'हम सदा से थे, सदा रहेंगे। कितने ही आक्रमणकारी आए, और गए, हम बने रहे। तमाम सभ्यताएं मर गई, पर हम आज भी जीवित हैं और प्रगति कर रहे हैं। खतरे का भय दिखाकर बस राजनीति की जा रही है, और कुछ नहीं।'
उत्तराखंड को देवभूमि कहा जाता है। मेरा सौभाग्य कि मैं देवभूमि में रहा हूँ। वह कालखंड मेरे जीवन का सबसे जीवंत कालखंड है। वहां आंख वालों के लिए अनेकों आश्चर्य भरे पड़े हैं। उन आश्चर्यों में से एक है पिथौरागढ़ जिले में आने वाले गंगोलीहाट के पास 'पाताल भुवनेश्वर'। जब मैं बारहवीं में था तो इस स्थल पर मित्रों के साथ गया था।
एक गुफा है जो नीचे की ओर जाती है। बहुत पतली दिखती है, पर आजतक कोई उसमें फँसा हो, ज्ञात नहीं। नीचे जाती कुछ घिसी हुई सीढियां हैं, और दीवारों पर जंजीर लगी है जिसके सहारे भक्त और पर्यटक नीचे उतरते हैं।
एक जगह पर तीन बहुत छोटे-छोटे उभरे पत्थर हैं, जिन्हें वहां बैठे पुजारी ने बताया कि ये ब्रह्मा-विष्णु-महेश हैं। ऊपर से बूंद-बूंद कर बूंदे टपकती हैं जो बारी-बारी इन त्रिदेवों के ऊपर गिरती हैं। गुफा की एक दीवार से करीब दो फुट आगे एक पतली सी स्लेट जैसी पत्थर की पट्टी है जिसमें कुछ छेद हैं। कहते हैं कि अगर सिक्का फेंको और वह छेद से होते हुए दीवार से टकरा जाए तो मनोकामना पूर्ण होती है।
एक जगह दीवार में बड़ा सा गड्ढा जैसा है जिसके तले पर चार अलग-अलग बेलनाकार पत्थर खड़े हैं (जो युगों का प्रतिनिधित्व करते हैं) जिनमें से एक बाकी तीनों से लंबा है। कहते हैं कि ये चारों एक-एक कर बढ़ते हैं और सबसे लंबा पत्थर जब ऊपरी तल को छू लेगा तो कलियुग समाप्त हो जाएगा और सतयुग शुरू होगा।
मैं नास्तिक था, और इन सब बातों को सुनकर मजे ले रहा था। कुछ देर बाद मेरे साथी खाना खाने बाहर निकल गए पर मेरा मन अभी भरा नहीं था। मैं उस गुफा के आध्यात्मिक सौंदर्य में बंधा वहीं रुका रहा। तभी भौतिक सौंदर्य की कई प्रतिमानों ने गुफा में प्रवेश किया। शायद अल्मोड़ा के किसी कॉलेज की लड़कियां थी। उनका दुर्भाग्य कि पुजारी जी वहां नहीं थे, न कोई और जो उन्हें गुफा के बारे में बता सके।
मैं जींस-टीशर्टधारी पुजारी बन गया और उन त्रिदेवों के पास पुजारी की गद्दी पर बैठ गया और ईश्वर की महिमा बखानी। न जाने कितनी लड़कियों को तिलक किया। जो दक्षिणा मिली, वह वहीं थाली में रख दी। पण्डित जी जाने कब आकर खड़े हो गए थे और मेरे क्रियाकलापो को देख मुस्कुरा रहे थे। जब मैंने उन्हें देखा तो उठ खड़ा हुआ, वे मेरा कंधा थपथपाते हुए अपने आसन पर बैठ गए।
अब मैं पुजारी से गाइड बन गया। जब मनोकामना पूरी करने वाली खड़ी प्लेट पर ले गया तो कुछ लड़कियों के पास सिक्के खत्म हो गए थे। उनके पास संतरे थे। मैंने कहा कि बात तो किसी ऑब्जेक्ट को छिद्र के पार पहुँचाने भर की है, आप लोग संतरे के छिलके फेंकिए। ईश्वर यदि है तो उसे सिक्के या छिलके से फर्क नहीं पड़ेगा।
