अक्टूबर 1976 : जब चीनी कम्युनिस्टों का 'कल्चरल रिवॉल्यूशन' खत्म हुआ, तब तक मारे जा चुके थे 20 लाख नागरिक

The Narrative World    25-Oct-2024   
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चीन के वर्तमान कम्युनिस्ट तानाशाह शी जिनपिंग की नीतियों को चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (CCP) के संस्थापक माओ जेडोंग से जोड़ कर देखा जाता रहा है। दबी जुबान में उनके विरोधी तो जिनपिंग को माओ के नक्शे कदम पर चलने वाला एक ऐसा तानाशाह मानते हैं, जिसने सत्ता में आते ही माओ के एन्टी राइटिस्ट मूवमेंट (1957) के तर्ज पर भ्रष्टाचार विरोधी अभियान के नाम पर अपने सभी विरोधियों को एक एक कर अपने रास्ते से हटा दिया।


हालांकि एन्टी राइटिस्ट अभियान और द ग्रेट लीप फारवर्ड (1959-60) के अतिरिक्त जिस एक मूवमेंट अथया पोग्राम (नरसंहार के संदर्भ में) ने माओ जेडोंग को चीन के अब तक से सर्वाधिक शक्तिशाली तानाशाह के रूप में स्थापित किया, वह वर्ष 1966 में माओ द्वारा लाया गया कल्चरल रिवॉल्यूशन था, जो अक्टूबर 1976 तक चला।


'कल्चरल रिवॉल्यूशन' माओ के जीवनकाल में एक तानाशाह के रूप में उसकी बर्बरता का सबसे सफल प्रयोग था जिसने चीन के इतिहास के स्वरूप को बदल कर रख दिया।


चीनी मीडिया पर चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (सीसीपी) के क्रमशः नियंत्रण के कारण इस कथित क्रांति के नाम पर अपने ही शिक्षकों के साथ हुई बर्बरता के विषय में हमें बहुत कुछ जानने समझने को नहीं मिलता।


कल्चरल रिवोल्यूशन को लेकर यह भी कहा जाता है कि माओ जेडोंग ने चीन में बदलाव लाने के लिए इस नीति को लागू किया था, लेकिन सच्चाई इससे बिलकुल ही अलग है। दरअसल यह पूरा प्रपंच और नरसंहारों की कड़ी को इसलिए रचा गया था ताकि माओ की सत्ता स्थायी बनी रहे और उसे पार्टी के भीतर से कोई चुनौती ना मिले।


इस तथाकथित क्रांति से पहले चीन में कम्युनिस्ट पार्टी की सत्ता को स्थापित हुए डेढ़ दशक से अधिक का समय बीत चुका था और माओ जेडोंग सत्ता के साथ-साथ पार्टी के शीर्ष पर बने हुए थे।


इस बीच कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर से ही यह आवाज़ उठने लगी थी कि "चूँकि अब तो कम्युनिस्ट शासन स्थापित हो चुका है, अतः सत्ता केंद्र एवं नेतृत्व में भी परिवर्तन हो चाहिए।"


यह आवाज़ें मुख्य रूप से उन लोगों के बीच से उठ रही थी जिन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी की शैशव काल से बढ़ते हुए सत्ता हासिल करने तक यात्रा को देखा था। इसमें देश के बुद्धिजीवी, शिक्षक, प्राध्यापक समेत कम्युनिस्ट पार्टी ने नेता भी शामिल थे।


देश में इस तरह के विचारों की चर्चाओं को देखते हुए माओ को यह लगा कि उसकी सत्ता कभी भी जा सकती है। ऐसी परिस्थिति में माओ जेडोंग ने रणनीति बनाते हुए 'कल्चरल रिवॉल्यूशन' का आह्वान किया। इसके माध्यम से माओ ने सबसे पहले किशोरों एवं युवाओं को दिग्भ्रमित किया, जिसके बाद उन्हें चीन की प्रत्येक 'प्राचीन संस्कृति, विचार, विमर्श, कला समेत चीनी सभ्यता की निशानियों' को नष्ट कर एक नया चीन बनाने का संदेश दिया।


“इस आह्वान में चीनी युवाओं को माओ ने अपने शिक्षकों के प्रति भी बार-बार उकसाया, जिसका परिणाम यह था कि विद्यार्थी अपने शिक्षकों को ही मारने लगे। इसके अलावा युवाओं के माध्यम से चीनी कम्युनिस्ट तानाशाह माओ ने बुद्धिजीवियों, कम्युनिस्ट पार्टी में अपने प्रतिद्वंदियों एवं आलोचकों को या तो मरवा दिया या उन्हें चुप कराकर बैठा दिया गया। इस पूरे "कल्चरल रिवॉल्यूशन" के दौरान माओ जेडोंग की कम्युनिस्ट विचारधारा के चलते तक़रीबन बीस लाख से अधिक लोग मारे गए।”


