यूं तो हस्तिनापुर के इतिहास में ऐसे अनेक क्षण आए थे जब समस्त कुरुसभा दो भागों में विभक्त हो गई थी, पर वर्तमान प्रसङ्ग अद्भुत था। किसने सोचा था कि युवराज दुर्योधन के परम सहयोगी गांधारनरेश शकुनि और अंगराज कर्ण भी उसके विरोधी हो जाएंगे! देवव्रत भीष्म और बाह्लीक जैसे कुरुकुल कुलवृद्ध भी हतप्रभ होकर निस्तेज हो जाएंगे। द्रौपदी चीरहरण को वर्षों बीत चुके थे, पर उस घटना ने भी कुरुगणों के मन पर ऐसा भय व्यापित नहीं किया था, जो अबकी सबके मुखों पर साक्षात दिख रहा था। अविवेकी दुर्योधन के सभी पुराने निर्णयों पर यह अकेला निर्णय भारी था।
ऐसा सम्भवतः इसलिए था कि द्रौपदी चीरहरण, लाक्षागृह जैसे प्रसङ्ग जब हुए थे, तब कदाचित सबके मन में यह था कि विरोधी तो बस ये पांच पांडव ही हैं, या बहुत हुआ तो पांचाल उनका साथ देगा। परन्तु कृष्ण को बंदी बनाने का आदेश!
कृष्ण! जिसने एक झटके में अपने खड्ग से कंस का शीश उतार लिया था, जिसने विश्व के समस्त अधिपतियों की उपस्थिति में पलकों के झपकने से पहले ही शिशुपाल की ग्रीवा अपने सुदर्शन से लुढ़का दी थी, जिसने कालयवन को बिना अस्त्रों-शस्त्रों के उपयोग के ही राख कर दिया था, जिसने चक्रवर्ती कहे जाने वाले मगधनरेश जरासन्ध की टांगें चिरवा कर फिंकवा दी थी। जो संसार के सर्वसामर्थ्यशाली सेना का महासेनापति था। जिसके अंगरक्षकों के रूप में युयुधान सात्यकि और कृतवर्मा जैसे महारथी थे, जिनमें से प्रत्येक के पास एक-एक अक्षौहिणी सेना थी और वह सेना अभी भी हस्तिनापुर के द्वार पर खड़ी थी। वह कृष्ण जिसके भाई बलराम थे, जिसके पुत्रों में साम्ब और प्रद्युम्न जैसे अद्वितीय वीर थे। यादव इस अपमान का प्रतिशोध लेने पर आ जाते तो एक प्रहर में ही समस्त हस्तिनापुर की प्रजा में मात्र श्वेतवस्त्रा स्त्रियां ही शेष बचती। श्रीराम के दूत ने लंका फूँक दी थी, पांडवों का यह विलक्षण दूत क्या हनुमान से कम था! वह अकेले ही ऐसा घाव कर सकता था कि संसार लंकादहन को तो भूल ही जाता।
जब कृष्ण अपना विकट विराट रूप दिखाकर वापस लौट गए, और कुरुसभा ने अपने मस्तिष्क पर छाई धुन्ध को साफ किया, तो सब दुर्योधन को कोसने लगे जिसमें शकुनि और कर्ण भी सम्मिलित थे। कहाँ तो कौरवों और पांडवों के युद्ध की बात थी, जो अभी तक तो घरेलू बात ही थी। जो यादव लड़ने आ गए तो क्या होगा? या शिशुपाल की भांति दुर्योधन का शीश उतार लिया तो? अरे, जिसने अपने मामा और भाई को मार दिया, वह क्या मात्र समधी होने के नाते दुर्योधन को कोई छूट देगा?
