अर्बन नक्सल : क्या है और कैसे कार्य करता है ?

माओवादियों के शहरी मायाजाल की असली रूपरेखा 2004 में तैयार की गई थी। भारत में नक्सल हिंसा की शुरुआत के बाद 80 के दशक से ही बौद्धिक क्षेत्र में नक्सलवाद ने पैर पसारने शुरू कर दिए थे। शिक्षण संस्थानों से लेकर सामाजिक और प्रभावशाली संस्थाओं पर कब्जा जमाना शुरू किया

The Narrative World    10-Apr-2023   
Total Views |


Representative Image 

शहर में रहने वाला वह वर्ग जो पत्रकार, कवि, लेखक, बुद्धिजीवी, मानवाधिकार कार्यकर्ता, संस्कृतिकर्मी, नारीवादी के रूप को अपनी ढाल बनाकर माओवादी गतिविधियों में संलग्न है या प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से माओवादियों-नक्सलियों को सहायता पहुँचा रहे हैं, उन्हें ही अर्बन नक्सल कहा जा रहा है।


इसमें मुख्य रूप से बुद्धिजीवी कहे जाने वाले समाज का वो बड़ा हिस्सा भी शामिल है जो हमेशा खुद को निष्पक्ष और तटस्थ दिखाने का प्रयास करता रहा है।


नक्सलबाड़ी और वहाँ से निकले नक्सलवाद को तो सभी ने देखा है, उसकी कमियों और करतूतों को भी विस्तार से समझा और समझाया गया है, लेकिन नक्सलवाद के शहरी विस्तार और उसकी कार्यपद्धति हमेशा से रहस्यमयी रही है।


हालांकि बीच-बीच में ऐसे बहुत से उदाहरण मिलते रहें हैं कि किस तरह नक्सलवाद शहरी क्षेत्र के सहयोग से अपना विस्तार कर रहा है लेकिन इस विषय पर किसी तरह का कोई गहन अध्ययन या विश्लेषण नहीं किया गया है।


यही वजह है कि जब देश में माओवाद समर्थकों को "अर्बन नक्सल" कहा गया तो वामपंथियों द्वारा चलाये गए "मी टू अर्बन नक्सल" कैम्पेन में कुछ हद तक युवावर्ग का वह हिस्सा भी शामिल था जो तटस्थ माना जाता है।


माओवादियों के शहरी मायाजाल की असली रूपरेखा 2004 में तैयार की गई थी। भारत में नक्सल हिंसा की शुरुआत के बाद 80 के दशक से ही बौद्धिक क्षेत्र में नक्सलवाद ने पैर पसारने शुरू कर दिए थे। शिक्षण संस्थानों से लेकर सामाजिक और प्रभावशाली संस्थाओं पर कब्जा जमाना शुरू किया।


2004 में सीपीआई (मार्क्सवादी-लेनिनवादी), पीपल्स वॉर ग्रुप (पीडब्ल्यूजी) और माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर के विलय के साथ कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (माओवादी) का गठन किया गया।


सीपीआई (माओवादी) के गठन के बाद से ही नक्सलवाद का नेतृत्व जंगल से निकल कर शहर की ओर आया। एक समय जहाँ नक्सलियों का केंद्र और उसका नेतृत्व जंगलों में होता था वो अब शहरी क्षेत्रों में आ चुका था।


2004 में सीपीआई (माओवादी) का एक दस्तावेज सामने आया। इस दस्तावेज के सामने आने से यह बातें सामने आई कि नक्सलवाद अपने शहरीकरण के लिए कितना उत्साहित है और अपना विस्तार महानगरों तक करना चाहता है।


नक्सलवाद की विचारधारा वामपंथ की ही है, जिसकी वजह से वैश्विक स्तर पर वामपंथ के सहयोगियों द्वारा भारत में भी अनेक स्तरों पर नक्सलियों की मदद पहुँचाई गई।


2004 में आये दस्तावेज "सीपीआई (माओवादी) : अर्बन पर्सपेक्टिव" में शहरों में नक्सलवाद के विस्तार की रणनीति पर चर्चा की गई थी। जंगल से निकल शहरों में नक्सलवाद के नेतृत्व तलाशने को लेकर कोशिश करने की बात इसमें कही गई थी।


मिडिल क्लास कर्मचारी, छात्र वर्ग, कामकाजी वर्ग, महिला, दलित वर्ग, धार्मिक अल्पसंख्यक और समाज के कुछ प्रतिष्ठित बुद्धिजीवी वर्ग को अपनी विचारधारा से जोड़ने और शहर में समूह खड़ा करने का प्रयास करने की बाते भी उस दस्तावेज से सामने आई थी।


