17 मई, 2010 : माओवादियों ने दंतेवाड़ा में बस पर हमला कर 44 नागरिकों का किया था नरसंहार

इस माओवादी आतंकी हमले के ठीक 6 सप्ताह पहले तत्कालीन दंतेवाड़ा जिले के ताड़मेटला क्षेत्र में माओवादियों ने अब तक का सबसे बड़ा आतंकी हमला किया था, जिसमें कम्युनिस्ट नरपिशाचों ने 76 जवानों का नरसंहार किया था।

The Narrative World    17-May-2024   
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आज जब छत्तीसगढ़ के बस्तर में माओवादियों के विरुद्ध लगातार आक्रामक अभियान चलाए जा रहे हैं
, तब चारों ओर यह चर्चा हो रही है कि अब माओवादियों का अंत निकट है।


जिस तरह से बीते 4 महीने में ही 100 से अधिक माओवादी मारे गए हैं, वहीं 200 से अधिक गिरफ्तार हुए हैं, उससे इन चर्चाओं ने और जोर पकड़ा हुआ है।


लेकिन आज हम बात करने वाले हैं उस वक़्त की जब माओवादी खुलेआम और लगातार सुरक्षा बल के जवानों पर हमला करते थे, और केंद्र की तत्कालीन सरकार केवल और केवल नई नीति और रणनीति बनाने की बात करती थी।


यह वो दौर था जब एक के बाद एक देश के अलग-अलग हिस्सों में माओवादी आतंकी वारदातों को अंजाम दे रहे थे, वहीं सत्ता में बैठी मनमोहन सिंह की सरकार इनसे निपटने के लिए कोई रणनीति भी नहीं बना सकी थी। उसी दौर की एक घटना हुई थी 17 मई, 2010 को। इस दिन माओवादियों ने बस्तर की आम जनता का नरसंहार किया था।


दरअसल यह देश में हुए सबसे बड़े माओवादी आतंकी हमले के ठीक 6 सप्ताह बाद की घटना है। बस्तर के दक्षिण में स्थित दंतेवाड़ा जिला, जिसने कुछ सप्ताह पहले ही ताड़मेटला में माओवादियों के द्वारा किया गया नरसंहार देखा था, वह आतंक के साये में सन्नाटे के साथ जी रहा था।


17 मई की दोपहर को सुकमा से निकली एक निजी सवारी बस पर माओवादियों ने आईईडी विस्फोट कर हमला किया था, जिसमें 44 लोग मारे गए थे। मरने वालों में 18 जवान एसपीओ के थे, वहीं अन्य 26 लोग सामान्य नागरिक थे जिसमें महिलाएं और बच्चे भी शामिल थे।


“यह एक निजी बस थी, जिसमें आम नागरिक सफर करते थे, लेकिन माओवादियों को नागरिकों के खून का स्वाद लग चुका था, और इसी का परिणाम था कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के कम्युनिस्ट आतंकियों ने आम नागरिकों से भरी बस में हमला किया और 44 लोगों का नरसंहार कर दिया।”


इस घटना को अंजाम देने के लिए माओवादियों ने सड़क पर पहले से ही विस्फोटक प्लांट कर रखा था। यह हमला चिंगावरम के अंदरूनी सड़क में किया गया था। हमले का स्तर इसी से समझा जा सकता है कि जहां यह हमला हुआ उस स्थान पर 10 फीट का गड्ढा बन चुका था।


यह जानकारी भी उस दौरान सामने आई थी कि जिला पुलिस अधीक्षक एवं अन्य पुलिस अधिकारी केवल 10 मिनट पहले ही हमले के स्थान से गुजरे थे। इस हमले के बाद तत्काल नजदीकी सीआरपीएफ कैम्प से सहायता मांगी गई, जिसके बाद जवानों और माओवादियों के बीच छिटपुट फायरिंग भी हुई थी।


छत्तीसगढ़ के तत्कालीन शीर्ष पुलिस अधिकारी में से एक ने मीडिया में बयान देते हुए कहा था कि 'यह किसने सोचा था कि माओवादी आम नागरिकों को भी इस तरह निशाना बनाएंगे?'


