पूरी दुनिया में लोकतंत्र, समानाधिकार की वकालत करने वाला अमेरिका, 50% से ज्यादा महिला आबादी होने की बाद भी 1789 में पहले राष्ट्रपति चुनाव से लेकर 2020 तक, अपने 231 साल के इतिहास में कभी कोई महिला राष्ट्र्पति नहीं चुन पाया है।
भारत, श्रीलंका, पाकिस्तान सहित करीब 60 देशों में महिलाओं को नेतृत्व का मौका मिला है। इन देशों को अमेरिका प्राय: पिछड़ा हुआ मानता है, और इन देशों में लोकतंत्र को मजबूत करने की बातें करता है।
हाल ही में अमेरिका के पेन्सिलवेनिया राज्य में आयोजित एक चुनावी रैली में पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भी माना था कि अश्वेत पुरुष कमला हैरिस को राष्ट्रपति चुनने में हिचक रहे हैं। अब तक हुए 45 राष्ट्रपति चुनावों में कई महिला उम्मीदवारों ने कोशिश भी के लेकिन सफलता नहीं मिली।
अमेरिका दुनिया का सबसे पुराना लोकतंत्र होते हुए भी अब तक कोई महिला राष्ट्रपति क्यों नहीं बना पाया है? इस सवाल के जवाब के लिए हमें अमेरिका की सामाजिक, राजनैतिक और एतिहासिक गुत्थी को सुलझाकर समझना होगा…
इतिहास में ही राजनीति से महिलाओं की सहभागिता नदारद
अमेरिका के स्वतंत्र राजनितिक शुरुआत से ही राजनीति में महिलाओं का प्रतिनिधित्व नहीं है। अमेरिका के इतिहास में महिला और पुरुष के बीच में राजनीति में सहभागिता की खाई काफी गहरी है।
राजनीति तो दूर, यहां तक कि आजादी से पहले अमेरिकी स्कूलों में लड़कों को पढ़ना और लिखना दोनों सिखाया जाता था, लेकिन कुछ विशेषाधिकार प्राप्त लड़कियों को ही लिखना सिखाया जाता था।
इस कारण महिलाएं पढ़ तो सकती थीं, लेकिन लिख नहीं पाती थीं। महिलाओं को अपने नाम पर दस्तखत भी "X" अक्षर से करना पड़ता था।
अमेरिका का संविधान बनने के बाद भी ये भेदभाव जारी रहा। अमेरिका में 7 लोगों को अमेरिका का फाउन्डिंग फादर माना गया है। इस सूची में शामिल 7 नामों में कोई भी महिला नहीं है। अमेरिका में पहले राष्ट्रपति चुनाव 1789 में हुआ था लेकिन इसमें महिलाओं को वोट डालने का भी अधिकार नहीं था।
वोट डालने की मांग करने पर जेल में डाल दिया था, आजादी के 141 साल बाद मिला वोट का अधिकार
अमेरिका में महिलाओं को वोट का अधिकार ही आजादी के करीब 141 साल बाद 18 अगस्त, 1920 को मिला। इसके लिए भी महिलाओं को काफी लंबा संघर्ष करना पडा था। महिलाओं को वोट देने का अधिकार देने वाला पहला राज्य व्योमिंग था।
मताधिकार के लिए आन्दोलन के दौरान वाइट हाउस के सामने धरने पर बैठीं करीब 200 महिलाओं को अमेरिकी पुलिस ने जेल में डाल दिया था। इनमें से ज्यादातर महिलाएं भूख हड़ताल पर थीं। जेल में इन्हे जबरदस्ती खाना खिलाया गया।
व्योमिंग में महिलाओं को वोट डालने का अधिकार 1869 में मिला था। लेकिन अमेरिकी संविधान में 19वां संसोधन 1920 में पारित हुआ। इस संसोधन में कहा गया कि, "संयुक्त राज्य अमेरिका के नागरिकों के वोट देने के अधिकार को किसी भी राज्य द्वारा लिंग के आधार पर अस्वीकार या कम नहीं किया जाएगा।"
महिलाओं के प्रति कमजोर होने का पूर्वाग्रह
अमेरिका में जब नेतृत्व की बात आती है तो अमेरिकी इतिहास में ही ये माना गया है कि पुरुष महिलाओं से अधिक योग्य होते हैं। अमेरिका में लोगों का ये मानना है कि युद्ध आदि में नेतृत्व के लिए शारिरिक, मानसिक क्षमताएं पुरुषों में वंशानुगत होती हैं।