महामंत्री विदुर पहले ही क्षुब्ध होकर सभा छोड़ जा चुके थे, अतः सबने निर्णय लिया कि कृष्ण को मनाने के लिए कर्ण जाएं और दुर्योधन के पाप के लिए हस्तिनापुर की ओर से क्षमा मांगें।
कर्ण स्वयं ही अपना रथ हाँकते हुए विदुर के निवास पर पहुंचा। देखा कि जैत्र रथ सज्ज था और कृष्णसारथी बाहुक रथ के निकट ही खड़े थे। बाहुक को प्रणाम कर कर्ण ने गृह प्रवेश किया तो देखा कि कृष्ण तो परम प्रसन्न भाव से विदुर और पारंसवी के साथ भोजन कर रहे थे। कृष्ण ने कर्ण को देखा तो आग्रहपूर्वक उन्हें भी साथ बिठा लिया। वह तो कहाँ सोचकर आया था कि माधव युद्ध की मुद्रा में होंगे, और कहाँ यह हृषिकेश चटोरे बालक की भाँति भोजन गटक रहा था।
भोजनोपरांत केशव विश्राम हेतु शैया पर लेट गए। निकट के आसन पर कर्ण भी बैठ गया। जब बहुत देर तक कोई नहीं बोला तो अंततः कृष्ण ही बोले, "क्या बात है अंगराज? जब आप आये थे तो अत्यंत उद्विग्न थे, अभी आप भ्रमित प्रतीत होते हैं? क्या उथलपुथल मची है आपके मन में? कोई विशेष बात हो तो बताएं।"
कर्ण हाथ जोड़कर बोला, "माधव! मुझे कौरवों का दूत बनाकर भेजा गया है। मुझ सहित सबका यह विश्वास था कि आपके प्रति जो अविनय का प्रदर्शन युवराज ने किया है, उससे आप अत्यंत रुष्ट होंगे और क्षत्रियों की भाँति अपमान के प्रतिशोध के लिए सज्ज हो रहे होंगे। मुझे सबकी ओर से यह निवेदन करने के लिए भेजा गया है कि आप कृपया इस अपराध के लिए हमें क्षमा करें और पूर्व की भाँति ही कुरुजनों के प्रति अपनी करुणा को बनाएं रखें।"
"क्या मैं आपको क्रोधित दिखता हूँ अंगराज? मेरा अपमान अवश्य किया दुर्योधन ने। परन्तु क्या वह मुझे बंदी बना पाया? अपमान का प्रतिकार तो तभी हो गया जब वह अपनी समस्त कुचेष्टाओं के बाद भी मुझे बंधन में नहीं बाँध पाया। वह मेरा अपमान करना चाहता था, स्वयं ही अपमानित हो गया। अस्तु, क्षत्रियों के प्रति आपकी यह सोच उचित नहीं कि वह व्यक्तिगत मान-अपमान के लिए युद्ध का आयोजन करता है। युद्ध तो शांति के लिए किए जाते हैं। क्षत्रिय भी मात्र इसीलिए सेना सहित युद्ध करता है। व्यक्तिगत अपमान के लिए व्यक्तिगत प्रतिशोध लेना ही उचित है। यह तो कोई बात नहीं कि एक व्यक्ति ने अपमान किया तो राज्य पर सेना लेकर चढ़ जाओ। आप निश्चिंत रहें और कुरुसभा को भी निश्चिंत कर दें कि मैं या यादव कौरवों पर आक्रमण नहीं करने वाले।"
कर्ण ऐसे नीतिवान पुरुष को देखता ही रह गया। कुछ क्षणों बाद, जब कहने को कुछ सूझा नहीं, तो बोला, "जैसी आपकी आज्ञा केशव। अब मुझे आज्ञा दें।"
"अरे रुकिए अंगराज। कौरवों को थोड़ी देर ऐसे ही भयभीत होने दीजिये और अपने सानिध्य से कुछ पल मुझे भी लाभान्वित होने दीजिए।"
"जो आज्ञा केशव।"
"अच्छा, यह तो तय ही है कि अब युद्ध होगा ही। तो यह तो बताइए कि आपने क्या सोचा है? आप किस पक्ष से युद्ध करेंगे?"
"क्या! मैं किस पक्ष से युद्ध करूँगा? यह कैसा विचित्र प्रश्न है माधव? स्पष्ट है कि मैं दुर्योधन के पक्ष से ही युद्ध करूँगा!"
"जब तक आप स्वयं अपने मुख से न कहें, तब तक स्पष्ट कैसे होगा?"
