भूमिका
स्वाधीन भारत में एक लंबा समय निकलने के बाद भी भारतीय धर्म अनुयायियों को अब तक अपनी पीड़ा साझा करने का अवसर नहीं मिला। क्योंकि हमें यह बताया गया कि हिंदू भारत में बहुसंख्यक हैं भला उन्हें एक ऐसी पीड़ा हो सकती है?
1947 में हमारी पुण्यभूमि भारत का धर्म आधारित विभाजन झेलने के बाद भीण हिंदुओं को यही समझाया कि भारत में बहुसंख्यक होना ही अपने आप में पाप है, जिसके पश्चात्ताप के लिए अल्पसंख्यकों के लिए सुरक्षा एवं सम्मान करने का हर निरंतर प्रयास करना होगा। जिसके लिए संविधान के स्वरूप में दो आश्वासन दिए गए - पहला अल्पसंख्यकों को के लिए राजनीतिक तुष्टीकरण और दूसरा गैर संवैधानिक तरीके से हिंदुओं के साथ न्यायिक भेदभाव।
खिलाफत आंदोलन से लेकर मोपला जनसंहार पर नरम स्वभाव, राज्य और केंद्र के भयंकर संशोधन, स्कूलों के पाठ्यक्रम, हज सब्सिडी तथा पदासीन प्रधानमंत्री द्वारा यह कहा जाना कि देश के संसाधनों पर पहला हक अल्पसंख्यकों का है आदि जैसे वैचारिक मतभेदों की कुछ उदाहरण हैं जो संवैधानिक तौर से सही लग सकती है परंतु सामाजिक सद्भाव के लिए काफी घातक है।
मुसलमानों की आबादी महज 15% ही है, फिर भी पिछले 10 सालों में उन्हें आवास योजना के तहत दिए गए मकान 31.3%, किसान सम्मान निधि योजना के अधीन मिली धनराशि 33% और मुद्रा योजना के तहत ऋण का 36% मुसलमानों को मिलता है।
हिंदू मंदिरों पर सरकारी नियन्त्रण
स्वतंत्र भारत के किसी भी बड़े घोटाले में से मुख्य है- हिंदू मंदिरों तथा संपत्ति पर सरकारी नियन्त्रण। धर्मनिरपेक्ष का सिद्धांत- धर्म को शासन के मामले में दखल नहीं देना है। फिर शासन को भी धर्म के मामले में दखल नहीं करना चाहिए।
केवल 10 राज्यों की सरकारों का 1,10,000 हिंदू मंदिरों पर नियंत्रण है। तमिलनाडु के मंदिर न्यासों के पास 4,78,000 एकड़ मंदिरों की जमीन है। तमिलनाडु सरकार के पास अकेले 36,425 मंदिरों तथा 56 मठों का नियंत्रण है और कर्नाटक में यही आंकड़ा 34,563 है।
केरल की कम्युनिस्ट सरकार के पास पांच देवस्वम बोर्ड - त्रावणकोर, गुरुवायूर, कोचीन, मालाबार और कोडमणीक्कम है। कम्युनिस्ट जिनके लिए धर्म एक अफीम मात्र है वो कुल 3058 मंदिरों तथा बोर्ड के सदस्यों पर नियंत्रण कर कब्जा किए हैं। इस प्रत्येक वर्ष हिंदू मंदिरों का ऑडिट करने के नाम पर 5% से लेकर 21% तक प्रशासनिक शुल्क लिया जाता है।
सामाजिक कार्यकर्ता और वकील टी आर रमेश के अनुसार तमिलनाडु सरकार 2.44 करोड़ वर्ग फीट मंदिर की भूमि से होने वाली आय कम से कम 6,000 करोड़ वर्ष होनी चाहिए, परन्तु वह मात्र 58 करोड है, जो 1% से भी कम है। सरकारों द्वारा अपनी सुविधानुसार मंदिरों की संपत्ति नीलाम कर दी जाती है। मंदिरों पर किए जाने वाले हमले अपना रूप बदल कर सीधे हिंदुत्व पर किए जाने वाले हमले बन चूके हैं।
मजेदार बात तो यह है की भारत पर हिंदू राष्ट्र का व्यंग्य कसने वाले हिंदू मंदिरों पर सरकारी नियन्त्रण के मुददे पर चुप्पी साधे हैं। अपनी आमदनी को स्वयं के समाज पर व्यय न करने के कारण हिंदू मंदिर वेद पाठशालाएं, विद्यालयों, कॉलेजों, विश्वविद्यालयों आदि पर खर्चा नहीं कर सकते क्योंकि संविधान के कुछ अनुच्छेद इसकी आज्ञा नहीं देते।
शिक्षा का अधिकार अधिनियम
2009 में कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने आरटीई अधिनियम लाया जिसकी प्रस्तावना है - "छह से 14 वर्ष की आयु के सभी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करना है।"
आरटीई के तहत कई ऐसे प्रावधान हैं जो चुनिंदा रूप से केवल गैर अल्पसंख्यक स्कूलों पर लागू होते हैं। यदि कोई स्कूल आरटीई के अधीन किसी बच्चे को दाखिला देना चाहता है तो वह बच्चे की स्क्रीनिंग नहीं ले सकता।