अमेरिकी इतिहास में इस पूर्वाग्रह ने नेतृत्व की इमेज को पुरुष प्रधान बना दिया। 2020 में अमेरिका के CBC न्यूज की रिपोर्ट में भी ये कहा गया कि ज्यादातर अमेरिकी महिलाएं आज भी ये मानती हैं कि राष्ट्र्पति बनने के लिए महिलाएं योग्य नहीं हैं।
हालांकि कुछ पुरुषों का भी ये मानना है कि अमेरिका में मजबूत महिला राजनेताओं की कमी है। टाइम्स मैग्जीन की रिपोर्ट एक रिपोर्ट के मुताबिक राष्ट्रपति पद के लिए डेमोक्रेट्स की ओर से उम्मीदवारी जता चुकी एलिजाबेथ वॉरेन ने भी माना था कि महिलाओं के साथ राजनीति में भेदभाव होता है
इसी रिपोर्ट में ये भी कहा गया कि अभी भी अमेरिका के 76% लोगों का मानना है कि ट्रंप को कोई महिला उम्मीदवार नहीं हरा सकती।
लैंगिक भेदभाव
सर्वे एजेंसी गैलप के मुताबिक 5% अमेरिकी अभी भी ये कहते हैं कि वे राष्ट्रपति पद के लिए किसी महिला को वोट नहीं देंगे। उनका मानना है कि राजनीति पुरुषों की दुनिया है और इसे ऐसे ही रखा जाना चाहिए। 1937 में यह आंकड़ा 64% था।
जानकारों के मुताबिक 5% भले ही बहुत कम लगे लेकिन यह एक बड़ा अंतर है।
अमेरिका की सामाजिक संरचना सख्त लैंगिक अवधारणाओ से ग्रसित है। टाइम्स मैग्जीन की एक रिपोर्ट के अनुसार महिलाओं के काम करना शुर करने और राजनीतिक रूप से सक्रीय होने के बाद भी उन्हें राष्ट्रपति पद के लिए अयोग्य ही मान जाता है।
इसके बाद अगर कोई महिला उम्मीदवार राजनीति में आने के बाद इन “पुरुष प्रधान” गुणों के साथ राजनीति करती है तो उसे “आक्रामक” या “नफरती” मानकर देखा जाता है।
2016 में राष्ट्रप्रति पद के लिए डेमोक्रेटिक पार्टी की ओर से उम्मीदवार हिलेरी क्लिनटन को भी अपने बोलने की शैली और आक्रामक आचरण के लिए आलोचना झेलनी पडी थी। दरअसल अमेरिकी राजनीति में महिलाएं दोहरी अवधारणाओं में फंस गयी हैं। एक तरफ होने उन्हें राष्ट्रपति पद के लिए कमजोर माना जाता है तो दूसरी तरफ ज्यादा आक्रामक और अयोग्य।
अमेरिकी लोगों को पसंद नहीं लिंगवाद की राजनीति
टाइम्स मैग्जीन की एक रिपोर्ट के मुताबिक अमेरिका में राष्ट्रप्रति चुनाव में महिला उम्मीदवारों के लिए सबसे मुश्किल बात ये है कि वो हमेशा दोहरे मानदंडों पर चर्चा करती हैं। वे चुनाव को राजनीति या आर्थिक चुनौती को लेकर नहीं बल्कि उसे महिला और पुरुष या लिंगवाद से जोड़ देती है जिसे अमेरिका के लोग एक सिरे से नकार देते हैं।
संसदीय प्रणाली भी जिम्मेदार
असल में अमेरिका में चुनावी जीत पर लोकप्रियता और प्रभावी व्यक्तित्व का बड़ा असर होता है। वहीं दूसरे अन्य देशों में पार्लियामेंट्री सिस्टम के तहत एक संस्था में वोटिंग होती है, लेकिन अमेरिका में लोग सीधा प्रत्याशी को वोट करते हैं।
इस बारे में अमेरिकी राजनीतिक मामलों के एक्सपर्ट डेबी वाल्स कहते हैं कि बाकी देशों में लोग पार्टी को वोट करते हैं और फिर पार्टी पीएम का चुनाव करती है। लेकिन जहां वोटर सीधे पीएम या प्रेसिडेंट के लिए वोट करते हैं, वहां महिलाओं के लिए मुश्किल होती है।
ऐसा इसलिए है क्योंकि महिलाएं लोगों ने उतने प्रभावी तरीके से नहीं जुड़ पाती हैं। इसका उदाहरण भारत में देखा जा सकता है। भारत की इकलौती महिला प्रधानमंत्री रहीं इंदिरा गांधी की लोकप्रियता का कारण उनका प्रभावी और आक्रामक व्यक्तित्व माना जाता था।
महिलाओं का प्रतिनिधित्व तय करने के लिए कोई प्रावधान नहीं