इस दस्तावेज में शहरी क्षेत्र में शहरी नेतृत्व और विशेषज्ञता के साथ-साथ औद्योगिक श्रमिकों और मजदूरों को संगठित करने, अलग-अलग मोर्चे स्थापित करने और सैन्य गतिविधियों में जोर देने को भी शामिल किया गया था।


चूँकि कुछ मामले कानूनी दांवपेंच से फँसे होते हैं इसीलिए इससे जुड़े अग्रणी संस्थानों को ज्यादातर मानवाधिकार और गैर-सरकारी संगठन के चेहरे के साथ काम करते देखा जा सकता है।


सीपीआई (माओवादी) पार्टी और उससे जुड़े सभी संगठनों आतंवादी संगठन के रूप में सूचीबद्ध किया गया है. इसके बावजूद कुछ अग्रणी संगठन जो नक्सलवाद का समर्थन करते हैं वो दिल्ली, मुम्बई, रांची, हैदराबाद, चंडीगढ़, तिरुवनंतपुरम और पुणे जैसे छोटे-बड़ो शहरों में काफी सक्रिय हैं।


अगर अब हम ध्यान से समझे तो यह स्पष्ट नज़र आता है कि किस तरह नक्सलवाद का नेतृत्व जंगलों से निकल कर अब शहरों में आ चुका है। संसाधनों की पूर्ति से लेकर दिशा-निर्देश शहरों से हो रहा है।


पुलिस ने समय-समय पर देश के विभिन्न क्षेत्रों से कला, शिक्षा, साहित्य, मीडिया, कानून के क्षेत्र से जुड़े हुए ऐसे लोगो को गिरफ्तार किया है जो सीधे तौर पर नक्सल गतिविधियों में शामिल रहें हैं।


जब हम नक्सलवाद के शहरी परिपेक्ष्य और सीपीआई (माओवादी) के शहरीकरण की बात कर रहें हैं तो इसके मूल को जानना बेहद आवश्यक है।


आखिर कैसे शहरों में बैठा एक साहित्यकार या पत्रकार नक्सलियों की मदद कर सकता है? आखिर कैसे एक मानवाधिकार कार्यकर्ता नक्सलियों की आवाज़ उठा सकता है?


इसके लिए हमें भारत के माओवाद को समझना जरूरी है। माओवाद को समझने के लिए माओ को समझना जरूरी है।


माओ का तात्पर्य है माओ-त्से-तुंग (माओ ज़ेडोंग) से. चीन का एक कम्युनिस्ट नेता जो बाद में निरंकुश तानाशाह बना। माओ के द्वारा लिए गए फैसलों को भारत में बैठे वामपंथी अपनाने की पूरी कोशिश करते हैं। भारत का नक्सलवाद माओ ज़ेडोंग की रणनीति का हुबहू नकल है।


भारत में अर्बन नक्सल पर तरह-तरह के विश्लेषण किए जाते हैं लेकिन इन गतिविधियों को माओ ज़ेडोंग की गतिविधियों से जोड़कर नहीं देखा जाता। दरसअल 1934 में माओ ज़ेडोंग द्वारा निकाली गई पद यात्रा (द लॉन्ग मार्च) और उस दौरान उसकी रणनीतियों को आज के समय में दोहराया जा रहा है।


1934 में चीन की साम्यवादी सेना ने स्थापित सरकार से बचने के लिए एक लंबी यात्रा की थी। यह सेना आज के समय के माओवादियों की तरह ही शासन के विरुद्ध कार्य कर गुरिल्ला वॉर कर रही थी।


इस लंबे मार्च का नेतृत्व माओ ज़ेडोंग ने किया था। 370 दिनों की इस यात्रा में माओ और कम्युनिस्ट सेना के लोगों ने लगभग 22 नदियों और कई पहाड़ो को पार किया था। अंततः यह मार्च सफल हुआ था।


इस मार्च के सफल होने का सबसे प्रमुख कारण यह था कि माओ ज़ेडोंग ने अपने से जुड़े कुछ लोगों को देश के अलग-अलग मीडिया समूहों और साहित्य जगत में शामिल कर रखा था।


कुछ समय अंतराल में सरकार के तरफ से की जाने वाली गतिविधियों की सूचना और अन्य सूचनाओं को देने लिए इनका इस्तेमाल किया गया। जानकारी को लेखों और साहित्य के माध्यम से इन तक पहुँचाया जाता था। इसी तरह माओ ज़ेडोंग ने अपने पूरे मार्च के दौरान अखबारों और साहित्य का भरपूर उपयोग किया।


अब वर्तमान में हो रही गतिविधियों को ध्यान से देखिए। नक्सलियों तक हर समय अंतराल में देश के विभिन्न भाषाओं के प्रतिष्ठित अखबार पहुँचाएं जाते हैं। अनेकों तरह की पत्रिकाएं इस संबंध में प्रकाशित की जाती है।


