ईसाई पादरियों के 'यौन चंगुल' में दुनिया भर की ननें

ईसाई धर्म के सबसे बड़े धर्म गुरु पोप फ्रांसिस ने वर्ष 2019 में मध्य-पूर्व के अपने ऐतिहासिक दौरे के दौरान पत्रकारों से वार्ता में इस बात को स्वीकार किया था कि चर्चों के भीतर पादरियों द्वारा ननों का यौन शोषण किया जा रहा है। उन्होंने यह भी कहा था कि पोप बेनेडिक्ट ने तो ननों की पूरी एक धर्मसभा को ही भंग कर दिया था जिनका शोषण पादरियों द्वारा किया जा रहा था।

The Narrative World    12-Apr-2023   
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चर्च, जिसे ईसाई समुदाय में पवित्रतम स्थल माना जाता है, यह उनकी पूजा स्थली है, उनका इबादतघर है। लेकिन चर्च की चार दिवारी के भीतर कुछ ऐसी घटनाएं होती हैं जो मुख्यधारा में कभी सामने नहीं आती।


कुछ ऐसी गतिविधियां होती है जिसे उन्हीं चार दिवारी में दबा दिया जाता है, और इन सभी घटनाओं का प्रमुख शिकार बनती हैं महिलाएं, वो महिलाएं जिन्होंने अपना जीवन ईसाई मजहब के लिए, जीजस के लिए दे दिया।


ये महिलाएं नन कहलाती हैं, जो आजीवन अविवाहित रहती हैं और धार्मिक रीति-रिवाज के तहत उनका विवाह जीजस से होता है एवं ये अपना पूजा जीवन ईसाई धर्म की सेवा के लिए समर्पित कर देती हैं।


चर्च की इन चार दीवारों के भीतर की सबसे कड़वी सच्चाई यह है कि चर्च के पादरी, बिशप एवं पुरुष इन ननों का यौन शोषण करते हैं। ननों के साथ होने वाला यह शोषण दुनियाभर के लगभग उन सभी देशों में मौजूद है जहां चर्च की प्रभावी स्थिति है।


दरअसल चर्च के भीतर ननों के साथ होने वाले यौन शोषण की चर्चा और आरोप लंबे समय से लगते रहे हैं, लेकिन इस मामले में चर्च की ओर से सबसे बड़ी स्वीकारोक्ति वर्ष 2019 में देखने को मिली थी।


ईसाई धर्म के सबसे बड़े धर्म गुरु पोप फ्रांसिस ने वर्ष 2019 में मध्य-पूर्व के अपने ऐतिहासिक दौरे के दौरान पत्रकारों से वार्ता में इस बात को स्वीकार किया था कि चर्चों के भीतर पादरियों द्वारा ननों का यौन शोषण किया जा रहा है। उन्होंने यह भी कहा था कि पोप बेनेडिक्ट ने तो ननों की पूरी एक धर्मसभा को ही भंग कर दिया था जिनका शोषण पादरियों द्वारा किया जा रहा था।


यह पहला मौका था जब किसी पोप के द्वारा खुले तौर पर ईसाई पादरियों द्वारा ननों के यौन शोषण करने को लेकर स्वीकारोक्ति की गई थी। हालांकि पोप की स्वीकारोक्ति के बाद वेटिकन में हंगामा मच गया था और वेटिकन ने तत्काल मामले को संभालने के लिए सफाई दी गई कि पोप ने यह सभी बातें शक्ति के दुरुपयोग के उदाहरण के तौर पर कही थी।


भारत में भी चर्च की ये चार दीवारें ननों के यौन शोषण को देखती आई हैं। बीते महीने भारत की एक नन लूसी कलाप्पुरा ने आमरण अनशन पर जाने का निर्णय लिया था। उन्होंने यह कदम चर्च के भीतर हो रहे भेदभाव एवं ननों के साथ हो रहे शोषण के विरुद्ध उठाया था।


लूसी कलाप्पुरा वही नन है जिन्होंने ईसाई बिशप फ्रेंको मुलक्कल के विरुद्ध यौन उत्पीड़न मामले में प्रदर्शन में शामिल हुई थी। अब लूसी का कहना है कि इन प्रदर्शनों में शामिल होने एवं चर्च में हो रहे दुर्व्यवहार को उजागर करने के बाद उनके साथ कॉन्वेंट (ननों के रहने का स्थान) में भेदभाव किया जा रहा है।


लूसी बताती हैं कि उनके विरुद्ध भय का माहौल बना दिया गया है, उन्हें मूलभूत सुविधाओं से वंचित रखा गया है और तो और बीते 4 वर्षों से कोई उनसे बात भी नहीं करता है, ना ही किसी अन्य नन को उनके साथ भोजन करने की अनुमति है।


दरअसल वर्ष 1985 से नन के रूप में ईसाई धर्म की सेवा कर रही लूसी ने जब वर्ष 2018 में बिशप फ्रेंको के विरुद्ध ननों के प्रदर्शन का नेतृत्व किया, तभी से चर्च द्वारा उनका आंतरिक बहिष्कार कर दिया गया है।


बिशप फ्रेंको मुलक्कल पर 46 वर्षीय नन के साथ 13 बार दुष्कर्म करने का आरोप लगा था, इसके बाद बिशप को गिरफ्तार किया गया लेकिन उसे बाद में रिहा कर दिया गया। पीड़िता को आज तक न्याय नहीं मिल पाया है।


