बलिदान दिवस: छत्रपति संभाजी महाराज और उनके परम प्रिय छांदोगामात्य की वीर गाथा

आगरा में जयसिंह के बेटे दो हजारी मनसबदार राजा रामसिंह ने शिवाजी और सम्भाजी का स्वागत किया और उपयुक्त समय पर उन दोनों को दरबार ले आए। दरबारी प्रथा के अनुसार दोनों ने झुककर बादशाह को मुजरा किया और रामसिंह की बताई जगह पर खड़े हो गए। घमंडी और कुटिल औरंगजेब ने अपमानजनक ढंग से अपने सामने झुके मराठा की ओर ध्यान भी नहीं दिया। सही भी है, आका गुलामों पर क्यों ध्यान देने लगा!

The Narrative World    11-Mar-2024   
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मिर्जा राजा जयसिंह ने दक्खिनी शेर शिवाजी को इस हद तक मजबूर कर दिया कि उस शेर को भी संधि करनी पड़ी। संधि की शर्तों में था कि वह मराठा राजा मुल्क के बादशाह आलमगीर औरंगजेब का मनसबदार और मिर्जा राजा जयसिंह के बराबर रुतबे का दरबारी बनता। मजबूर शिवाजी को राजधानी आगरा आना पड़ा। उनके साथ उनके पुत्र ग्यारह वर्षीय सम्भाजी भी थे। कोई धोखा न हो
, इसलिए जयसिंह मराठा प्रदेश में जामिन बनकर रहे।


आगरा में जयसिंह के बेटे दो हजारी मनसबदार राजा रामसिंह ने शिवाजी और सम्भाजी का स्वागत किया और उपयुक्त समय पर उन दोनों को दरबार ले आए। दरबारी प्रथा के अनुसार दोनों ने झुककर बादशाह को मुजरा किया और रामसिंह की बताई जगह पर खड़े हो गए। घमंडी और कुटिल औरंगजेब ने अपमानजनक ढंग से अपने सामने झुके मराठा की ओर ध्यान भी नहीं दिया। सही भी है, आका गुलामों पर क्यों ध्यान देने लगा!


दरबारी कामकाज शुरू हुआ। राजस्थान के एक मुगलिया मनसबदार को बादशाह ने खुश होकर खिलअत दी, अपने हाथों से छूकर उसे नजराना भेंट किया। राजा ने उसे झुककर मुजरा किया और दरबारी रिवाज के अनुसार बिना मुड़े पीछे हटते-हटते अन्य दरबारियों के साथ खड़ा हो गया। सामान्य बात थी, पर गड़बड़ यह हुई कि वो गलती से शिवाजी के सामने खड़ा हो गया। शिवाजी बादशाह द्वारा किये गए अपमान से पहले ही क्रोधित थे, अब किसी को अपने आगे देख उनका क्रोध फट पड़ा। सारे दरबार ने पहली बार किसी की बुलंद आवाज सुनी, "राम सिंह, मेरे सामने अपनी पीठ दिखाने वाला यह गुस्ताख़ कौन है?"


रामसिंह पहले तो समझ ही नहीं पाए, फिर हड़बड़ाते हुए राजा का परिचय दिया। शिवाजी को यह सोच और क्रोध चढ़ा कि जंगे-मैदान में हमेशा हमें पीठ दिखाकर भागने वाला यह राजा यहाँ बेअदबी से पीठ दिखा रहा है! वे अपना स्थान छोड़ आगे बढ़े और बादशाद के सामने उसकी आँखों में देखते हुए बोले, "यहाँ इस दरबार में मेरा अपमान हुआ है। अब यह शिवा यहाँ कभी वापस नहीं आएगा।" इतना कह वे पलटकर दरबार से निकल आए। मुगलिया इतिहास में यह पहला ही मौका था कि कोई बादशाह को पीठ दिखाकर इतनी बेअदबी से बाहर निकल जाए। दरबारियों की सांस ऊपर की ऊपर ही रह गई। बालक सम्भाजी समझ ही नहीं पाए कि वे वहीं खड़े रहे या अपने पिता के पीछे जाए। उन्होंने औरंगजेब की ओर देखा, उसकी कुटिल मुस्कान ने उन्हें कुछ पल के लिए ठिठका लिया। फिर वे पीछे-पीछे ही दरबार से निकल अपने पिता की ओर बढ़ चले।


