देश के मध्य और पूर्वी हिस्सों को जला रही आग की सुध आख़िर कौन लेगा ?

पर इससे पहले कि हम कन्वर्ज़न की इस बढ़ती आग पर आगे चर्चा करें, हम छत्तीसगढ़ की हालिया घटना को समझने का प्रयास करते हैं। दरअसल प्रदेश के बस्तर अंचल में धुरगुड़ा नाम का एक गाँव है। गत 22 मई को इस गाँव में रहने वाले एक व्यक्ति की मौत हो गई। वह व्यक्ति मूलतः तो जनजातीय समाज से था, किन्तु वह कथित तौर कन्वर्ट होकर ईसाई हो चुका था। इसके परिवारजनों ने व्यक्ति को गाँव में ही पूर्वजों को माटी दी गई जगह के निकट माटी देने का (यानी अन्तिम संस्कार का) निश्चय किया।

The Narrative World    29-May-2024   
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पचास दिनों से ज्यादा हो गए, उत्तर के पहाड़ों को भयंकर आग ने अपने लपेटे में ले रखा है। इस पूरी अवधि में अकेले हिमाचल प्रदेश के ही 13 वनमण्डलों में दावानल की लगभग 303 घटनाएँ दर्ज की जा चुकी हैं। अबतक वनों के 8 हजार हेक्टेयर से भी अधिक रकबे में वन सम्पदा की अपार क्षति हुई है। इसलिए स्वाभाविक रूप से यह न केवल उत्तर में, बल्कि पूरे भारत में मीडिया सहित आम लोगों की चर्चा में भी घर बनाए हुए है।


लेकिन इस देश में एक आग ऐसी भी लगी हुई है, जिसने पूर्वोत्तर के वनांचल के बाद अब मध्य और पूर्वी भारत के जनजातीय क्षेत्रों को अपने आगोश में लिया है। पिछली कई दशकों से यह आग लगातार विकराल होती गई है। लेकिन दुर्भाग्य से इस आग और इससे होने वाली अपूरणीय क्षति, दोनों को ही को पत्रकारिता की मुख्य धारा के साथ-साथ सामान्य जनमानस की चर्चाओं में भी आज तक वह स्थान नहीं मिल सका है, जो बॉलीवुड के किसी सितारे को आई छींक को मिल जाता है।


आप सही सोच रहे हैं, यह आग है कन्वर्ज़न की। और भारत के पूर्वोत्तर भाग में इसने जो विनाश किया, वह हमें समझ आता, उसका हम कुछ अनुमान लगा पाते, आकलन कर पाते; तब-तक यह आग छत्तीसगढ़, झारखण्ड, ओडिशा आदि के जनजातीय क्षेत्रों में भी काफी तेजी से बढ़ गयी। हाल ही में छत्तीसगढ़ के जनजाति बहुल बस्तर क्षेत्र के गाँव धुरगुड़ा में एक मृतक के अन्तिम संस्कार को लेकर हुए विवाद ने हमें एक चेतावनी दी है कि इस आग को हल्के में लेकर हम कुछ ठीक नहीं कर रहे।


पर इससे पहले कि हम कन्वर्ज़न की इस बढ़ती आग पर आगे चर्चा करें, हम छत्तीसगढ़ की हालिया घटना को समझने का प्रयास करते हैं। दरअसल प्रदेश के बस्तर अंचल में धुरगुड़ा नाम का एक गाँव है। गत 22 मई को इस गाँव में रहने वाले एक व्यक्ति की मौत हो गई। वह व्यक्ति मूलतः तो जनजातीय समाज से था, किन्तु वह कथित तौर कन्वर्ट होकर ईसाई हो चुका था। इसके परिवारजनों ने व्यक्ति को गाँव में ही पूर्वजों को माटी दी गई जगह के निकट माटी देने का (यानी अन्तिम संस्कार का) निश्चय किया।