मैं पूरे समूह को बहुत प्रभावित कर चुका था। जब उन चार युगों वाले पत्थरों के पास ले गया, तब उनमें से कइयों ने पूछा कि क्या मैंने देखा है कलयुग वाले पत्थर को बढ़ते हुए। मैंने नहीं कहा, और समझाने की कोशिश की कि हमारा जीवन बहुत छोटा है, युग में हजारों-लाख साल होते हैं। पत्थर एक माइक्रोमीटर भी बढ़ेगा, तब तक हमारा तीन-चार जीवन समाप्त हो चुका होगा।
पर नहीं। उन लड़कियों को यह सब पाखंड लगा। वे लड़कियां जो अब तक मेरी हर सही-गलत बात को सही मान रही थी, बस इस बात पर कि मैंने स्वयं अपनी आंखों से कलियुग वाले पत्थर को बढ़ते नहीं देखा, पूरी अवधारणा को नकार कर चलती बनी।
हाँ, हम सदा से थे। कितने आये-गए, न जाने कितनी सभ्यताएं मिट गई, हम बने हुए हैं। पर क्या हम सच में अमर हैं, अजर हैं? हमने अपनी आँखों से नहीं देखा, जिस गांव-शहर में पैदा हुए, वह आज भी वैसे का वैसा है, इसलिए कोई खतरा ही नहीं है, कभी कोई खतरा ही नहीं था, यह सोच उन लड़कियों जैसी है जो संतरे के छिलकों से मनोकामनाएं पूर्ण होने पर तो सहमत होती हैं पर पत्थरों के बढ़ने को नजर से न देखने के कारण नकार देती हैं।
राजनीतिक सीमाएं तो बदली हैं, यह हमारे आंखों के सामने है। पाकिस्तान और बांग्लादेश भारत था, और उस जमीन पर भारत पूरी तरह मिट चुका है। बहुत पहले मैंने 'भारत देश के नेपाल राज्य' लिखा था, और कई मित्र आ गए कि नेपाल तो कभी भारत था ही नहीं। हम भारत के नक्शे में श्रीलंका को जरूर बनाते हैं पर उसे भारत नहीं मानते। जबकि वह भी भारत ही था। आजादी के अहिंसा वाले आंदोलन में वहां से भी चंदा लेती थी कॉंग्रेस।
बर्मा अथवा म्यामांर पूरा का पूरा भारत था। आजादी के सारे साहित्य में रंगून, मांडले भरा पड़ा है। तिब्बत में अभी पचास के दशक तक हमारी सेना, संचार प्रणाली इत्यादि कई सेटअप थे। यह सब पिछले सौ साल में 'हम' थे। और पीछे जाइये तो पूरा अफगानिस्तान, बलूचिस्तान, चीन का शिनजियांग भारत ही था। अब कोई नामलेवा नहीं बचा।
'आक्रमणकारी आये और गए, या यहीं के होकर रह गए', यह विचित्र कॉन्सेप्ट विशेष प्रकार के इतिहासकारों द्वारा प्रस्तुत है जो अधूरा और भ्रामक है। आक्रमणकारी आये और गए, और यहीं बस गए, के बीच बहुत कुछ हुआ है।
सिकन्दर के नेतृत्व में यवन आए जिन्हें भारतीय गणतन्त्रों ने पीट-पीटकर भगाया। फिर सेल्युकस के नेतृत्व में यवन आये जिन्हें महान चंद्रगुप्त ने इतनी बुरी हार दी कि वह सभी शर्तों को मानकर दुम दबाकर भागा। बाद के यवनों को पुष्यमित्र शुंग और उसके बेटों ने हराया। शकों और कुषाणों को गुप्त वंश के महान राजाओं ने परास्त किया। हूणों को भी पहले गुप्तों ने फिर वर्मन ने हराया।