सेना के पूर्व ब्रिगेडियर एवं कांकेर में स्थित काउंटर-टेरर एवं जंगल वॉरफेयर कॉलेज के तत्कालीन डायरेक्टर बीके पंवार ने मीडिया से बात करते हुए कहा था कि 'माओवादियों के पास जरूर आईईडी विस्फोटकों का एक नक्शा है, जैसा सेना के पास होता है। यह विस्फोटक कोई एक रात में प्लांट नहीं किए गए हैं। इसे संभवतः तब रखा गया है, जब रोड का निर्माण हो रहा था।'


गौरतलब है कि इस माओवादी आतंकी हमले के ठीक 6 सप्ताह पहले तत्कालीन दंतेवाड़ा जिले के ताड़मेटला क्षेत्र में माओवादियों ने अब तक का सबसे बड़ा आतंकी हमला किया था, जिसमें कम्युनिस्ट नरपिशाचों ने 76 जवानों का नरसंहार किया था।


इतने बड़े हमले के बाद भी केंद्र की तत्कालीन सरकार ने माओवादी आतंक को खत्म करने की दिशा में कोई बड़ा एक्शन नहीं लिया, ना ही फोर्स को इतना आधुनिक बनाया कि वो इन घने जंगलों में माओवादियों के गुरिल्ला वॉर का मुकाबला कर सके।


“कांग्रेस की सरकार की 'पॉलिसी पैरालिसिस' के कारण माओवादियों के हौसले इतने बुलंद हो चुके थे कि पहले तो उन्होंने 6 अप्रैल 2010 को 76 जवानों का नरसंहार किया, उसके बाद माओवादियों 8 मई, 2010 को ही बीजापुर में सीआरपीएफ की एक बुलेट प्रूफ वाहन को बम से उड़ा दिया, जिसमें 8 जवान बलिदान हो गए थे।”


इसी सप्ताह में दो दिन पूर्व माओवादियों ने राजनांदगांव के माओवाद से प्रभावित क्षेत्र में एक सरपंच सहित कुल 6 ग्रामीणों की हत्या कर उनके शव को फेंक दिया था।


इतनी घटनाओं को अंजाम देने के बाद भी माओवादियों ने एक बार फिर आतंकी वारदात की और इस बार आम नागरिकों स भरी बस को निशाना बनाया, जिसके चलते 44 लोग मारे गए।


यह जानना भी जरूरी है कि इस घटना के बाद केंद्र की सरकार और मीडिया का क्या रवैया था। एक तरफ जहां केंद्र की कांग्रेस सरकार नक्सल नीति-रणनीति की समीक्षा का नाटक कर रही थी, वहीं दूसरी ओर कम्युनिस्ट मीडिया द्वारा ऐसा नैरेटिव गढ़ा जा रहा था कि इस हमले के लिए माओवादी नहीं बल्कि एसपीओ के जवान जिम्मेदार हैं।


इस घटना पर एनडीटीवी की रिपोर्ट में कहा गया कि 'जो एसपीओ के जवान बस में सवार थे वो घटना से कुछ दिनों पूर्व हुए नक्सल ऑपरेशन का हिस्सा थे, जिसमें 2 माओवादी मारे गए थे। लेकिन इस ऑपरेशन में माओवादियों का लोकल कमांडर गणेश बच गया था।'


एनडीटीवी ने रिपोर्ट किया कि ऑपरेशन के बाद कुछ जवानों ने बस पकड़ी, जिसकी सूचना माओवादियों को मिलना उनकी बेहतर इंटेलिजेंस और संपर्क का नेटवर्क दर्शाता है।' हम सभी जानते हैं कि एनडीटीवी ने उस दौरान कैसे एक पक्षीय पत्रकारिता से कम्युनिस्ट लॉबी के लिए विमर्श खड़ा किया है।


एनडीटीवी के अलावा टाइम्स ऑफ इंडिया ने एक 'अनजान सूत्र' के हवाले से लिखा था कि 'माओवादियों को जवानों के मूवमेंट की जानकारी थी, जिसका उन्होंने फायदा उठाया है। जवानों ने ऑपरेशन प्रक्रिया का उल्लंघन किया और बस में बैठ गए।'


चलिए हम मान लेते हैं कि जवानों ने बस में बैठ कर किसी प्रक्रिया का उल्लंघन किया, लेकिन क्या इससे यह बात झूठ हो जाएगी कि माओवादियों ने आम नागरिकों से भरी बस में आतंकी हमला किया, जिसमें 44 लोग मारे गए ? क्या मीडिया यह नैरेटिव सेट करने में लगी थी कि यह हमला माओवादियों के द्वारा किया गया कोई आतंकी कृत्य नही, बल्कि जवानों की गलती है ?


दरअसल यह सबकुछ हमारी आंखों के सामने हो रहा था, लेकिन हमें अर्बन नक्सलियों और कम्युनिस्ट विचारकों ने ऐसा मैनिपुलेट किया कि हम माओवादी आतंकियों के द्वारा किए गए इन नरसंहारों को भूल चुके हैं।


यही कारण है कि आज भी समाज में एक वर्ग ऐसा है जिसे लगता है कि माओवादी जल-जंगल-ज़मीन की लड़ाई लड़ रहे हैं, बल्कि वास्तविकता यह है कि माओवादी उन्हीं निर्दोष जनजातियों को निशाना बना रहे हैं जिनके नाम पर वो तथाकथित क्रांति की बातें करते हैं।