"यह क्या बात हुई? कौन किस पक्ष में होगा, यह तो अंधे को भी दिखाई दे रहा है। क्या आप पांडवों के पक्ष में नहीं होंगे? क्या गांधार कौरवों के पक्ष में नहीं होगा?"
"युद्ध के शंख के फूँके जाने तक कुछ भी स्पष्ट नहीं है अंगराज! किसे पता कि मेरे अंगरक्षक के रूप में यहाँ आये सात्यकि और कृतवर्मा किस पक्ष में होंगे! पांडवों के मामा शल्य और मेरे सम्बन्धी रुक्मी किधर होंगे! और तो और दुर्योधन के सारे भाई किस पक्ष में होंगे! यह धर्मयुद्ध होगा अंगराज, और धर्म तो बहुत सूक्ष्म भी है और बहुत व्यापक भी। व्यक्तिगत भी है और सामुदायिक भी। किसका धर्म किस क्षण में किस पक्ष में धर्म को दिखाए, यह जानना कठिन है। अस्तु, आप बताएं, आपको किस पक्ष में धर्म दिखता है?"
"मुझसे यह प्रश्न न करें माधव। मैं मित्र का साथ नहीं छोड़ सकता।"
"मित्र? कौन मित्र? दुर्योधन? क्या वही आपका एक मित्र है? मैं आपका मित्र नहीं? और आप पांडवों को अपना मित्र क्यों नहीं मान पाते? उन्होंने ऐसा क्या अपराध किया है? और दुर्योधन ने ही कौन सा आपका भला किया जो वह आपके प्रेम का पात्र बना हुआ है?"
"माधव! आप तो ऐसे पूछ रहे हैं, जैसे आपको कुछ पता ही नहीं। आप तो सब कुछ जानते ही हैं।"
"यदि मैं सबकुछ जानता तो आपसे पूछता ही क्यों? बताएं कि आप पांडवों में शत्रु और दुर्योधन में मित्र क्यों देखते हैं?"
"दुर्योधन ने मुझे सम्मान दिया है। पांडवों ने सदैव ही मुझे स्वयं से छोटा समझा है।"
"दुर्योधन ने सम्मान किया आपका? भिक्षा में राज्य दे दिया, वह भी वह राज्य जो उसकी व्यक्तिगत सम्पत्ति थी ही नहीं, तो आपका सम्मान हो गया? सम्राट युधिष्ठिर ने अपने बाहुबल से समस्त भूमि जीतने के बाद वह पूरी भूमि उन्हीं राजाओं को वापस कर दी थी। विचारिए कि कौन बड़ा है, कौन अधिक उदार है, कौन न्यायी है।"
"पांडवों के साथ सदैव ही पक्षपात किया गया है केशव। मैं दुर्योधन का साथ नहीं छोड़ सकता!"
"पांडवों के साथ पक्षपात? यह कब हुआ? अभिषिक्त सम्राट पांडु के पुत्र निर्वासितों की भांति अपने ही राज्य में रहे और कार्यकारी राजा धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन को समस्त सुविधाएं मिलती रही। जो राज्य युधिष्ठिर का होना चाहिए, उसपर दुर्योधन ने अधिकार किया हुआ है, इतना कि बचपन में ही किसी को भूमि का टुकड़ा भेंट कर सके, तिसपर आप कहते हैं कि पांडवों के साथ पक्षपात हुआ है?"
"हुआ है माधव। द्रोण ने मुझे ब्रह्मास्त्र की शिक्षा नहीं दी, अर्जुन को दी। यह पक्षपात नहीं?"
"गुरु योग्य को ही शिक्षित कर सकता है अंगराज। गुरु तो सबको समान शिक्षा देता है, आरंभिक शिक्षा प्राप्त कर जो जिस विशेष विद्या के योग्य होता है, उसे वह शिक्षा दी जाती है। क्या द्रोण शिष्यों में सब अर्जुन जैसे धनुर्धर हो गए, या दुर्योधन जैसे गदाधर? द्रोण ने अर्जुन को योग्य पाया, इसलिए उसे ब्रह्मास्त्र की शिक्षा दी। आपको नहीं पाया, तो नहीं दी। शिष्य-शिष्य में अंतर होता है। जैसे गुरु सांदीपनि ने मुझे चक्र चलाने की विद्या सिखाई, भैया बलराम नहीं सीख सके। अशस्त्रों का शस्त्रों के रूप में जो उपयोग भैया बलराम कर सकते हैं, मैं नहीं कर सकता।"
"आचार्य द्रोण ने अश्वत्थामा को भी तो यह शिक्षा दी?"
