आज (दिनांक २९ अक्तूबर) को बाबा कार्तिक उरांव जी की जयंती है। यह उनका जन्मशताब्दी वर्ष है। कार्तिक उरांव तीन बार लोकसभा के लिए निर्वाचित हुए थे। उनकी मृत्यु के समय वे नागरिक उड्डयन एवं संचार मंत्री थे।
कार्तिक उरांव कांग्रेस के संसद सदस्य थे। वे कांग्रेस के मंत्री थे। किन्तु फिर भी कांग्रेस उनकी जयंती नहीं मनाएगी। कांग्रेस, सरदार वल्लभ भाई पटेल, लाल बहादुर शास्त्री, पं. मदन मोहन मालवीय, राजश्री पुरषोत्तमदास टंडन, डॉ. केशव बलीराम हेडगेवार... इन लोगों की जयंती कभी नहीं मनाती। आपको किसी भी कांग्रेस कार्यालय में इन राष्ट्रीय नेताओं के चित्र यदा-कदा ही मिलेंगे। इन सब में समानता यह है कि ये सारे राष्ट्रीय विचारधारा के नेता थे। इन लोगों ने देश को हमेशा सबसे ऊपर माना। ये सभी कांग्रेस के प्रति समर्पित थे, किन्तु कांग्रेस इन्हें अपना नहीं मानती।
बाबा कार्तिक उरांव भी इसी श्रेणी के कांग्रेस नेता थे। इसलिए कांग्रेस न तो उनकी जयंती मनाती है, और न ही उनका उल्लेख भी करती है। जन्मशताब्दी मनाना तो दूर की बात!
कार्तिक उरांव वनवासी क्षेत्र के धाकड़ नेता थे। उस समय के बिहार के अग्रणी नेतृत्व में एक थे। उनका कार्यक्षेत्र आजकल झारखंड में आता है। बिहार और झारखंड के वनवासी अंचल में आज भी बाबा कार्तिक उरांव के प्रति जबरदस्त श्रद्धा और सम्मान है।
कार्तिक उरांव अत्यंत प्रतिभाशाली व्यक्ति थे। गुमला से मेट्रिक करने के बाद, वे ठक्कर बाप्पा के आश्रम में चले गए। उन्हीं की प्रेरणा से कार्तिक उरांव ने अभियांत्रिकी की अनेक डिग्रियां प्राप्त कीं। १९५० में वे उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड गए, जहाँ पर उन्होंने ९ वर्ष बिताए। विश्व के सबसे बड़े न्यूक्लियर पावर प्लांट का प्रारूप उन्होंने ही बनाया, जो आज ‘हिंकले न्यूक्लियर पावर प्लांट’ (Hinkley Point C Nuclear Power Station) के नाम से जाना जाता है। इंग्लैंड में उनकी भेंट नेहरू जी से हुई, और नेहरू जी के आग्रह पर कार्तिक उरांव भारत वापस आए। एचईसी में डिप्टी चीफ इंजीनियर के पद पर वे कार्य करने लगे। किन्तु १९६२ में, कांग्रेस के आग्रह पर, उन्होंने तत्कालीन बिहार के लोहरदगा लोकसभा सीट से चुनाव लड़ा। लेकिन स्वतंत्र पार्टी के डेविड मुंजनी से मात्र १७,००० वोटों से वे हार गए।
१९६७ में फिर से उन्होंने कांग्रेस की टिकट पर लोहरदगा से चुनाव लड़ा और वे संसद सदस्य चुने गए। १९७७ की जनता लहर का अपवाद छोड़ दें, तो अपने मृत्यु तक (१९८१ तक), वे लोहरदगा का प्रतिनिधित्व लोकसभा में करते रहे। ८ दिसंबर १९८१ को संसद भवन में ही दिल का दौरा पड़ने से उनकी मृत्यु हुई। तब वे केंद्रीय उड्डयन और संचार मंत्री थे।
कार्तिक उरांव मानते थे कि कांग्रेस मुख्यधारा की पार्टी है; अतः कांग्रेस में रहकर ही वनवासियों की दशा और दिशा में सुधार किया जा सकता है। इसलिए, अनेक कटु अनुभव आने के बाद भी, वे कांग्रेस से ही जुड़े रहे।