माओ द्वारा मई 1966 में लाया गया यह 'कल्चरल रिवॉल्यूशन' उसकी मृत्यु तक चलता रहा। इस दौरान लाखों लोग मारे गए, युवाओं को बाद में 'एजुकेशनल कैम्प' के नाम पर मज़दूरी करने भेजा गया, वहीं करोड़ों लोगों का जीवन इसके चलते प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित हुआ।


दशकों से सीसीपी के कड़े नियंत्रण में दबे इस वीभत्स नरसंहार के सच को चीनी मूल के जर्मन निर्देशक जहोऊ किंग ने अपनी डॉक्यूमेंट्री 'आई डॉन्ट क्वाइट रिकॉलके माध्यम से सामने लाने का प्रयास किया है। यह डॉक्यूमेंट्री वर्ष 1966 से माओ की मृत्यु तक अगले एक दशक तक बुद्धिजीवियों एवं शिक्षाविदों के नरसंहार के प्रत्यक्षदर्शियों के साक्षात्कारों पर आधारित है।


इस डॉक्यूमेंट्री में शरणार्थी के रूप में वर्ष 1988 में चीन से अमेरिका आई एवं बाद में शिकागों विश्वविद्यालय में प्राध्यापक बनी चीनी नागरिक यूकीन्ह वांग की कहानी भी है। इस कथित क्रांति के दौरान वांग केवल 13 वर्ष की थी।


इस संदर्भ में 5 अगस्त 1966 की एक घटना का उल्लेख करते हुए यांग लिखती हैं कि 5 अगस्त को 10वीं कक्षा के कुछ छात्रों ने दोपहर में वाईस प्रिंसिपल समेत दो कुलपतियों को पकड़ कर उन्हें पीटना शुरू कर दिया था। छात्रों ने उनके गले में उनके नाम के पोस्टर बांधे एवं उनके बाल खींच कर उन्हें तब तक मार जब तक कि उनमें से एक बियान झोंगयूं बेहोश ना हो गई, बियान उसी दिन बाद में सड़क किनारे मृत पाई गई।


वो इस कथित क्रांति के शुरुवाती दौर में की गई निर्मम हत्याओं में से एक बर्बर हत्या थी। पर ये केवल एक शुरूआत थी और अगले एक दशक में रेड गार्ड्स (माओ ने युवाओं के समूह को रेड गार्ड्स नाम दिया था) ने चीन के विभिन्न क्षेत्रों में लगभग 15 लाख शिक्षकों की निर्ममता से हत्याएं की। यह आंकड़ा अविश्वसनीय लगता है, पर दुर्भाग्य से यही 'कल्चरल रिवॉल्यूशन' की वास्तविकता थी।


कल्चरल रिवॉल्यूशन के दौरान वर्षों तक रेड गार्ड्स बिना बेरोक-टोक चीन की सड़कों पर जमकर उत्पात मचाते रहे, रेड गार्ड्स हाथों में लाल पट्टियां (बैंड) बांधते, माओ एवं क्रांति के गीत गुनगुनाते थे।


इन्हें कम्युनिस्ट पार्टी एवं शासन का पूर्ण संरक्षण था। इसलिए वे अपनी इच्छानुसार अपने शिक्षकों को अपना लक्ष्य बनाते, उन्हें सार्वजनिक रूप से पीटा जाता, उनके बाल मुड़ाये जाते, कई बार तो बेंचो पर खड़ा कर घंटों प्रताड़ित किया जाता, यह आतंक की पराकाष्ठा थी जिसकी कोई सुनवाई नहीं थी।


जो इस मानसिक एवं शारीरिक उत्पीड़न को बर्दाश्त कर लेते उन्हें फिर जबरन मजदूरी के कैंपों में भेजने की व्यव्यस्था रखी गई थी। यह नरसंहार सुचारू रूप से चलता रहे इसलिए स्कूल कॉलेजों को लगभग एक दशक तक अप्रत्यक्ष रूप से बंद रखा गया। परिणामस्वरूप चीन की एक पूरी पीढ़ी इस कथित कम्युनिस्ट क्रांति की सनक की भेंट चढ़ गई। कालांतर में उसे चीन की खोई हुई पीढ़ी कहा गया।


हालांकि सार्वजनिक रूप से चीन के शहरों से लेकर ग्रामीण क्षेत्रों में सुनियोजित रूप से हुए इस बर्बर नरसंहार के उपरांत भी कम्युनिस्ट पार्टी ने यह सुनिश्चित किया कि इसकी वास्तविक सच्चाई कभी भी बाहर ना आ सके।