कानूनन नक्सल साहित्य रखना और पढ़ना जरूर गुनाह है लेकिन आज के इस डिजिटल युग में संचार के माध्यमों की कमी नहीं है। जिस समय में सोशल मीडिया जैसा भी कुछ नहीं था तब माओ ज़ेडोंग ने वामपंथ के शहरीकरण की मदद से अपने सशस्त्र विद्रोह और गोरिल्ला वॉर को भी दुनिया के सामने क्रांति के रूप में पेश किया था। आज तो फिर भी इन कथित क्रांतिकारियों के पास अकूत संसाधन और संचार के विकल्प मौजूद हैं।


“शहरी नक्सल या अर्बन नक्सल देश की वो समस्या है जो देश को भीतर ही भीतर खोखला कर रहा है। एक अर्बन नक्सल शहर में रहते हुए नक्सलियों द्वारा किए गए कुकर्मों पर पर्दा डालने या उसे जायज ठहराने की कोशिश करता है। एक वकील कानूनी सलाह देता है, एक शिक्षित पत्रकार सूचनाओं का अदान-प्रदान करता है, एक कवि नक्सलियों की विचारधारा के लिए गीत गाता-लिखता है, एक फिल्मकार नक्सलियों के लिए सांत्वना हो ऐसी फिल्में बनाता है, एक साहित्यकार नक्सलियों द्वारा किए घटनाओं के पीछे की वजहों को बताकर उसे जायज बताता है, एक ऐसा समूह है जो नक्सलियों के एनकाउंटर होने पर उनके मानवाधिकार की दुहाई देता है।”


यह सब परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से एक ऐसी विचारधारा का प्रचार करते हैं जो नक्सलवाद को बढ़ावा देती है। नक्सलवाद के प्रति जो घृणा है उसे निकाल कर उसके प्रति सांत्वना पैदा करने की कोशिश करती है।


लेकिन सवाल अब भी यही है कि ये ऐसा क्यों करते हैं ? कुछ कहते हैं कि ये सबकुछ पैसे के लिए करते हैं, लेकिन ऐसा नहीं है। हाँ यह बिल्कुल सहीं है कि इनमें एक वर्ग ऐसा भी है जो यह सारी गतिविधियां पैसों के लिए करता है लेकिन कुछ ऐसे भी हैं जिन्हें पूरी तरह ब्रेनवॉश कर दिया जाता है।


देश के बड़े-बड़े विश्वविद्यालयों में प्रोफेसर और कार्यकर्ता के रूप में बैठे वामपंथी विचारक (अर्बन नक्सल) धीमे-धीमे अपने विद्यार्थियों को वामपंथ का मीठा जहर देते हैं।


छोटे शहरों से आये गरीब और मध्यमवर्गीय युवा इनके केंद्र में रहते हैं। इनका इस प्रकार से ब्रेनवॉश किया जाता है कि उन्हें खुद मालूम नहीं होता कि वह किस दिशा में जा रहें हैं।


यही नहीं बड़े विश्विद्यालयों से लेकर बस्तर और त्रिपुरा जैसे क्षेत्रों के छोटे-छोटे जनजाति क्षेत्रों में भी सामाजिक कार्यकर्ता और प्रोफेसर के रूप में बैठे वामपंथी ना सिर्फ अपने छात्रों और जनजाति समाज के लोगों का ब्रेनवॉश करते हैं बल्कि उनका शोषण भी करते हैं।


ऐसी कई घटनाएं सामने आ चुकी है जब पुलिस द्वारा गिरफ्तार और आत्मसमर्पित नक्सलियों ने शहरों में बैठे ऐसे स्वघोषित बुद्धिजीवियों के नक्सल गतिविधियों में संलिप्त होने की बात को स्वीकारा है जिसमें दिल्ली विश्विद्यालय की प्रोफेसर और जाने माने कथित सामाजिक कार्यकर्ता भी शामिल हैं।


हालांकि एक बात तो स्पष्ट नज़र आ रही है कि देश में नक्सलवाद और वामपंथ के प्रति काफी जागरूकता आई है. लेकिन उस इकोसिस्टम का प्रयास अभी भी जारी है कि नक्सलियों और शहरी नक्सलियों को एक्टिविस्ट ही कहा जाए।


नक्सलियों की मदद करने वालों को पुलिस और कानून से बचाने के लिए कैम्पेन चलाया जाए। लेकिन जिस गति वामपंथ और नक्सलवाद का शहरी रूप उजागर हो रहा है वह दिन दूर नहीं है कि देश में बैठे अर्बन नक्सलियों के चेहरे का नक़ाब उतर कर सबके सामने आ जाएगा।

शुभम उपाध्याय

संपादक, स्तंभकार, टिप्पणीकार