अपने 231 साल के चुनावी इतिहास में अमेरिका अभी भी अमेरिकी संसद में महिलाओं की सहभागिता के लिए मजबूट प्रावधान तय नहीं कर पाया है। पिछले 109 साल में अब तक हुए 54 सीनेट चुनावों में महिला सीनेटर्स की संख्या 20% से ऊपर नहीं पहुंची है।
सीनेट अमेरिकी संसद का ऊपरी सदन है। 1912 से 1960 तक इसमें कुल 96 सीटें थीं, इसके बाद सीटें बढाकर 100 कर दीं गईं। 1913 में अमेरिकी संविधान में 17वें संशोधन के बाद से जनता सीधे सीनेटर चुनती है।
एक सीनेट का कार्यकाल छह साल का होता है। हर दो साल में एक तिहाई सीटों पर चुनाव होता है। कई बार खाली सीटों को भरने के लिए कुछ विशेष चुनाव होते हैं। हर राज्य से अलग-अलग सालों में दो सीनेटर चुने जाते हैं।
सिर्फ बिलिनिअर ही बन पाते हैं अमेरिका के राष्ट्रपति
अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों का ये ट्रैक रिकॉर्ड रहा है कि कोई अरबपति ही चुनाव लड़ पाए हैं। अमेरिका में चुनाव लड़ना बहुत खर्चीला होता है। 1987 में पेट्रीसिया श्रोएडर ने राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव लड़ने की दिशा में कदम उठाए थे, लेकिन जरूरी फंड्स इकठ्ठा न कर पाने के कारण वह प्राइमरी से पहले ही बाहर हो गईं।
अमेरिका में पहली बार चुनाव लड़ने वाली महिला को सिर्फ 24 वोट मिले
एलिजाबेथ स्टैंटन ने 1866 में अमेरिका के हाउस ऑफ रिप्रजेंटेटिव पद के लिए चुनाव लड़ा। ये अमेरिका के राजनैतिक इतिहास में चुनाव लड़ने वाली पहली महिला थीं। एलिजाबेथ अमेरिका में नारीवादी आंदोलन की शुरुआत करने वालीं महिलाओं में से एक थीं।
उन्होंने ही अमेरिका में महिलाओं को वोटिंग राइट्स के अधिकार की मांग की थी। स्टैंटन ने न्यूयॉर्क से चुनाव लड़ा था। कुल 12 हजार वोटर्स में से उन्हें केवल 24 लोगों ने वोट दिया।
इसके बाद विक्टोरिया वुडहल ने 1872 में इक्वल राइट्स पार्टी के उम्मीदवार के रूप में राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव लड़ा। रिपब्लिकन पार्टी से आज तक किसी महिला ने राष्ट्रपति चुनाव नहीं लड़ा है।
हालांकि 2016 में रिपब्लिकन पार्टी ने कार्ली फियोरिना को राष्ट्रपति पद के लिए नोमिनेट किया था, लेकिन चुनावों के शुरूआती परिणामों को देखते हुए उन्होने अपन नाम वापस ले लिया था। वहीं, डेमोक्रेटिक पार्टी में कमला हैरिस से पहले 2016 में हिलेरी क्लिंटन को ये मौका मिला था।
राष्ट्रपति बनना चाहती थी, देश छोड़ने की नौबत आ गई (पहला किस्सा)
वुडहल जब 15 साल की थीं तभी उनकी शादी हो गई थी। पति के शराब पीने से तंग आकर उन्होंने 12 साल बाद उसे तलाक दे दिया। वह अपनी बहन के साथ मिलकर हकीम का काम करने लगीं। इसी दौरान उन्हें शेयर मार्केट के बारे में पता चला।
वुडहल वॉल स्ट्रीट की पहली महिला ब्रोकर बनीं। उन्होंने स्टॉक मार्केट से तब 7 मिलियन डॉलर कमाए थे। उन्होंने इस पैसे का इस्तेमाल मैगजीन शुरू करने में किया। इसमें महिलाओं और मजदूरों के मुद्दों को जगह दी जाती थी। जल्द ही वह पूरे देश में चर्चित हो गईं।
उन्होंने अपने पैसे का इस्तेमाल चुनाव लड़ने के लिए भी किया। उन्होंने ‘फ्री सेक्स’ का समर्थन और ‘दिन के 8 घंटे काम’ का नारा दिया। वुडहल के चुनाव लड़ने का फैसला उस वक्त के पुरुष नेताओं को नागंवार गुजरा। अश्लीलता का प्रचार करने के आरोप में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।
