'द केरला स्टोरी' से क्या संदेश मिलता है ?

बड़ी बात, सोचने वाली बात है कि कैसे किसी एक व्यक्ति की अपने धर्म के प्रति सोच इतनी कमजोर हुई कि वह दूसरों की बातों में आती चली गई। और क्या वजह है कि एक व्यक्ति की अपने मजहब के प्रति सोच इतनी दृढ़ है कि वह दूसरों को भी अपनी सोच में ढाल लेता है।

The Narrative World    21-May-2023   
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केरला स्टोरी नामक एक नई फिल्म आई है। इसे सबको देखना चाहिए।


साथ ही, मेरा एक प्रश्न है। आप जब कोई चीज देखते हैं या पढ़ते हैं तो उसके बाद क्या करते हैं? क्या इसपर चिंतन-मनन भी करते हैं कि जो दिखाया गया है, जो लिखा गया है, जो हो रहा है, उसके पीछे की असली वजह क्या है?


केरल स्टोरी में यह दिखाया गया कि कुछ युवतियों का सिस्टेमेटिक तरीके से मतांतरण किया गया। उनके अपने विश्वास को लगातार कमतर साबित किया गया और अपने मत की बड़ाई की गई।


बड़ी बात, सोचने वाली बात है कि कैसे किसी एक व्यक्ति की अपने धर्म के प्रति सोच इतनी कमजोर हुई कि वह दूसरों की बातों में आती चली गई। और क्या वजह है कि एक व्यक्ति की अपने मजहब के प्रति सोच इतनी दृढ़ है कि वह दूसरों को भी अपनी सोच में ढाल लेता है।


आप देखिए कि आपके अंदर क्या कमी है। आप चीजों को ऊपरी तौर पर देखने के आदी हैं या आपने दूसरों की कुछ भी लिखी-कही बातों को सच मान लिया है, या समग्रता से देखने की कभी कोशिश ही नहीं की।


जब कोई लेखक इतिहास पर या जिसे पौराणिक इतिहास कहा जाता है, पर लिखता है तो यह प्रश्न होता है कि आखिर वर्तमान में उन सब बातों को लिखने का क्या मतलब है। मतलब है न! यही बातें हैं जो आपको आधार प्रदान करती हैं। आपके धर्म के आदिपुरुष आपके आधार हैं। यदि इनपर आपका विश्वास दृढ़ है तो कोई आपको डिगा ही नहीं सकता। और अगर विश्वास हल्का है, आपकी दृष्टि धुंधली है, शंकालु है तो कोई भी आसानी से बरगला सकता है।


जैसे एक उदाहरण कि तुम्हारा तो भगवान रोता है। क्या भगवान रो सकता है? कमजोर आस्था अथवा कमतर ज्ञान वाला व्यक्ति इस प्रश्न पर शंकालु हो उठेगा। पर जिसने शिव को पढ़ा है, शिव के बारे में ज्ञानियों से सुना है, वह जानता है कि जो शिव अपनी प्रियतमा के लिए रो सकता है वह कामदेव को भस्म भी करता है, हलाहल विष भी पीता है, गंगा जैसी महातेजस्विनी को जटाओं में रोक लेता है, तांडव करता है।


ऐसे ही राम को लेकर आपके विश्वास पर प्रश्न खड़े किए जाते हैं कि उसने तो पत्नी को छोड़ दिया, शुद्र तपस्वी का गला काट दिया, इत्यादि। पर क्या ऐसा सच में हुआ था? रामायण का सहज रूप जिसे अधिकांश रामभक्त पढ़ते हैं, उस रामचरित मानस में तो ऐसा कुछ नहीं लिखा। जिस आदिरामायण में लिखा है, उसे कई विद्वान बाद में जोड़ा गया बताते हैं। पर आप भी तो सोचिए कि जिसकी स्त्री को एक या दो वर्ष से किसी ने कैद किया है, क्या वह नहीं जानता होगा कि स्त्रियों के साथ अत्याचारी क्या करते हैं? इसके बावजूद वह उस अत्याचारी से लड़ता है, उसके पूरे साम्राज्य को ध्वस्त कर देता है।


क्यों करता है वह ऐसा? वह तो राजकुमार है, राजा बनने वाला है। उसे क्या स्त्रियों की कमी होती? और यह वही है जो परपुरुष से सम्बन्ध रखने वाली अहिल्या को उसके पति से मिलवाता है। जो दूसरे की अपराधिनी पत्नी को उसके पति से माफी दिलवा देता है, वह अपनी ही निरपराध पत्नी का त्याग करेगा? जो शूद्र गुह को गले लगाता है, वनवासी हनुमान को स्वयं ही वेदपाठी कहता है, जिनकी मित्रता से धन्य-धन्य रहता है वह किसी शूद्र तपस्वी के वेदपाठ पर हिंसा करेगा?