निजी तौर पर संचालित हिंदू शैक्षणिक संस्थानों को 25% सीटें आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग और अन्य वंचित समूह के बच्चों के लिए आरक्षित रखना अनिवार्य है।
इस प्रकार आरटीई के अनुसार हमारे समाज के आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग की सेवा करने का दायित्व केवल हिंदू समाज तथा हिंदू संचालित स्कूलों पर है, ना कि ईसाई और मुस्लिम संचालक संस्थानों पर।
2017 में नेशनल इंडिपेंडेंट स्कूल एलायंस (निसा) 12 राज्यों में उन स्कूलों के एक सूची तैयार की, जिन्हें आरटीई के कठोर नियमों का पालन न करने के कारण सरकारों द्वारा बंद किया गया। छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा स्थापित हिंदवी साम्राज्य के गढ़ महाराष्ट्र में लगभग 7000 स्कूलों को बंद करने के लिए कहा गया।
सामाजिक कार्यकर्ता और वकील अश्विनी उपाध्याय जी ने एक जनहित याचिका दायर कर मांग की कि जिन राज्यों में हिंदू अल्पसंख्यक हैं, वहाँ उन्हें अल्पसंख्यक घोषित किया जाना चाहिए। जहाँ हिंदू अल्पसंख्यक हैं, ऐसे राज्य हैं - जम्मू कश्मीर, मिज़ोरम,अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, पंजाब, नागालैंड, मेघालय, लद्दाख और लक्षद्वीप।
लेकिन केंद्र सरकार के समूह ने इस याचिका को तुच्छ कहकर खारिज कर दिया तथा राष्ट्रीय अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान आयोग ने समर्थन किया, जिसके अधिनियम के तहत केवल मुस्लिम, ईसाई, जैन, सिख, बौद्ध और पारसी अल्पसंख्यकों की सूची में आते हैं। हिंदू मंदिरों पर नियंत्रण से ज्यादा क्रूर हिंदुओं को हस्तक्षेप और नियंत्रण के डर से बिना स्वयं के शैक्षणिक संस्थानों को चलाने की अनुमति न मिलना है।
कश्मीरी नरसंहार पर चुप्पी
धारा 370 हटने के बाद से कश्मीर में पर्यटकों का आंकड़ा आसमान छू रहा है, आमदनी बढ़ रही है। लेकिन कश्मीर का आतंकवाद वहाँ के स्थानीय हिंदुओं को निशाना बना रहा हैं ना कि पर्यटक हिंदुओं को। वे चाहते हैं कि हिंदू यहाँ से भाग जाए और पर्यटक रूप में आये और खूब पैसा देकर जाएं लेकिन इस जमीन पर इस्लाम ही कायम रहे।
सरकारी आंकड़ों के अनुसार 1991-92 के सामूहिक जनसंहार के बाद 62,000 परिवारों का कश्मीर से पलायन हुआ जिनकी कुल शरणार्थी संख्या 5 लाख है। लेकिन गृह मंत्रालय की मानें तो गत वर्ष में कश्मीरी हिंदुओं के लिए किए गए वादे के मात्र 17% घर ही तैयार किए गए। केवल 5928 कश्मीरी हिंदुओं को प्रधानमंत्री रोजगार योजना के तहत रोजगार मिल सका।
सैयद शाह गिलानी कश्मीर में 90 के दशक की सांप्रदायिक कट्टरता, धार्मिक दंगों तथा सामूहिक नरसंहार के लिए जिम्मेदार थाव जिसकी लिखी पुस्तकों को पढ़कर कश्मीरी हिंदुओं के विरुद्ध सीधे तौर पर जिहाद किया गया तथा पाकिस्तान और अफगानी मुसलमानों को कश्मीर के जिहाद में भाग लेने के लिए उत्साहित किया। इस विषैली मानसिकता वाले लोगों और उनके दलों से केंद्र सरकार ने कई बार प्यार निभाया है चाहे वो कांग्रेस हो या भाजपा।
जहाँ एक देश लगभग तीन दशकों से अपनी दुनिया में मस्त है और लगभग 5,00,000 हिंदुओं को अपनी ही धरती पर शरणार्थी बना दिया गया। कैसा यह देश है जहाँ 57,000 घुसपैठिये रोहिंग्या मुसलमानों को जम्मू कश्मीर में बसाया जाता है लेकिन वहाँ के 5,00,000 कश्मीरी हिंदुओं को उनके घर वापस नहीं भेजा जा सकता? क्या एक बहुसंख्यक समुदाय की आबादी पर आधारित हिंदू राष्ट्र में हिंदुओं के साथ ऐसा ही सब कुछ होना चाहिए?