जब ग्रामीणों को इस बात का पता चला तो उन्होंने मृतकों के परिजनों के निर्णय पर आपत्ति जताकर उन्हें समझाया कि यदि वे अपने पूर्वजों के साथ माटी देना चाहते हैं, तो उन्हें अन्तिम संस्कार भी अपने पुरखों की मान्यताओं और प्रथाओं के अनुसार करना चाहिए, और यदि ईसाई तरीके से ही अन्तिम संस्कार करना है तो फिर उसे मसीही कब्रिस्तान में दफ़नाना चाहिए।


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इस पर परिवार वालों ने गाँव वालों की बात मानकर पुरखों से चली आ रही परम्परा के अनुसार ही अन्तिम संस्कार करने का निर्णय लिया। लेकिन जब यह बात ईसाई पास्टरों तक पहुँची तो वे अपने दल-बल के साथ तुरन्त मौके पर पहुँचे और बीच सड़क पर लाश रखकर उसके आस-पास हंगामा करने लगे। बाद में पुलिस की समझाइश के बाद मामला शान्त हुआ और अन्ततोगत्वा हिन्दू परम्परा के अनुसार ही उसे माटी दी गयी।


यद्यपि यह मामला यही समाप्त हो गया, लेकिन अपने इसने बहुत से ज्वलन्त प्रश्न हमसे किये हैं। क्या यह कन्वर्ज़न केवल ईश्वर के प्रति आस्था को लेकर है, या यह संस्कृति और परम्पराओं का भी कन्वर्ज़न है? क्या एक लाश को बीच सड़क पर रख हंगामा करना ही कन्वर्ज़न का परिणाम है? और सबसे महत्वपूर्ण सवाल जो प्रासंगिक भी है और जो आगे हमारी इस चर्चा का केन्द्र भी बनने वाला है, वह है कि आखिर ग्रामीणों ने एक कन्वर्टेड व्यक्ति को ईसाई तरीके से गाँव में दफनाने से मना क्यों किया?


तो इनमें से पहले दो प्रश्न तो सैद्धान्तिक है, जिन पर समाज के विद्वज्जनों के साथ मिलकर जिम्मेदार लोग व संगठन विचार करें, तब ही उनके उत्तर ढूँढे जा सकेंगे। लेकिन तीसरा प्रश्न व्यावहारिक जीवन से जुड़ा प्रश्न है। और इसका उत्तर ढूँढने का प्रयास हम यहाँ अवश्य कर सकते हैं। इसमें सबसे पहली बात यह है कि कन्वर्ज़न की कठिन प्रक्रिया के बावजूद भारत में प्रतिवर्ष कन्वर्टेड लोगों की संख्या बढ़ रही है।


“प्रथमदृष्ट्या एक सामान्य भारतीय को यह बात कोई खास चिन्ताजनक नहीं लगती, क्योंकि भारतीय समाज का बहुसंख्यक भाग "एकं सद्विप्राः बहुधा वदन्ति", "ए एक एव प्रभुरद्वितीयः, "सर्वपन्थसमभाव" आदि विचारों से अतीव उदात्त हो चुकी दृष्टि से विश्व को देखता है। लेकिन स्वयं को ईश्वर के चयनित लोग मानने वाले लोग और ईसाईयत को सर्वश्रेष्ठ मानने वाला चर्च हमारे प्रति यह भाव नहीं रखते। और इसीलिए यह दुःखद वास्तविकता है कि भारत में कन्वर्ज़न आस्था या विश्वास की बजाय डर और लालच से ज्यादा हो रहा है। यह अवश्य ही चिन्ता की बात है।”

 


चार्ल्स ग्राण्ट और बिल्बरफोर्स से लेकर आजतक ईसाई मिशनरियों ने जिस तरह दबे पाँव अपना तन्त्र फैलाया, वह उसे हमारे समाज के लिए और भी घातक बना देता है। इसीलिए ईसाइयत के मूल में क्या है, इस पर विचार करने की बजाय हमें पूरी दुनिया को ईसाई बनाने की सनक के साथ काम कर रहे लोगों के हथकण्डों को जानना बहुत जरूरी है।


