जब स्वतंत्र भारत में पांचवें आम चुनाव चुनाव हुए, उस समय हमसे ही टूट कर निकले पाकिस्तान में पहली बार आम चुनाव हुए थे। ताज्जुब की बात थी कि एक ही साथ आजाद हुए दो राष्ट्रों में इतना अंतर कि एक तो अपनी मर्जी से पांचवीं सरकार चुन चुका था, दूसरा पहली बार अपने वयस्क नागरिकों को यह अधिकार देने जा रहा था।
यह चुनाव राष्ट्रपति (और सेना प्रमुख) जनरल याह्या खान करवा रहे थे। उन्हें उम्मीद थी कि पाकिस्तान पीपल्स पार्टी की जीत होगी और उसके नेता जुल्फिकार अली भुट्टो उन्हें राष्ट्रपति बने रहने देंगे। मुल्क में दूसरी बड़ी पार्टी थी पूर्वी पाकिस्तान की नेशनल आवामी लीग, जिसके नेता थे शेख मुजीबुर्रहमान।
जनरल याह्या खान
1970 में चुनाव हुए और पीपीपी ने पश्चिमी पाकिस्तान (आज का पाकिस्तान) की 144 में से 88 सीटों पर जीत हासिल की, वहीं पूर्वी पाकिस्तान (आज का बांग्लादेश) की 169 में से 167 सीटों पर मुजीबुर्रहमान की पार्टी जीत गई।
शेख मुजीबुर्रहमान
मजे की बात यह भी थी कि तब तक पाकिस्तान का संविधान बना ही नहीं था। अब जिसकी अधिक सीटें आई वही संविधान बनाता। जुल्फिकार अली भुट्टो एक लोकतांत्रिक संविधान चाहते थे (सच या झूठ पता नहीं), वही मुजीबुर्रहमान संघात्मक व्यवस्था चाहते थे। एक ऐसी व्यवस्था जिससे रक्षा और विदेश मामले छोड़कर पूर्वी पाकिस्तान स्वायत्त हो जाता। सही भी था क्योंकि पाकिस्तान का अब तक का रवैया तानाशाही वाला रहा था। पूर्वी पाकिस्तान को पाकिस्तान अपना उपनिवेश समझता था। प्राकृतिक संसाधनों, कृषि संपदा का दोहन सामान्य बात थी।
पाकिस्तान की एक सोच यह भी थी कि बंगाली मुसलमान हिंदुओं के सम्पर्क में रहकर भ्रष्ट हो चुके थे। उस समय 1 करोड़ से अधिक हिन्दू पूर्वी पाकिस्तान में रहते थे जो अधिकतर उच्च वर्ग से आते थे। उनमें अध्यापक, डॉक्टर, अभियंता, वैज्ञानिक इत्यादि अधिक थे। अब यदि किसी बंगाली के हाथ सत्ता चली जाए तो मुल्क के साथ इस्लाम भी खतरे में आ जाता। उधर बंगाली मुसलमान अपनी मातृभाषा का तिरस्कार बर्दाश्त नहीं कर पाया था। यह भी था कि शासक वर्ग में, न्यायपालिका और सेना में अधिक जनसंख्या होने के बाद भी बंगालियों की नुमाइंदगी नगण्य थी।
याह्या खान और भुट्टो ने ढाका का दौरा किया पर मुजीब संघीय संविधान की मांग से पीछे हटने को तैयार नहीं थे। कोई समझौता ना होने पर राष्ट्रपति याह्या खान ने नेशनल असेंबली (संसद) की बैठक बुलाई ही नहीं। जब संसद बैठेगी ही नहीं तो सरकार कैसे बनती! इसके विरोध में आवामी लीग ने हड़ताल कर दी। रेल, डाक, दुकान, एयरपोर्ट सब बन्द।
इस बन्दी ने पाकिस्तान को एक मौका दे दिया। हवाई जहाज और समुद्र से सेना चटगांव उतरी और सेना के टैंक 25-26 मार्च की रात ढाका यूनिवर्सिटी के अंदर घुस गए। यूनिवर्सिटी के विद्यार्थी आवामी लीग के कट्टर समर्थक थे। तोप और मशीनगन की गोलियों ने छात्रों को उड़ा दिया। कहने की जरूरत नहीं कि छात्राओं को मारने से पहले क्या किया गया होगा। उन सबकी लाशों को यूनिवर्सिटी कैंपस की मिट्टी में डाल कर ऊपर से टैंक चढ़ा दिए गए। शहर के दूसरे हिस्सों में भी सेना यही कर रही थी। बंगाली अखबारों के कार्यालयों, पत्रकारों और नेताओं के घरों को उड़ा दिया गया और शेख मुजीब को गिरफ्तार कर पाकिस्तान भेज दिया गया।