"आचार्य द्रोण ने अपने शिष्य अश्वत्थामा को नहीं, अपितु पिता द्रोण ने पुत्र अश्वत्थामा को शिक्षित किया था। गुरु-शिष्य और पिता-पुत्र में अंतर है अंगराज।"
"अश्वत्थामा और पिता-पुत्र की बात छोड़िये। गुरु तो परशुराम भी हैं। उन्होंने तो मुझे ब्रह्मास्त्र दिया ही न? मैं द्रोण को योग्य न लगा, परशुराम के लिए योग्य हो गया? इसका यही अर्थ निकलता है कि द्रोण अर्जुन के प्रति पक्षपाती थे।"
"आपके साथ समस्या ही यह है कि आप तुलना करते हैं, नितांत भिन्न व्यक्तियों और परिस्थितियों की तुलना करते हैं। अच्छा बताइए कि क्या आपने शस्त्रों के अपने ज्ञान के बल पर ब्रह्मास्त्र प्राप्त किया या शुद्ध भक्ति के बल पर? द्रोण पूर्वज्ञान के बल पर शस्त्रविद्या देते हैं। उन्होंने अर्जुन को इसीलिए शिक्षित किया। आप द्रोण को संतुष्ट न कर पाए तो परशुराम के पास चले गए। वहाँ भी आपने अर्जुन की भांति शस्त्रज्ञान के बल पर नहीं, भक्ति के बल पर विद्या प्राप्त की। द्रोण तो मात्र गुरु हैं और उसी दृष्टि से सब देखते हैं। परशुराम भगवतअंश हैं, वे भक्ति को भी श्रेयस्कर मानते हैं। अस्तु, आपने तो उनसे भी छल ही किया न?"
"आपको सब छलिया कहते हैं। तो क्या मेरा छल क्षम्य नहीं? मैं क्या करता? परशुराम ने प्रण लिया था कि वे मात्र ब्राह्मणों को वह विद्या देंगे। क्या यह अन्य वर्णों के प्रति अन्याय नहीं?"
मधुसूदन मुस्कुरा उठे, "पुनः वही तुलना! मेरा छल शत्रुओं के प्रति होता है, गुरुओं के प्रति नहीं। और परशुराम का प्रण अन्याय नहीं है। परशुराम मात्र ब्राह्मणों को शस्त्र-विद्यादान के प्रति इसलिए आग्रही हैं कि वे जानते हैं कि ब्राह्मण कभी भी व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए ब्रह्मास्त्र का संधान नहीं करेगा। उन्होंने स्वयं इस भूमि को जीतने के बाद दान कर दिया था। और आप तो नितांत व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए, अर्जुन के प्रति द्वेषभाव के कारण ही ब्रह्मास्त्र प्राप्त करना चाहते थे न? फिर आप किस मुँह से परशुराम के प्रण पर प्रश्न उठा सकते हैं? दिव्य अस्त्र-शस्त्र विद्या के अतिरिक्त भी उनके पास अनेक विधाओं का ज्ञान है। क्या उन्होंने उनके लिए भी कोई प्रतिबंध घोषित किया हुआ है? और यदि आपको शस्त्रविद्या चाहिए ही थी तो तपस्या करते, उन्हें प्रसन्न करते। आपने तो उस निष्पाप महात्मा के प्रति छल किया जिसने संसार को पुत्रवत माना है।"
"माधव, आप कितने भी तर्क दें, मैं इस भेदभाव से इतनी बार पीड़ित हुआ हूँ कि गिन भी नहीं सकता। अच्छा, धनुर्धरों की परीक्षा में राजकन्या द्रौपदी का मुझपर निषेध क्या पक्षपात नहीं।"