ये आये और गए नहीं। ये आये और पीटे गए। पूर्ण पराजित हुए। इनकी सत्ताओं को, इनके शहरों को, इनकी जैसी भी थोड़ी-बहुत वास्तुकला रही होगी, उन्हें पूरा का पूरा भारतभूमि से मिटा दिया गया। ये यहीं के होकर रह गए? नहीं! ये यहां के तब हुए जब इन्होंने यहां की रीतियों को, यहां के देवताओं को, यहां के आचार और विचार को पूरी तरह आत्मसात कर लिया। इनके किसी भी स्वतंत्र अस्तित्व को, विशिष्ट पहचान को पूरी तरह मिटा दिया गया, इनके पास कोई विकल्प नहीं छोड़ा, तब ये हममें मिल गए।
और यह मिलन ऐसा है कि यदि किसी वैज्ञानिक विधि से आज पता चल जाए कि फला व्यक्ति के पूर्वज शक या हूण या यवन थे, तो वह अपनी उस पहचान को नकार कर भारतीय पहचान को बरकरार रखेगा।
क्या जो ट्रीटमेंट इन आक्रमणकारियों के साथ हुआ वह अरबों, तुर्कों के साथ हुआ? इन्हें पूर्णतः पराजित नहीं किया गया, इनके स्वतन्त्र अस्तित्व को बरकरार रखा गया, इनकी रीतियाँ, इनके विचार कभी भारतीय बने ही नहीं।
बल्कि हम ही उनकी तरह बनते गए। हम उन्मुक्त और सहिष्णु धार्मिक समाज से दकियानूसी समाज बने। अपनी भाषा में मिलावट कर ली। अरे, हमने तो अपने नृत्य और संगीत तक से ईश्वर तत्व को बाहर निकाल दिया।
संसार के सारे धर्मस्थल मात्र पूजा के लिए होते है, पर हमारे धर्मस्थल आराधना के स्थल थे, तपस्या के केंद्र थे। वह शिक्षण के केंद्र थे। नृत्य, संगीत ही नहीं, योग, चिकित्सा, फाइनेंस और सैन्यशिक्षा के केंद्र थे। हमारे साहित्यों में गुरुकुल में यह सब सिखाया जाता था। वशिष्ठ, विश्वामित्र से लेकर चाणक्य और पतञ्जलि तक, ये सारे गुरु धर्म के साथ अर्थ और शस्त्र की शिक्षा भी देते थे। हमने धर्म से शिक्षा को अलग कर दिया, शिक्षा को धर्म से अलग कर दिया। मन्दिरों को पर्यटन स्थल बना दिया।
हमें धन से, धनवानों से एक विशिष्ट प्रकार की घृणा है। धनवानों का धन छीन लो, लूट लो, यह किसकी सोच रही है, कौन लुटेरी प्रवृत्ति का है, यह इतिहास में हजारों बार लिखा है। हम भी वेल्थ-क्रिएटर से उनकी तरह नफरत करें, क्या यह सही है। जबकि हम तो 'धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष' कहने वाले लोगों के वंशज हैं। 'सुखस्य मूलं धर्म:, धर्मस्य मूलं अर्थ:' सुख का मूल धर्म है, धर्म का मूल अर्थ है। यह ऋषियों के वचन हैं, पर हमें या तो फकीर बनना है, या गरीबी को रोमांटिसाइज करना है, और धनवानों से नफरत करनी है।
खतरे का भय दिखाकर राजनीति नहीं हो रही, खतरा है इसलिए राजनीति हो रही है। खतरा तो हमेशा से था, हमने खतरे की अनदेखी कर अपनी कई शताब्दियों को, कई पीढ़ियों को बर्बाद किया है। अब राजनीति बदली है, नीतियां बदल रही हैं, माइंडसेट चेंज हो रहा है, जो शुभ है। इस शुभकार्य में योगदान देते रहें। शायद आपको अपने जीवनकाल में परिणाम न दिखे, पर आपकी आने वाली पीढ़ी आपकी इस जागरूकता से अवश्य लाभान्वित होगी।
लेख
अजीत प्रताप सिंह
स्वतंत्र टिप्पणीकार
लेखक - अभ्युत्थानम् (पुस्तक)