सेना धीरे-धीरे मुल्क के अंदरूनी हिस्सों में घुसती गई। सेना के बंगाली अफसरों और सैनिकों ने बगावत कर दी। एक मेजर ने चटगांव रेडियो स्टेशन से आजाद बांग्लादेश की घोषणा कर दी। मेजर का नाम था जिया उर रहमान, जो आगे बांग्लादेश का राष्ट्रपति बने। छापामार युद्ध शुरू हो गया।
पाकिस्तान ने इसके जवाब में स्थानीय वफादार रजाकारों के गिरोह बनाये जिन्होंने अखंड पाकिस्तान के नाम पर अपने ही बंगाली देशवासियों का कत्ल और बलात्कार किया। हिंदुओं पर अत्याचार करने में विशेष रुचि दिखाई गई थी।
मुल्क से भारी मात्रा में पलायन हुआ और सब भागकर भारत के प. बंगाल, त्रिपुरा और मेघालय आने लगे। गर्मियों तक समस्या विकराल हो गई। भारत को कुछ तो करना ही था। अब इसे प्योर पॉलिटिक्स कहिये, या पड़ोस में होने वाले नरसंहार को रोकने की इच्छा या खुद की जमीन पर पड़ते मानव बोझ से छुटकारा पाने की कोशिश, या मजबूरी, सेना ने मुक्तिबाहिनी को प्रशिक्षण देना शुरू कर दिया। इस मुक्तिबाहिनी में पाकिस्तान से बगावत करने वाले बंगाली सैनिक भी शामिल थे। सेना का वरदहस्त मिल जाने से छापामार युद्ध में बंगालियों का पलड़ा भारी हो गया।
चीन के प्रधानमंत्री ने याह्या खान को चीट्ठी लिखी कि यदि भारत पाकिस्तान पर हमला करता है तो 'चीन की जनता' पाकिस्तान के साथ खड़ी होगी। यह पत्र पाकिस्तानी समाचारपत्रों में छपा। इधर भारत ने दुनिया भर में अपने मंत्रियों को भेजा कि वे दुनिया को बताये कि शरणार्थी समस्या गम्भीर है और वास्तव में नरसंहार हो रहा है!
परन्तु अमेरिका के राष्ट्रपति निक्सन भारतीयों को पसन्द नहीं करते थे। उनकी नजर में हिंदुस्तानी कपटी, चालाक थे और याह्या खान साफ दिल का सीधी बात करने वाला व्यक्ति। सोचने वाली बात है कि लोकतंत्र के हिमायती देश का नेता पाकिस्तान की तानाशाही का सपोर्ट कर रहा था। जबकि उनके मुख्य सलाहकार किसिंजर की राय थी कि इन हालातों में पूर्वी पाकिस्तान को आजाद कर देना चाहिए।
अमेरिका से बढ़ती दूरी ने सोवियत संघ को भारत के नजदीक ला दिया। मजे की बात यह थी कि गरीब और अविकसित भारत ने नहीं, बल्कि सोवियत रूस ने पहल की थी। दरअसल चीन भारत का दुश्मन था ही और सोवियत से उसका झगड़ा अभी बिलकुल ताजा था। अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन के नेतृत्व को लेकर उनमें प्रतिद्वंदिता थी। माओ ने रूसी संसोधनवाद का खुलकर मजाक उड़ाया था। दो साल पहले उनमें सैन्य झड़प भी हुई थी। रूस की सीमा भारत से नहीं मिलती थी, पर चीन की सीमाएं रूस से भी मिलती थी और भारत से भी। रूस के पास एक मौका था कि वह भारत का साथ देकर चीन को उलझाए रखे।
9 अगस्त 1971 को रूस और भारत में एक संधि हुई जिसकी धारा नौ में साफ लिखा था कि एक-दूसरे पर बाहरी आक्रमण की आशंका पर दोनों देश सलाह मशविरा करेंगे और उचित कदम उठाएंगे।
इधर सीमा पर गोलाबारी तेज हो गई। और अंततः पाकिस्तान ने पहला हमला कर ही दिया। 3 दिसम्बर को पाकिस्तानी जहाजों ने भारत की पश्चिमी सीमा की हवाई पट्टियों को निशाना बनाया, और पाक की सात रेजिमेंट ने कश्मीर की तरफ भारी गोलाबारी शुरू कर दी।
भारतीय सेना ने जबरदस्त पलटवार किया। कश्मीर और पंजाब सीमा पर जमीनी लड़ाई शुरू हुई और पहली बार नौसेना का प्रयोग करते हुए उसे कराची की ओर भेज दिया गया। पश्चिमी सीमा पर लड़ाई छिड़ जाने से भारत को पूर्वी सीमा पर मोर्चा खोलने का वाजिब कारण मिल गया और भारतीय टैंक पूर्वी पाकिस्तान में घुस गए।