"वह पक्षपात कैसे हो सकता है? पक्षपात तो तब होता जब द्रौपदी को पता होता कि आपको रोक देने के पश्चात उसे कोई विशिष्ट पुरुष पति रूप में प्राप्त हो ही जाता। उस क्षण तक तो पांडवों का अस्तित्व ही नहीं था, वे तो बहुत पहले ही लाक्षागृह में भस्म हो चुके थे। स्मरण रहे अंगराज कि वह धनुर्विद्या की परीक्षा अवश्य थी, पर था वह स्वयंवर ही। स्वयंवर का अर्थ अपने मन से पति चुनना होता है। उसे आप पति रूप में नहीं चाहिए थे, अतः उसने आपको रोक दिया। आपको तो प्रसन्न होना चाहिए कि उसने मात्र आपको रोका, अन्य किसी को नहीं, क्योंकि उसे विश्वास था कि अन्य कोई लक्ष्यभेद कर ही नहीं सकता, परन्तु आप कर सकते हैं। और आपका इतिहास भी उस राजकन्या को अवश्य ही पता था। आपने किसी और स्वयंवर में परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उस कन्या को दुर्योधन को सौंप दिया था। पांचाल में मछली की आँख भेदने की परीक्षा में असफल दुर्योधन को आपके माध्यम से पांचाली मिल जाए, यह पांचाली क्यों होने देती? आप ही बताएं कि यदि आप विजयी हो जाते और दुर्योधन आपसे द्रौपदी की मांग करता, तो आप क्या उसे मना कर देते?"
कर्ण इन तर्कों को सुन मौन हो गया। केशव कुछ रुककर पुनः बोले, "पुनः विचार कीजिये अंगराज। आप दुर्योधन का साथ क्यों देना चाहते हैं? उस असंयमी, दुराग्रही, भ्रातृहंता, अधर्मी के पक्ष से क्यों युद्ध करना चाहते हैं?"
बहुत देर तक सोचने के पश्चात कर्ण बोला, "माधव, आपकी समस्त बातें सही हैं, पर मैं अब पांडवों के पक्ष में नहीं आ सकता। द्युतप्रसङ्ग में मेरे अपशब्दों पर कुपित होकर अर्जुन ने प्रण लिया है कि वह मेरी ग्रीवा को अपने बाणों से छेद देगा। इस प्रण के आलोक में मैं कैसे अर्जुन के पक्ष में खड़ा हो सकता हूँ?"
"मेरा ही उदाहरण देखिए अंगराज। दुर्योधन ने मेरा व्यक्तिगत अपमान किया, परन्तु मैं सेना लेकर नहीं चढ़ आया। प्रतिकार व्यक्तिगत रूप से ले लिया। अर्जुन उत्तम क्षत्रिय है। आपने उसका, उसकी पत्नी का अपमान किया। इस युद्ध के पश्चात आप दोनों का द्वन्द्व युद्ध हो जाएगा। उसे भी अपना प्रण पूरा करने का अवसर मिलेगा और आपकी भी चिरअभिलाषा पूरी होगी कि आप अर्जुन से श्रेष्ठ सिद्ध हो सकें। व्यक्तिगत अभिलाषाओं अथवा प्रण की पूर्ति के लिए इस युद्ध का आलम्बन लेने की क्या आवश्यकता है?"
कर्ण पुनः मौन बैठा रहा। कृष्ण समझ तो रहे ही थे कि यह कुंठित मनुष्य कभी भी धर्म के पक्ष में नहीं आएगा, पर उन्हें अपनी ओर से प्रयास तो करना ही था, साथ ही सम्भावित शत्रु योद्धा के मन में संशय का बीज बो देना भी अपने पक्ष के लिए लाभदायक ही सिद्ध होगा। अंततः मधुसूदन बोले, "आप भलीभाँति विचार कर लीजिए अंगराज। और अब जाइए, भयभीत कौरवों को सांत्वना दीजिये कि यादव आक्रमण नहीं करेंगे। और हाँ, पांडव पक्ष कौरवों के दूत की प्रतीक्षा करेगा। अंतिम रूप से तय हो ही जाए कि कौरवों को संधि चाहिए या युद्ध। प्रणाम!"