वनवासियों के बीच होने वाले ईसाई धर्मांतरण से वे क्षुब्ध थे। इसलिए १९६७ में संसद में उन्होंने ‘अनुसूचित जाति / जनजाति आदेश संशोधन विधेयक १९६७’ लाया। इस विधेयक पर संसद की संयुक्त समिति ने बहुत छानबीन की, और १७ नवंबर १९६९ को अपनी सिफारिशें दीं। उनमें प्रमुख सिफारिश थी:
‘२ ब कंडिका २ में निहित किसी बात के होते हुए कोई भी व्यक्ति, जिसने जनजाति आदि मत तथा विश्वासों का परित्याग कर दिया हो और ईसाई या इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिया हो, वह अनुसूचित जनजाति का सदस्य नहीं समझा जाएगा।‘
(अर्थात ‘धर्म परिवर्तन करने के पश्चात उस व्यक्ति को अनुसूचित जनजाति के अंतर्गत मिलने वाली सुविधाओं से वंचित होना पड़ेगा’, जो अत्यंत स्वाभाविक है।)
संयुक्त समिति की सिफारिश के बावजूद, एक वर्ष तक इस विधेयक पर संसद में बहस नहीं हुई। प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी पर ईसाई मिशन का जबरदस्त दबाव था कि इस विधेयक का विरोध करें। ईसाई मिशन के प्रभाव वाले ५० संसद सदस्यों ने इंदिरा गांधी को पत्र दिया कि इस विधेयक को खारिज करें।
इस मुहिम के विरोध में, अपने राजनीतिक भविष्य को दांव पर लगाकर, कार्तिक उरांव ने १० नवंबर को ३२२ लोकसभा सदस्य और २६ राज्यसभा सदस्यों के हस्ताक्षरों का एक पत्र इंदिरा गांधी को दिया, जिसमें यह जोर देकर कहा गया कि ‘वे विधेयक की सिफारिशों को स्वीकार करें, क्योंकि यह ३ करोड़ वनवासियों के जीवन–मरण का प्रश्न है।‘
किन्तु ईसाई मिशनरियों का एक प्रभावी अभियान पर्दे के पीछे से चल रहा था। इस विधेयक के कारण देश–विदेश के ईसाई मिशनरियों में भारी खलबली मची थी।
१६ नवंबर १९७० को इस विधेयक पर लोकसभा में बहस प्रारंभ हुई। इसी दिन नागालैंड और मेघालय के ईसाई मुख्यमंत्री दबाव बनाने के लिए दिल्ली पहुंचे। मंत्रिमंडल में २ ईसाई राज्यमंत्री थे। उन्होंने भी दबाव की रणनीति बनाई। इसी के चलते १७ नवंबर को सरकार ने एक संशोधन प्रस्तुत किया कि ‘संयुक्त समिति की सिफारिशें विधेयक से हटा ली जाएं।‘
२४ नवंबर १९७० को मंगलवार था, और इसी दिन कार्तिक उरांव को इस विधेयक पर बहस करनी थी। इस दिन सुबह कांग्रेस ने अपने सांसदों के नाम एक व्हिप जारी किया, जिसमें इस विधेयक में शामिल संयुक्त समिति की सिफारिशों का विरोध करने कहा गया था। कार्तिक उरांव ने संसदीय संयुक्त समिति की सिफारिशों पर ५५ मिनट तक बोले। वातावरण ऐसा बन गया कि कांग्रेस के सदस्य भी व्हिप के विरोध में, संयुक्त समिति की सिफारिशों के समर्थन में वोट देने की मानसिकता में आ गए।
यदि यह विधेयक पारित हो जाता, तो वह एक ऐतिहासिक घटना होती...!
स्थिति को भांपकर इंदिरा गांधी ने इस विधेयक पर बहस रुकवा दी और कहा कि सत्र के अंतिम दिन इस पर बहस होगी। किन्तु ऐसा होना नहीं था। २७ दिसंबर को लोकसभा भंग हुई, और कांग्रेस द्वारा वनवासियों के धर्मांतरण को मौन सहमति मिल गई!