पाकिस्तानियों को उम्मीद थी कि अचानक हमला करके भारतीय फौज को पीछे धकेल देंगे और कुछ दिनों में संयुक्त राष्ट्र संघ या अमेरिका के दबाव में भारत पलटवार नहीं कर पायेगा। यह भी उम्मीद थी कि अगर भारत ने हमला किया तो चीन मदद के लिए आ ही जायेगा। मिल भी जाती मदद पर हिमालय पर बर्फ गिर चुकी थी। चीन चाहकर भी मदद नहीं कर सकता था।
भारत के पास बहुत सारे फायदे थे। चीन आ नहीं सकता था, हालांकि अमेरिका ने अपना सांतवां बेड़ा भेज दिया था पर सोवियत की धमकी ने उसे वापस मुड़ने पर मजबूर कर दिया। दरअसल इस दौरान अमेरिका वियतनाम वार में बुरी तरह उलझा हुआ था।
एक और फ्रंट खोलना उसके लिए नामुमकिन बात थी। पर भारत की राह सबसे आसान की वहां की जनता ने। डेल्टा इलाके की नदियों का एक-एक मोड़, शहर की एक-एक गली, बनाये गए एक-एक पाकिस्तानी बंकर सबकी जानकारी स्थानीय नागरिकों से मिल जाती थी। ढाका और चटगांव के बीच संचार व्यवस्था काट दी गई थी और रेल लाइनों पर भारतीय फौजों ने कब्जा कर लिया था।
6 दिसम्बर को भारत ने एक नए देश 'बांग्लादेश' को मान्यता दे दी और मुजीबुर्रहमान की अनुपस्थिति में सैयद नजरुल इस्लाम को कार्यकारी राष्ट्रपति बना दिया।
ढाका की हार जब निश्चित हो गई तो वहां के गवर्नर ने आत्मसमर्पण का निर्णय कर लिया पर सैन्य कमान के मुखिया जनरल नियाजी आखिरी क्षण तक प्रतिरोध करना चाहते थे।
गवर्नर का कहना था कि यदि अभी आत्मसमर्पण नहीं किया तो भारतीय सेना पूर्वी पाकिस्तान जीतने के बाद पश्चिमी पाकिस्तान की ओर बढ़ेगी। मुल्क टूट ही चुका है, तो जो पाकिस्तान बच रहा है उसकी चिंता की जाए। गवर्नर के इस रुख का समर्थन चीन और अमेरिका ने भी किया।
13 की रात भारतीय वायुसेना ने गवर्नर हाउस पर भारी बमबारी की। उसी रात याह्या खान ने नियाजी को सरेंडर करने का संदेश भेजा। 14 को नियाजी सोचते रहे, 15 को अमेरिकी काउंसिल जनरल से मिले, जिसके द्वारा दिल्ली सन्देश भेजा गया। 16 को जनरल जे. एस. अरोड़ा के सामने नियाजी ने सरेंडर कर दिया।
दो हफ्तों में हमने एक जंग जीत ली। यह एक ऐसा युद्ध था जिसमें हम भारतीयों ने सदियों बाद जीत का स्वाद चखा था। पकिस्तानी अखबारों ने इसे मक्कार हिंदुओं की मुसलमानों पर जीत बताया।
यह जीत कई मायनों में महत्वपूर्ण रही। देश को पहली बार आत्माभिमान की अनुभूति हुई। एक भौगोलिक तथा जनसांख्यिक रूप में भारत एकजुट हुआ, बल्कि राजनैतिक रूप से भी। विपक्ष ने पूरा समर्थन दिया। घोर विरोधी आरएसएस ने भी इंदिरा को सपोर्ट किया। वामपंथ तो खैर उनके साथ था ही (रूस वाला, चाइना वाला नहीं), वहीं दूसरी ओर 'भीरु और शांतिप्रिय' भारत अब शक्तिशाली मुल्क था।
इन सबके अलावा देखें तो भारत को कुछ खास हासिल नहीं हुआ। पाकिस्तान के टुकड़े हो तो गए पर जो टुकड़ा अलग हुआ वह भारत में तो जुड़ नहीं गया। 90000 युद्धबन्दियों के बदले हमारी एक इंच भूमि हमें वापस नहीं मिली। शिमला समझौते में भुट्टों ने जो भी वादे किए, पाकिस्तान पहुंचते ही असेम्बली में अपने तीन घण्टे के भाषण में साफ मुकर गए।
देखा जाए तो भारत भले ही शक्तिशाली बन गया हो पर हम भावनात्मक ग़लती सदियों से करते आए हैं और शायद सदियों तक करते रहेंगे।
यह भी गौर करने लायक बात है कि 71 में जनसंघ (बीजेपी) सहित पूरे विपक्ष ने कांग्रेस का साथ दिया था, पर करगिल में और सर्जिकल स्ट्राइक में कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्ष ने सरकार पर ही सवाल खड़े किए थे।