इस घटना के बाद शिवाजी को नजरबंद कर लिया गया। रामसिंह के प्रयासों से शिवाजी की जगह उनके प्रतिनिधि के रूप में सम्भाजी को दरबारी मान्यता मिल गई। शिवाजी एक महल में नजरबंद थे, और सम्भाजी पाँच हजारी मनसबदार की हैसियत से दरबार में जाते रहे। कुछ महीने बीत गए। शिवाजी को उम्मीद थी कि उनकी हत्या करवा दी जाएगी। अतः उन्होंने बीमारी का बहाना बनाया और पूजा-पाठ, दान-धर्म के बहाने अपने महल से बड़े-बड़े बक्सों में गरीबों के लिए मिठाईयां इत्यादि भेजने लगे। जिस दिन रामसिंह ने सांकेतिक सूचना दी कि अगली सुबह उनकी हत्या कर दी जाएगी, वे अपने बेटे के साथ मिठाई के बक्से ले जाने वाले मजदूरों जैसे भेस बनाकर निकल गए।


शहर के बाहर एक पच्चीस वर्षीय युवा ब्राह्मण कवि उनकी प्रतीक्षा कर रहा था। कवि का नाम था कुलेश। कुलेश कुछ दिन पहले शिवाजी से भेंट कर आया था। शिवाजी ने उसे विश्वास योग्य मान संकेतों में ही अपनी योजना समझाई थी, जिसके फलस्वरूप वह नित्य ही शहर के बाहर उनकी प्रतीक्षा करता रहता। शिवाजी को देखते ही उसने छुपा कर रखे घोड़े प्रस्तुत किए और उन्हें छोटे रास्ते से मथुरा ले आया। मथुरा तक के रास्ते में शिवाजी को यह आभास हो गया था कि बालक सम्भाजी के कारण उन्हें अनावश्यक विलंब हो रहा है। अगर ऐसे ही देरी होती रही तो वे जल्द ही पकड़ लिए जाएंगे। उन्होंने सम्भाजी को अपने एक मंत्री के रिश्तेदार के पास छोड़ा और अपनी राजधानी की ओर चले गए। कुछ महीनों बाद उन्होंने जासूस भेजकर सम्भाजी को बुला लिया। युवा कवि कुलेश भी उन्हें कुछ दूरी तक छोड़ने आए।


समय अपने समय से चलता रहा। शिवाजी के शिवलोक जाने पर अपनी विमाता सोयराबाई के विभिन्न कुचक्रों से बचते हुए सम्भाजी गद्दी पर बैठे। इस बीच कवि कुलेश शिवाजी से मिलने आए थे और शिवाजी तथा सम्भाजी दोनों के प्रेमाग्रह पर यहीं बस गए थे। सम्भाजी स्वयं उच्चकोटि के कवि थे, उन्हें उत्तर भारत के इस कवि से लगाव सा हो गया था।


सम्भाजी के राजा बनने पर कवि कुलेश का प्रभाव भी बढ़ा। शिवाजी के समय से चला आ रहा अष्टप्रधान (आठ वरिष्ठ मंत्रियों का समूह) वैसा ही रहा था। षड्यंत्र में शामिल कुछ मंत्रियों को हल्की सजा के बाद पुनः मंत्रिपद दे दिया गया था, मृत्युदंड पाए मंत्रियों के वंशजों को मंत्रिपद दिया गया था। परन्तु इन मंत्रियों को कवि कुलेश का राजा के इतने निकट होना कभी नहीं भाया। उनका यह सोचना था कि हम मराठे पीढ़ियों से सेवा कर रहे हैं और यह कल का उत्तर भारत से चलकर आया कन्नौजिया राजा का खास बन जाए! इस चिढ़ से वे कुलेश को सामान्य शिष्टाचारवश भी खाने पर नहीं बुलाते।


कुलेश की कविता से प्रभावित होकर छत्रपति ने उन्हें छांदोगामात्य का खिताब दिया था। छांदोगामात्य कुशल वार्ताकार भी थे। उन्होंने फ्रांसीसियों से वार्ता कर तोपें और बारूद हासिल किया था, डचों से उम्मीद से अधिक धन वसूला था। उनके ही प्रयासों से अंग्रेज समुद्री लुटेरों को मराठा साम्राज्य में घुसने से रोकने के लिए तैयार हुए थे। इन सबसे प्रसन्न होकर छत्रपति ने उन्हें पुर्तगालियों से वार्ता करने भेजा तो कुल-अख्तियार बनाकर। अर्थात उन्हें छत्रपति के समान ही अधिकार दिए गए कि वे जैसी चाहें वैसी संधि करें। जब बादशाह औरंगजेब का बागी बेटा अकबर (द्वितीय) सम्भाजी की शरण में आया तो कवि कुलेश ने ही मराठा साम्राज्य के हक में उससे अधिकतम फायदा निकाला और समय आने पर छत्रपति की सहमति से उसे ईरान की ओर भेज दिया।


