भारतीय स्वाधीनता के महान संग्राम में हम जितना योगदान गांधी और नेहरू समेत अन्य सेनानियों का मानते हैं, उनसे कहीं अधिक संघर्ष किया था वन्य क्षेत्र में रहने वाले वनवासियों ने।
वनवासी क्रांतिकारियों, स्वतंत्रता सेनानियों, योद्धाओं और वीरांगनाओं ने इस्लामिक आक्रमणकारियों से लेकर ईसाइयों यूरोपीय सत्ताधीशों को ऐसा जवाब दिया कि उन्होंने जनजाति समाज के जड़ों को ही नुकसान पहुंचाने का काम किया।
यही कारण है कि हमें भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में कहीं भी जनजातीय योद्धाओं के द्वारा किए गए संघर्षों की गाथाएं दिखाई नहीं देती है। चाहे वो संथाल क्रांति हो या भूमकाल आंदोलन, चाहे वो बिरसा मुंडा का नेतृत्व हो या वीर नारायण सिंह का बलिदान, इन सभी की वीरता की गाथाओं को इतिहास की पुस्तकों से निकालकर फेंक दिया गया।
लेकिन केंद्र की मोदी सरकार ने भारत की स्वतंत्रता के 75वें वर्ष में जनजातीय गौरव दिवस मनाने की घोषणा की, इसके लिए सरकार ने मुंडा क्रांति के नायक और उलगुलान के उद्घोषकर्ता भगवान बिरसा मुंडा की जयंती के दिन को चुना, जो कि 15 नवंबर है। इसके बाद प्रत्येक वर्ष 15 नवंबर जनजातीय गौरव दिवस के रूप में मनाया जाने लगा।
आजादी के इसी अमृत महोत्सव में देश में पहली बार जनजातीय योद्धाओं पर चर्चा होने शुरू हुई, वनवासी क्रांतियों का उल्लेख हुआ, सेमिनार-गोष्ठियां हुईं, और देश ने देखा कि कैसे भारत के इन महान वनवासी वीरों ने स्वाधीनता संग्राम में अपनी वीरता से मातृभमि के लिए सर्वस्व न्यौछावर कर दिया।
जनजातीय गौरव दिवस का यह उत्सव धीरे-धीरे अब जनजातीय समाज के साथ-साथ सर्व समाज के लिए भी एक गौरवशाली दिवस बन चुका है, और यही कारण है कि छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में अब 'जनजातीय समाज का गौरवशाली अतीत' जैसे विषयों को लेकर महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में व्याख्यानमालाएं आयोजित की जा रही हैं, जिसमें जनजाति योद्धाओं की स्वाधीनता संग्राम में भूमिका को लेकर चर्चा हो रही है।
इन आयोजनों के माध्यम से प्रदेश के महाविद्यालयों में भगवान बिरसा मुंडा से लेकर झाड़ा सिरहा तक और बुधु भगत से लेकर सिद्धो-कान्हू-फूलो-झानो तक कि गाथाएं बताई जा रही हैं। वीर गुंडाधूर का बलिदान हो या रानी दुर्गावती का शौर्य, सभी वीरों-वीरांगनाओं को याद कर उनकी राष्ट्र भक्ति को नमन किया जा रहा है।
लेकिन ऐसे पुण्य कार्यों के बीच, जब आजादी के 75 वर्षों के बाद वनवासी क्रांतिकारियों की स्मृति में कार्यक्रम हो रहे हैं, तब विदेशी रिलीजन से जुड़े समूह एवं विचारक सोशल मीडिया से लेकर जमीन तक इसका विरोध कर रहे हैं।
सोशल मीडिया में ऐसे समूह कह रहे हैं कि 'यह आरएसएस प्रायोजित कार्यक्रम है।' सच बात तो यह है कि यह केवल और केवल जनजातीय महापुरुषों की स्मृति में उनकी गाथाओं को स्मरण करने का कार्यक्रम है।
सोशल मीडिया में बैठे ऐसे ही क्रिप्टो क्रिश्चियन (स्वयं को जनजाति दिखाने वाले छिपे हुए ईसाई) कह रहे हैं कि 'वनवासी कल्याण आश्रम टाइप इतिहासकारों ने केवल संन्यासी विद्रोह को हाइलाइट किया और जनजाति योद्धाओं के संघर्षों को छिपा दिया।'
जबकि इस बात की वास्तविक सच्चाई यह है कि आज हम जिन वनवासी-जनजाति योद्धाओं की स्मृति में जनजातीय गौरव दिवस मना रहे हैं, यह 'अखिल भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम' जैसी संस्थाओं के कारण ही सम्भव हो पाया है।
वहीं यदि हम इतिहासकारों की बात करें, तो आजाद भारत में इतिहासकार तो ब्रिटिश ईसाइयों की बनाई लाइन को ही आगे बढ़ा रहे थे, उन्होंने कभी भी जनजातीय समाज के विषयों को भारतीय परिपेक्ष्य से देखा ही कहाँ ?
सोशल मीडिया पर अपने बनाए आभामंडल में आधी-अधूरी जानकारी देकर 'बुद्धिजीवी' दिखने का शौक रखने वाले ये क्रिप्टो क्रिश्चियन वास्तव में जनजातीय समाज के भीतर आ रही जागरूकता से घबरा चुके हैं।
एक ओर जहां जनजाति समाज इनके अवैध कन्वर्जन के जाल को समझ रहा है, वहीं दूसरी ओर जनजातीय समाज में अपने वास्तविक योद्धाओं एवं वीरांगनाओं के द्वारा धर्म रक्षा के लिए दिए गए बलिदान भी चर्चा का विषय बन रहे हैं, ऐसे में वह समूह सबसे अधिक तिलमिलाए हुआ है, जो इन्हें तोड़ने और जड़ों से दूर करने में लगा हुआ था।
ये क्रिप्टो क्रिश्चियन समूह कभी वामपंथियों और 60 वर्षों तक सत्ता में बैठे लोगों से यह प्रश्न नहीं पूछते कि जनजातीय योद्धाओं की गाथाओं को आखिर इतिहास के पन्ने से क्यों हटा दिया गया ? यह कभी नहीं कहते कि जनजाति समाज के गौरवशाली इतिहास को अपनी पुस्तकों में क्यों नहीं रखा ? यह सब प्रश्न इसलिए नहीं पूछे जाते क्योंकि ये उनकी सच्चाई और आपसी गठजोड़ को उजागर कर देगा।
लेख
रामनाथ बस्तरिया