों को आत्मसात करता प्रतीत हो रहा था। सोचते-सोचते उसने नेत्रों से अश्रु बहने लगे। हाथ जोड़कर बोला, "देवर्षि, आपके वचनों को सुनकर धन्य हुआ। न जाने कितने वर्षों से मैं श्रीकृष्ण का दिया दंड भुगत रहा हूँ, पर मन से स्वयं को निर्दोष मानता रहा था। आज मुझे वास्तविक पश्चाताप है। आपका धन्यवाद देव, यह शरीर भले की क्लांत हो, परन्तु अब मेरा मन शांत है। अब दण्ड की शेष अवधि मैं मानसिक शांति से साथ काट पाऊंगा।"
देवर्षि की मुस्कान चौड़ी हो गई, "यदि ऐसा है तो नारायण का नाम लो और चलो मेरे साथ।"
"अर्थात?"
"अर्थात क्या? तुम्हारे दंड की अवधि पूरी हुई वत्स। क्या तुम भूल गए कि तीन सहस्र वर्षों तक यह जीवन जीने का दंड दिया था नारायण ने। वह अवधि आज समाप्त हो रही है। आज तुम यह शरीर त्याग सकते हो और अपनी आत्मा को परमात्मा में मिला सकते हो। अश्वत्थामा! तुमने अनेकों पाप किए, पर एक पुण्य अवश्य किया। तुमने प्रभु का दिया दण्ड पूरी निष्ठा से स्वीकार किया। अतः नारायण के आदेश से मैं तुम्हें ले जाने आया हूँ। आओ पुत्र, यह देह त्यागो और परमात्मा में विलीन हो जाओ।"