पिछले आठ साल से औरंगजेब दक्षिण भारत में अभियान चला रहा था। मुगलों ने एक लाख की सेना के साथ मराठा किलों पर धावा बोला था पर कुछ ही सालों में मुगल सेनापतियों को बची हुई चालीस हजार की सेना के साथ पीछे हटना पड़ा। अब औरंगजेब ने अपनी रणनीति बदल दी। उसने दक्षिण के दो दूसरे शक्तिशाली साम्राज्यों पर निगाहें टेढ़ी की। पहले आदिलशाही साम्राज्य ढहा, फिर कुतुबशाही भी झुक गई। अब गोलकुंडा और बीजापुर की सेनाएं भी मुगल सेना थी।


मुगल सेनापतियों को यह समझ आ गया था कि आमने-सामने की जंग से मराठों को जीतना मुश्किल है। उन्होंने लालच और फूट का सहारा लिया। देश का दुर्भाग्य है कि यहाँ केवल वीर ही नहीं रहते, गद्दार भी रहते हैं। राजपूत बहुत वीर थे, तो उनमें गद्दार भी बहुत थे। मराठे भी कुछ अलग नहीं थे। गद्दार मराठों ने एक-एक कर पैसा, पदवी, ईर्ष्या इत्यादि से प्रेरित हो मराठा साम्राज्य के मजबूत किलों को मुगलों के हाथ सौंपना शुरू कर दिया। वर्षों से जो साम्राज्य निरंतर फैल रहा था, अब घर की दीमकों से सिकुड़ने लगा।


एक बार सम्भाजी भगवान शिव की पूजा के निमित्त राजधानी छोड़ अपनी स्वर्गवासी धाय-माँ के गाँव आए हुए थे। उनके साथ बस कुछ सौ सैनिक ही थे, कि अचानक मुगलों की एक फौज ने उन्हें घेर लिया। मालूम चला कि एक छोटी सी जागीर के लालच में सम्भाजी की पत्नी, महारानी येसुबाई के सगे भाई गणोजी ने मुगलों को सम्भाजी का न केवल पता बताया था, बल्कि एक छोटे रास्ते से पूरी फौज की अगवानी भी की थी।


स्वामिभक्त मराठे अपने छत्रपति की रक्षा में एक-एक कर शहीद हुए जाते थे, पर मुगल फौज के आगे उन चंद वीरों की हकीकत ही कितनी थी। वे दस को मारते तो ग्यारहवां शत्रु सैनिक उनके पेट में तलवार घुसा ही देता था। छत्रपति ने निश्चित हार जान अपने बचे हुए वीरों को उन्हें छोड़कर राजधानी भाग जाने का हुक्म दिया, और हुक्म दिया कि छत्रपति रहे न रहे मराठा ध्वज कभी भी मुगल के आगे झुक न पाए (न झुकने का हुक्म मराठों ने खूब निभाया) प्रत्यक्ष आदेश को अस्वीकारने की हिम्मत अनुशासित सैनिकों में नहीं होती। वे भारी मन से अपने ईश्वर के प्रतीक, अपने छत्रपति को छोड़ राजधानी की ओर दौड़ पड़े। राजा ने आसपास देखा तो उनकी हुक्मउदूली कर कवि कुलेश अभी भी मुगल सैनिकों की तलवारों को उनके पास आने से रोकने का भरसक प्रयास कर रहे थे। सम्भाजी ने तनिक क्रोधित होकर पूछा, "छांदोगामात्य! मैंने राजधानी लौटने का आदेश दिया था। वापस जाओ।"


कवि कुलेश लड़ते-लड़ते ही बोले, "महाराज! मैं सैनिक नहीं। उनकी तरह अनुशासन मुझे नहीं आता। फिर आपने ही तो मुझे कुल-अख्तियार बनाया है! जब तक आप मुझसे वह पदवी छीन नहीं लेते, मुझे अख्तियार है कि मैं अपनी मर्जी करूँ। और जो आपने मुझसे पदवी छीन भी ली, तो भी मैं आपका आदेश नहीं मानूंगा। मैं कवि हूँ, मैं ब्राह्मण हूँ। ब्राह्मण अपने राजा का साथ नहीं छोड़ सकता महाराज!"