लूसी ने भारत में ननों की स्थिति बताते हुए कहा कि इन शोषणों एवं अत्याचारों से सभी नन मानसिक रूप से इतनी प्रताड़ित महसूस करती हैं कि आत्महत्या जैसे कदम भी उनके द्वारा उठा लिया जाता है। उन्होंने बताया कि सिर्फ केरल में ही बीते 20 वर्षों में 28 ननों ने आत्महत्या की है।


जर्मनी की अंतरराष्ट्रीय न्यूज़ एजेंसी ने एक रिपोर्ट प्रकाशित करते हुए अपनी खबर में बताया था कि भारत में लंबे समय से पादरियों के द्वारा ननों का यौन शोषण किया जा रहा है। रिपोर्ट के अनुसार एक भारतीय नन ने बताया था कि एक पादरी ने शराब के नशे में उसके साथ दुष्कर्म किया था।


ननों का कहना है कि कैथोलिक चर्च को इस बात की जानकारी रहती है कि पादरियों के द्वारा यौन शोषण किया जा रहा है, इसके अलावा वेटिकन को भी यह जानकारी है, लेकिन बावजूद इसके चर्च ने ननों की सुरक्षा को लेकर कोई ठोस कदम नहीं उठाए हैं।


अंतरराष्ट्रीय समाचार एजेंसी एपी की रिपोर्ट के अनुसार ननों ने विस्तार से बताया था कि ईसाई पादरी यौन संबंधों के लिए उनपर दबाव डालते हैं। इस रिपोर्ट में यह जानकारी भी सामने आई थी कि ननों, पूर्व ननों और पादरियों समेत दो दर्जन से अधिक लोगों ने कहा कि ऐसे मामलों की उन्हें पूरी जानकारी है।


चर्च के द्वारा किए जा रहे इन शोषणों को लेकर अब ईसाई समाज तेजी से जागरूक हो रहा है। भारत सहित विश्वभर में चर्च को अपनी बेटी देने (नन बनने के लिए) के लिए इंकार करना शुरू कर दिया हैं, जिसकी गवाही ननों की संख्या ही दे रही है।


एक तरफ जहां अमेरिका में 60 वर्ष पूर्व तकरीबन दो लाख नन हुआ करते थे, वहीं अब ननों की संख्या 50 हजार से भी कम है। यही आंकड़ें भारत के भी हैं। केरल, जहां सबसे अधिक ईसाई महिलाएं नन बनती थी वहां अब इन आंकड़ों में 25 प्रतिशत तक गिरावट आई है। यही कारण है कि अब चर्च ने ननों के लिए पूर्वोत्तर भारत समेत पंजाब, छत्तीसगढ़, ओडिशा, झारखंड जैसे राज्यों की ओर रुख किया है।


सिस्टर लूसी की ही भांति सीएमसी से निकलकर सिस्टर जैसमे राफेल ने भी चर्च में हो रहे अत्याचारों को उजागर किया था। उनकी पुस्तक 'आमीन: एक नन की आत्मकथा' में उन्होंने विस्तार से चर्च के भीतर होने वाले कुकर्मों को बताया है।


उन्होने अपनी पुस्तक में स्पष्ट रूप से कहा है कि जो नन पादरियों को 'खुश' रखती हैं उन्हें चर्च के भीतर उतनी ही अधिक सुविधाएं मुहैया कराई जाती है। वहीं सिस्टर लूसी ने एक घटना का उल्लेख करते हुए बताया कि वर्ष 1992 में 30 वर्षीय नन अभया की दर्दनाक हत्या हुई थी, जिसकी जांच सीबीआई ने की और इस मामले में पादरी थॉमस कुट्टुर और नन सैफी दोषी पाए गए थे, जिन्हें आजीवन कारावास की सजा मिली थी।


हालांकि इन्हें केरल उच्च न्यायालय ने बाद में जमानत दे दी थी। दरअसल इस मामले में यह जानकारी सामने आई थी कि मृतका नन ने ईसाई पादरी एवं नन को अवैध संबंध बनाते हुए देख लिया था, जिसके बाद उन दोनों ने उसकी हत्या कर दी थी।


चर्च में ननों के साथ ऐसा भेदभाव है कि ननों के लिए विभिन्न प्रकार की मनाही है लेकिन पादरी जो चाहे वो कर सकते हैं। किसी की शादी में जाना हो या किसी की मृत्यु में, पादरियों को जाने की अनुमति है लेकिन ननों को नहीं है। इसके अलावा नन अपनी पसंद के कपड़े भी नहीं पहन सकते हैं।


पीड़ित ननों का कहना है कि चर्च परिसर के भीतर होने वाली इन गतिविधियों की जानकारी चार दिवारी से कभी बाहर नहीं निकल पाती हैं, यही कारण है कि आम जनमानस में अभी भी इन सभी घटनाओं को लेकर संशय की स्थिति बनी रहती है, उन्हें कई बार विश्वास नहीं होता है, और तो और पादरियों को सही समझ कर ननों पर ही शक किया जाता है।


लेकिन सच्चाई यही है कि चर्च के भीतर जितना भेदभाव महिला एवं पुरुष के बीच है, उतना किसी अन्य स्थान पर नहीं है। ऐसे में यही लगता है कि बस जीजस इन ननों को वहशी पादरियों के चंगुल से बचा लें।

शुभम उपाध्याय

संपादक, स्तंभकार, टिप्पणीकार