इस्लामिक आक्रमणकारियों के अपराधों को स्वीकारने में मुस्लिम समाज को क्या आपत्ति है ?

शिव मंदिरों में नन्दी हमेशा अपने सम्मुख स्थित शिवलिंग को निहारते हैं। पर काशी विश्वनाथ मंदिर के नन्दी आज भी ज्ञानवापी मस्जिद की ओर देख रहे हैं, और शिवलिंग उनके पीछे रखा है। पूरे देश से आए श्रद्धालु जब यह देखते हैं, जब उन्हें पता चलता है कि जिस शिवलिंग पर हम जल चढ़ा रहे हैं, वह तो अपने मूल स्थान पर है ही नहीं। मूल स्थान पर तो मस्जिद खड़ी है! बताइए कि क्या इससे भाईचारे की भावना बलवती होगी या कमजोर होगी?

The Narrative World    22-Apr-2023   
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आप जब कोई गलत काम करते हैं, और उसकी माफी मांग लेते हैं तो बात खत्म हो जाती है। पर जब आप गलत काम को भी ग्लोरीफाई करते हैं, आपके वंशज भी उसे न्यायोचित कदम मानते हैं, तब आपके प्रति, आपके वंशजों के प्रति यदि पीड़ित समुदाय और उनके वंशज भय, शंका, वितृष्णा की निगाह रखता है तो इसमें आपत्तिजनक तो कुछ नहीं दिखता।


इसे असहिष्णुता कहा जाना बहुत वाहियात बात है। एक पड़ोसी किसी दूसरे पड़ोसी के घर में घुसे, उसका कत्ल कर दे, उनकी औरतों को अपने यहां दासी बना ले, उनके बच्चों को नपुंसक बनाकर बाजार में बेच दे, उसके घर के मंदिर को तोड़ कर मूर्तियों पर पेशाब करे, फिर इन कृत्यों को बड़ी शान से इतिहास में दर्ज करे, और उसके बेटे, पोते, परपोते इन कृत्यों को जायज मानते रहें।


कुछ दशकों या शतकों के बाद भी इन घृणित कारनामों पर उनके वंशज कोई अफसोस जाहिर न करते हुए, बल्कि गर्व करते हुए उस पीड़ित व्यक्ति के शेष वंशजों से उम्मीद करे कि उन्हें खुले दिल से स्वीकार किया जाए, तो बताइए कि असल असहिष्णु कौन है?


जिन्होंने हमें घाव दिए, उन्हें ही ग्लोरीफाई करने का षड्यंत्र रचे गए। और यह वामपंथियों ने किए। इस्लामिक स्टेट, गजवा ए हिंद के हिमायती तो वास्तविक अर्थों में ही उन दुराचारियों को प्रणम्य मानते हैं, लेकिन वामपंथियों ने उन दुराचारियों के कृत्यों को मजहबी कारणों से हुए कृत्य न होकर सामाजिक कारणों से हुए कृत्य सिद्ध करने की पूरी कोशिश की और सफल भी हुए।


हिन्दू एकेश्वरवादी होते हुए भी, ईश्वर के कई रूपों की पूजा करता है। अधिकांश जनता मुख्यतः तीन रूपों की पूजा करती है, शिव, राम और कृष्ण। और इन तीनों के सबसे प्रमुख स्थल काशी, अयोध्या और मथुरा माने जाते हैं। अयोध्या मन्दिर को बाबर ने तबाह किया। काशी और मथुरा के मंदिर न जाने कितनी बार गिराए गए।


अयोध्या मन्दिर अब कई सदियों बाद फिर से बन रहा है। इसके लिए तोड़ने वाले समुदाय का समर्थन नहीं मिला था, बल्कि उनके सतत विरोध के बाद भी, लम्बी कानूनी लड़ाई के बाद यह सम्भव हुआ है। क्या उनके दिमाग में कभी यह बात आई कि यदि हम अपने पुरखों की गलती मान लेते और मन्दिर स्थल को ससम्मान हिंदुओं को अर्पित कर देते तो सदियों से चले रहे अविश्वास को एक झटके में खत्म किया जा सकता था?


शिव मंदिरों में नन्दी हमेशा अपने सम्मुख स्थित शिवलिंग को निहारते हैं। पर काशी विश्वनाथ मंदिर के नन्दी आज भी ज्ञानवापी मस्जिद की ओर देख रहे हैं, और शिवलिंग उनके पीछे रखा है। पूरे देश से आए श्रद्धालु जब यह देखते हैं, जब उन्हें पता चलता है कि जिस शिवलिंग पर हम जल चढ़ा रहे हैं, वह तो अपने मूल स्थान पर है ही नहीं। मूल स्थान पर तो मस्जिद खड़ी है! बताइए कि क्या इससे भाईचारे की भावना बलवती होगी या कमजोर होगी?


मथुरा मन्दिर में आप जाते हैं, और मन्दिर से लगी मस्जिद की बुलंद दीवार देख दिल को धक्का सा लगता है। मन्दिर और मस्जिद साथ-साथ हैं, ऐसा सुनने में बहुत रूहानी लगता है, पर यह प्रैक्टिकल नहीं है। हिन्दू मंदिरों में भगवान बुद्ध दिख जाएंगे, बौद्ध मंदिरों में हिन्दू देवताओं की मूर्तियां दिख जाएंगी। उनमें जब कोई बौद्ध या हिन्दू जाता है तो ऐसा नहीं होता कि हिन्दू बुद्ध को प्रणाम न करे और बौद्ध कृष्ण को देख हाथ न जोड़ ले। पर क्या किसी मुस्लिम से यह उम्मीद की जाएगी कि वो कृष्ण को देख सिर झुका ले? हिन्दू यह कर लेगा, वह तमाम दरगाहों पर जाता ही है।


वामपंथियों ने एक झूठ फैलाया और लोग औरंगजेब को देवता मान बैठे। यदि काशी में ऐसा हुआ तो मथुरा में क्या हुआ था? 1670 में मथुरा मन्दिर क्यों तोड़ा गया।

 

भारत में करीब तीस हजार मन्दिर तोड़े गए, यह साक्ष्य है, सिद्ध है। शैव, वैष्णव, जैन, बौद्ध, सभी तरह के मन्दिर। सदियों के ज्ञान को, लिखित ज्ञान को पूरी बेहयाई से जलाया गया। मर्दों के कत्ल, महिलाओं पर बलात्कार, नाबालिग लड़कियों-लड़कों को वेश्या और नपुंसक बनाए जाने के किस्से खुद इन अपराधियों के जीवन-चरित्रों में, उनके अपने दरबारियों द्वारा लिखी तवारीखों में बड़ी शान से लिखे हैं।


अब सोचिए कि औरंगजेब, टीपू, गोरी, गजनी पर जब तक आज का मुस्लिम समुदाय गर्व करता रहेगा, भ्रातृत्व की भावना कैसे विकसित हो सकती है?