पत्नी की ही बात पर, जिसे पता है कि एक युवती राजा की अपनी बेटी नहीं है, खेत में मिली थी, जिसके बायोलॉजिकल माता-पिता का कोई अता-पता ही नहीं, उसे अपनी पत्नी स्वीकार करता है, विवाह करता है, वह जातिगत भेदभाव करेगा?


ब्राह्मण-शूद्र को लेकर बवाल मचाया जाता है। जबकि पचासों बार लिखा है कि ब्राह्मण कौन है, उसके कर्तव्य क्या हैं। कौन है जो ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर भी कैसे ब्राह्मण नहीं रह जाता। क्षत्रिय क्या है, उसके कर्तव्य क्या हैं। वैश्य क्या है। और शूद्र क्या हैं।


शूद्र का कर्तव्य सेवा है। इसे दासत्व कहकर समझा दिया गया और आपने मान लिया। क्यों भाई? अरबी-तुर्की और यूरोपीय सभ्यता में ये स्लेव होते थे, भारतीय संस्कृति में कब थे स्लेव? सेवा का अर्थ सर्विस नहीं होता क्या? आज आप पूरे समाज की सेवा के लिए तमाम सर्विस नहीं करते क्या? हैंडलूम में काम करते होंगे, लेदर फैक्ट्री में होंगे, वेस्ट मैनेजमेंट में होंगे, फार्मिंग करते होंगे, मीट इंडस्ट्री में होंगे, तो क्या किसी से कमतर हो गए। अरबी-तुर्की और यूरोपीय सभ्यता में स्लेव होते थे जो बिना पारितोषिक के काम करते थे, तो इधर के शूद्र को, जो परिश्रम करते थे और भुगतान पाते थे, को उनके समकक्ष बता दिया और आपने मान भी लिया?


न जाने कितनी बार कृष्ण कहते हैं कि जो भी मेरे भक्त का तिरस्कार मात्र उसके जन्म के आधार पर करता है, वह मुझे प्राप्त नहीं हो सकता। जो कोई भी, शूद्र भी भक्तिभाव से मेरी पूजा करता है, मैं उसके चढ़ाए पुष्प को अपने माथे पर रखता हूँ।


अब बताइये कि क्या कोई कृष्ण से भी बड़ा है? जब वे शूद्र की भेंट अपने माथे पर रखते हैं तो किधर है भेद?


बात स्वयं पर विश्वास की है। अपनी आस्था पर दृढ़ होने की है। आप देखिए कि जब आपका प्रधानमंत्री गर्व के साथ त्रिपुंड लगाए, भगवा पहने गंगा में अर्घ्य देता है तो कल तक दुआ पढ़ने वाले लोग जनेऊ दिखाने लगते हैं, मंच से चंडीपाठ करने लगते हैं। और तो और पाकिस्तान जैसे मुल्क में भी बिलावल भुट्टो शिवलिंग पर जल चढ़ाने लगता है।


बात विश्वास की है कि जब आपका मजहबी दोस्त आपसे मिलता है तो आप उसके विश्वास की दृढ़ता से प्रभावित होकर उसके मजहबी तरीके से उसका अभिवादन करते हैं। स्वयं पर, अपने धर्म पर विश्वास दृढ़ कीजिये, फिर देखिए कि क्या बदलाव आता है।


विश्वास दृढ़ करने के लिए आधार पर, बेस पर काम करना होगा। ऊपरी तौर पर टीका लगा लेने, जनेऊ पहन लेने, भृकुटि टेढ़ी कर आंखों में क्रोध भर लेना पर्याप्त नहीं। जुबान पर गाली नहीं, सरस्वती होनी चाहिए। अध्ययन-मनन-चिंतन की प्रक्रिया से गुजरकर ही आपके तिलक, त्रिपुंड, भगवे और भक्ति में शक्ति का प्रादुर्भाव सम्भव है। अन्यथा यह सब अंततः निरर्थक ही सिद्ध होगा।