समान नागरिक संहिता
अपराधिक मामलों में भारत का संविधान और कानून समान है। भारतीय दंड संहिता और दंड प्रक्रिया संहिता बिना किसी भेदभाव के अपराधी को सजा सुनाते हैं ताकि राष्ट्र में न्यायिक समानता स्थापित रहे। लेकिन निजी मामलों में न्यायालय का विचार और स्वभाव भिन्न है। न्यायालय हिंदू हिन्दुओं के पारिवारिक मामलों में हस्तक्षेप कर सकता है परंतु मुस्लिम, सिख, ईसाई, पारसी समुदाय के पारिवारिक मामलों में न्यायालय दखल नहीं दे सकता।
सभी अल्पसंख्यक समुदाय के लिए एक निजी (पर्सनल) कानून प्रणाली है, जिसमें उनके नागरिक मुददे जैसे- तलाक, जायदाद, पारिवारिक क्लेश आदि सुलझाए जाते हैं परन्तु बहुसंख्यक समाज यानी हिंदुओं के घरों में घुसना न्यायालय को काफी पसंद है। हिंदू कितने बच्चे पैदा करेगा या कितने विवाह करेगा इस पर भी कानून बनाया जा चुका है, परंतु जहाँ बच्चे ऊपर वाले का कर्म है वहाँ बच्चों की गिनती पर तथा विवाह पर कोई पाबंदी नहीं है।
पूजा पद्धति पर भी हिंदुओं के समय का चयन किया जाता है लेकिन कोई सांप्रदायिक दिन में जब मर्जी पूजा करें तो उससे किसी न्यायालय को कोई आपत्ति नहीं। किसी के रक्तरंजित त्योहारों पर न्यायालय को कोई आपत्ति नहीं लेकिन न्यायालय को सारा ज्ञान हिंदू रिति रिवाजों तथा त्योहारों पर ही देना याद आता है।
सारांश
न्यायालय का भारत के बहुसंख्यक हिंदू समाज के प्रति ही पराया व्यवहार हो सकता है क्योंकि उनको विश्वास है कि यह समाज कभी अपने हक के लिये सड़कों को जाम नहीं करेगा, आंदोलन नहीं करेगा, दंगा नहीं करेगा, परंतु किसी अन्य समुदाय के बारे में कुछ नहीं कहते क्योंकि उनकी वास्तविकता से न्यायालय भी भलीभाँति अवगत है।
भाजपा की केंद्र सरकार 'जो सबका साथ, सबका विकास' का नारा देने वाली थी 2024 के जनादेश में उन्हें अच्छा सबक सीखने को मिला है और बताया है कि भारत के मूल स्थानीय निवासियों पर ही विश्वास करें तथा उनके हित के लिए कार्य करें ताकि वह समाज उन्हें पूर्ण बहुमत दिला सके।
इस बार केंद्र सरकार को सारे कार्य भारत राष्ट्र में हिंदू समाज को सम्मानित नागरिक होने का अधिकार दिलाने के लिए करने चाहिए ताकि विश्व का एकमात्र हिंदू देश अपनी संस्कृति और शिक्षा का प्रचार कर अपने धर्म की रक्षा कर सकें क्योंकि यदि भारत राष्ट्र में हिंदू बहुसंख्यक हैं तब तक ही भारत राष्ट्र है नहीं तो अनेक को दीमक इस भारत राष्ट्र रूपी वृक्ष को खोखला करने के लिए तैयार है।