सम्भाजी ने इस धृष्ट ब्राह्मण को गर्व से देखा और नए जोश के साथ दुश्मनों की गर्दन उतारने लगे। पर कब तक? एक समय ऐसा भी आया कि उनकी ऊर्जा खत्म होने लगी, इतने सैनिक घिर आए कि तलवार घुमाने की जगह भी न बची। दक्षिण के शेर क्षत्रिय-कुलतिलक छत्रपति सम्भाजी और उत्तर के कन्नौजिया ब्राह्मणश्रेष्ठ छांदोगामात्य कवि कुलेश जीवित पकड़ लिए गए।


उन दोनों को मसखरों के कपड़े पहना कर शहर में घुमाने के बाद मुगल बादशाह के दरबार में पेश किया गया। बादशाह ने आठ साल तक परेशान करने वाले इस दक्खिनी सूरमा को देखा और अपने शासनकाल में पहली बार भरे दरबार के बीचोबीच आकर शुक्राने की नमाज पढ़ने लगा। सम्भाजी ने बादशाह को सजदा करते देखा तो कुलेश से बोले, "छांदोगामात्य, आज बहुत दिनों बाद कविता सुनने का मन कर रहा है। कुछ सुनाओ।"


कवि ने बृज में एक दोहा सुनाया जिसका अर्थ था कि हे छत्रपति, तू इतनी वीरता से लड़ा कि तेरी वीरता को प्रणाम करने के लिए देख ये औरंगजेब भी झुक गया है।


औरंगजेब ने उन दोनों को कारागार में भिजवा दिया। अपने शातिर दरबारियों को उनके पास उनके खजाने और जासूसों की जानकारी निकलवाने के लिए भेजा। जब वे मार-पीट से कुछ न उगलवा पाए तो उन्होंने कुलेश को प्रलोभन देने चाहे। जब औरंगजेब को पता चला कि वे दोनों मुँह नहीं खोलते, और कोई उम्मीद भी नहीं, तो उन्हें तड़पाकर मारने की आज्ञा दे दी।


कैदी छत्रपति और कवि के सामने उनकी सजा सुनाई गई। पहले उनकी जीभ काटी जाएगी, फिर उनकी आँखें फोड़ी जाएगी, फिर उनकी चमड़ी छील कर उनके शरीर पर नमक का पानी डाला जाएगा। सजा पहले कवि को, फिर सम्भाजी को दी जाएगी।

सजा सुनकर छांदोगामात्य को बहुत तेज हँसी आई। वे सजा सुनाने वाले से बोले, "तेरे बादशाह को लगता है कि पहले मुझे सजा देने से राजा मोहवश तुम सबको तुम्हारे प्रश्नों के उत्तर दे देगा तो भूल जाओ। छत्र धारण करने वाले छत्रपति केवल राष्ट्र के होते हैं। राष्ट्र के लिए यदि अपने पुत्र को भी होम करना पड़े तो वे पीछे नहीं हटते।"


कवि ने राजा की ओर मुड़कर कहा, "हे राजा! तेरे मंत्रियों ने मुझे उत्तरदेशीय समझ कभी अपने साथ भोजन पर नहीं बिठाया। पर महादेव की कृपा देख, कि आज स्वयं तेरे साथ मुझे यह सौभाग्य मिल रहा है। आज मैं तेरे उन सभी मंत्रियों से कहीं ऊंचे स्थान पर बैठा हूँ। मेरी जीभ अभी काट दी जाएगी, अतः मुझे अपनी प्रजा का प्रतिनिधि समझ, उनकी ओर से अंतिम प्रणाम स्वीकार कर।"


जल्लादों ने कवि की जुबान खींचकर काट दी। उसकी आँखों में गर्म सलाखें घुसा दी। फिर तेज धार चाकुओं से पूरे शरीर की त्वचा उतार दी। दर्द इतना अधिक था कि दर्द का अहसास ही खत्म हो गया था। जब त्वचाहीन शरीर पर नमक का पानी फेंका गया तो कवि शांत बने रहे। महाराज उस वीर को अश्रुपूरित नेत्रों से देखते रहे।


यही सब क्रियाएं राजा पर भी दोहराई गई। और फिर दोनों को एक कोठरी में बन्द कर दिया गया। सजा के बारहवें दिन कवि के प्राण निकल गए। राजा भी अपने कवि की जुदाई बहुत देर सह नहीं पाए और उन्होंने भी आँखें मूंद ली।


दक्षिण भारत और उत्तर भारत के दो वीर एक-दूसरे का हाथ पकड़े इहलोक से विदा हो गए।


इन बारह दिनों में जिह्वाहीन मालिक और नौकर ने, राजा और कवि ने, छत्रपति और छांदोगामात्य ने, दो मित्रों ने आपस में क्या बात की, कौन जानता है!