कार्तिक उरांव हिंदुत्व के प्रबल समर्थक थे। यह विधेयक पारित नहीं होने पर उन्होंने एक पुस्तक लिखी – ‘बीस वर्ष की काली रात’। इस पुस्तक में उन्होंने ईसाई मिशनरियों के धर्मांतरण का कच्चा चिट्ठा खोल दिया है।
उन्होंने पुस्तक में लिखा है: “अनुसूचित जातियों / जनजातियों की परिभाषा सन १९३५ से ही आ रही है और उन्होंने सदा से ही यह दावा किया कि अनुसूचित जातियों / जनजातियों में हिन्दू धर्म मानने वाली जातियाँ ही रहेंगी। जो हिन्दू धर्म को छोड़ कर किसी अन्य धर्म को मानता हो, वह अनुसूचित जाति / जनजाति का सदस्य नहीं समझा जाएगा।“
“संविधान में कोई संशोधन विधेयक नहीं है, जिसके द्वारा भारतीय ईसाईयों को अनुसूचित जनजाति में परिगणित किया हो। अतः ईसाईयों को अनुसूचित जनजाति में परिगणित कर उन्हें सारी सुविधाएं देना असंवैधानिक है।“
“अंग्रेज राज्य के १५० वर्षों में ईसाई मिशनरियों से इतना धर्म परिवर्तन नहीं हुआ, जितना आजादी मिलने पर गत २३ वर्षों में हुआ। १९४७ में मणिपुर में ७% जनजाति ईसाई थे, लेकिन आज बढ़कर ७०% हुए हैं।“
“संविधान में तो ईसाई लोगों के लिए अनुसूचित जनजाति की सूची में कोई स्थान नहीं है।“
कार्तिक उरांव, धर्मांतरण संबंधी इन सभी बातों को लेकर काफी मुखर रहते थे। वनवासी कल्याण आश्रम के बालासाहब देशपांडे जी से उनका जीवंत संपर्क था, और यही कांग्रेस को खटकता था। किन्तु झारखंड के उस वनवासी क्षेत्र में कार्तिक उरांव से बेहतर वनवासियों पर पकड़ रखने वाला दूसरा नेता कांग्रेस के पास नहीं था।
कार्तिक उरांव ने विभिन्न कार्यक्रमों में वनवासियों से कहा था कि ‘ईसा से हजारों वर्ष पहले आदिवासियों के समुदाय में निषादराज गुह, माता शबरी, कण्णप्पा आदि हो चुके हैं, इसलिए हम सदैव हिन्दू थे और हिन्दू रहेंगे।’
आदिवासी यह हिन्दू ही हैं, इसे तार्किक रूप से सिद्ध करने के लिए उन्होंने भारत के कोने-कोने से वनवासियों के ‘पाहन,’ ‘गांव बूढ़ा,’ ‘टाना भगतों’ आदि धर्मध्वजधारियों को आमंत्रित किया और कहा, “आप अपने समुदायों में जन्म तथा विवाह जैसे अवसरों पर गाए जाने वाले मंगल गीत बताएं।”
फिर वहां सैकड़ों मंगल गीत गाए गए, और उनमें यही वर्णन मिला कि, “जसोदा मैया श्रीकृष्ण को पालना झुला रही हैं,” “सीता मैया राम जी को पुष्प वाटिका में निहार रही हैं,” “माता कौशल्या, रामजी को दूध पिला रही हैं”... आदि। यह ऐसा जबरदस्त प्रयोग था, जिसकी काट किसी के पास नहीं थी।
जीवन के अंतिम वर्षों में कार्तिक उरांव ने साफ कहा था, “हम एकादशी को अन्न नहीं खाते, भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा, विजया दशमी, राम नवमी, रक्षाबंधन, देवोत्थान पर्व, होली, दीपावली... हम सब धूमधाम से मनाते हैं। ‘ओ राम... ओ राम...’ कहते-कहते हम ‘उरांव’ नाम से जाने गए। हम हिन्दू पैदा हुए, और हिन्दू ही मरेंगे।”
बाबा कार्तिक उरांव हमारे देश के वनवासियों के प्रतिनिधि चेहरा थे, वनवासियों की बुलंद आवाज थे। कांग्रेस भले ही उन्हें भूल गई हो, किन्तु इस देश के वनवासियों और तमाम राष्ट्रभक्त नागरिकों के हृदय में बाबा कार्तिक उरांव के प्रति असीम आदर और श्रद्धा है..!
लेख
प्रशांत पोळ