राष्ट्रपति चुनाव का दिन वुडहल ने जेल में बिताया। वुडहल पर कम्युनिज्म, लिव इन रिलेशनशिप जैसे विषयों पर लेख लिखने की वजह से कई मुकदमे दर्ज हो गए। इसके बाद उन्होंने अमेरिका छोड़ दिया और ब्रिटेन चली गईं। यहां उन्होंने अपनी बेटी के साथ मिलकर महिला अधिकारों से जुड़ी काम करने लगीं।
पति से विरासत में मिली राजनीति (दूसरा किस्सा)
मार्गरेट चेस स्मिथ किसी बड़ी पार्टी से राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवारी की घोषणा करने वाली पहली महिला थीं। उनके पति रिपब्लिकन पार्टी के बड़े नेता थे।
1940 में मार्गेट के पति की मौत हो गई। मरने से पहले उन्होंने एक प्रेस रिलीज जारी कराया जिसमें उन्होंने अपनी राजनीतिक विरासत पत्नी को सौंप दी।
मार्गरेट ने अपने पति की जगह चुनाव लड़ा और हाउस ऑफ रिप्रजेंटेटिव पद के लिए चुनी गईं। मार्रगेट 1948 में मेन राज्य की सीनेटर भी बनीं। उन्होंने 1964 में राष्ट्रपति पद के लिए अपनी उम्मीदवारी की घोषणा की।
यह पहली बार था जब किसी अमेरिकी महिला ने इस पद के लिए दावेदारी की। मारग्रेट के पास उतना पैसा नहीं था कि वह दूसरे रिपब्लकिन प्रत्याशियों के साथ मुकाबला कर सके। चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने कहा था- महिलाएं भी इंसान हैं। उम्मीद है कि लोग उन्हें वोट करेंगे।
हालांकि वह चुनाव हार गई। मार्गरेट अपने वक्त की मशहूर लीडर थीं। वामपंथ की कड़ी आलोचना करने की वजह से स्मिथ को सोवियत संघ में खूब पहचाना जाता था। सोवियत सोवियत यूनियन के सुप्रीम लीडर निकिता ख्रुश्चेव उन्हें महिला के रूप में एक शैतान कहा था।
कोई बैठने की जगह न दे तो अपनी कुर्सी ले आएं (तीसरा किस्सा)
डेमोक्रेट पार्टी की शिर्ली चिशोल्म पहली महिला हैं, जिन्होंने राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी की घोषणा की थी। उन्होंने 1972 में इसकी घोषणा की थी। इससे पहले वे न्यूयॉर्क से 1968 में सांसद बनी थीं और यह उपलब्धि हासिल करने वाली देश की पहली अश्वेत महिला थी।
न्यूयार्क टाइम्स के मुताबिक शिर्ली जब डेमोक्रेटिक पार्टी का राष्ट्रपति उम्मीदवार बनने के लिए चुनाव लड़ रही थीं तभी अलबामा के गवर्नर जॉर्ज वालेस पर हमला हो गया। वह अश्वेतों के खिलाफ नफरती भाषण देने के लिए जाने जाते थे। फिर भी वे हॉस्पिटल में उनसे मिलने गईं। इससे अश्वेत नाराज हो गए थे। कई अश्वेतों ने उन्हें वोट नहीं दिया।
प्राइमरी चुनाव में उन्हें सिर्फ 152 डेलीगेट्स का समर्थन मिला जो कि पार्टी का उम्मीदवार बनने के लिए नाकाफी था। शिर्ली राजनीति में सिर्फ चार साल पहले आई थीं। ऐसे में उनकी ये उपलब्धि भी काबिले तारीफ थी।
शिर्ली ने 2003 में एक इंटरव्यू में कहा था कि अश्वेत होने की तुलना में उन्हें एक महिला होने की वजह से ज्यादा भेदभाव का सामना करना पड़ा। एक अश्वेत महिला होकर राजनीति में बड़ी पहचान बनाने की वजह से उन्हें ‘फाइटिंग शिर्ली’ कहा जाता था।
शिर्ली का कहना था "यदि वे आपको टेबल पर बैठने की जगह नहीं देते हैं, तो एक फोल्डिंग कुर्सी ले आइए।" उन पर नेटफ्लिक्स ने ‘शर्ली एंड द स्टोर ऑफ द रन’ नाम की फिल्म बनाई है।
लेख
सूरज भान शर्मा
स्तंभकार - Writers For The Nation
सामाजिक कार्यकर्ता, पत्रकार