जैसा कि हमने कहा कि चर्च सर्वश्रेष्ठता के भाव से ग्रस्त है, और इसीलिए वह यह मानता है कि दुनिया को 'सभ्य' बनाना उसका काम है। यहाँ सभ्य से आशय आप समझ ही गए होंगे। यहाँ के बात और उल्लेखनीय है। वर्ष 1995 में तत्कालीन पोप जॉन पॉल II ने एशियाई बिशपों के फेडरेशन को सम्बोधित करते हुए कहा था,


"Just as in the first millennium the Cross was planted on the soil of Europe, 7 and in the second on that of the Americas and Africa, we can pray that in the Third Christian Millennium a great harvest of faith will be reaped in this vast and vital continent of Asia."


अर्थात् "जिस तरह पहली सहस्राब्दी में ईसा का क्रॉस यूरोप में गाड़ा गया, दूसरी सहस्राब्दी में अमेरिका व अफ्रीका में गाड़ा गया ठीक उसी तरह हम यह हम यह प्रार्थना करते हैं कि ईसा की तीसरी सहस्राब्दी में ईसा पर विश्वास का यह फल एशिया नाम के इस विशाल महाद्वीप में भी अवश्य फलेगा।"


हम भारत के पूर्वोत्तरी हिस्सों में कन्वर्ज़न की स्थिति देखते हैं, तो पोप के इस कथन को लेकर मिशनरियों की गम्भीरता हमें साफ-साफ दिखती है। पोप की इसी बात के आधार पर अमेरिका से संचालित होने वाले जोशुआ प्रोजेक्ट ने पूरी दुनिया को ईसाई बनाने का अभियान छेड़ रखा है। पैसों के लाललच के साथ-साथ हिंक साधनों से ये कन्वर्ज़न कराए जाते हैं।


कुछ मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक भारत में कन्वर्जन के लिए प्रति व्यक्ति 35 हजार रूपए तक दिये जा रहे हैं। अब हम वापसे अपने मूल प्रश्न पर लौटते हैं कि आखिर ग्रामीणों को ईसाई रीति-रिवाजों से क्या समस्या है? तो बात ऐसी है कि झूठे नैरेटिव्ज़ शहरों में बैठे हमलोगों के सामने तो सच्चाई पर पर्दा डाल सकते हैं, लेकिन जनजातीय क्षेत्रों में ब्रिटिश काल से लेकर अबतक चल रहे चर्च के आतंक लोगों की स्मृति में चिरस्थायी हैं। और दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि जब जनजातीय परिवार के लोग कन्वर्ट होकर ईसाई बनते हैं तो उनके संवैधानिक अधिकार समाप्त नहीं होते। तो उनके बहाने चर्च अनुसूचित क्षेत्रों में भी बिना किसी बाधा के निरन्तर अपनी जमीन और सम्पत्ति बढ़ाते जा रहे हैं।


बस्तर हो या झारखण्ड, या अन्य वनांचल, सभी प्राकृतिक संसाधनों की दृष्टि से अति सम्पन्न है। तो यदि चर्च जनजातियों को मिले संवैधानिक अधिकारों का उपयोग कर इन स्थानों पर अपनी पकड़ मजबूत बना रहा है, तो देश के महत्वपूर्ण संसाधनों पर भी वह अपना अधिकार बढ़ा रहा है। पर अब ग्रामीणों की दृष्टि से वह बच नहीं पा रहा है। और फिर कब्रिस्तान के नाम पर जमीन ले चुका चर्च, कन्वर्टेड परिवारों की पैतृक सम्पत्ति पर भी एक तरह से अधिकार जताने लगता है।


अपने आस-पास ऐसी घटनाएँ देखने के बाद ग्रामीण सतर्क हो गए हैं और इनके बीच से ही उभर रहे कई जनजातीय संगठन भी अब चर्च की सत्ता को चुनौती देने लगे हैं। डीलिस्टिंग के माध्यम से कन्वर्टेड ईसाइयों को मिल रहे संवैधानिक अधिकारों को खत्म करने की मांग जोरों से उठने लगी है, जो चर्च की जमी-जमाई नीति के लिए बड़ा खतरा होगा। तो इसीलिए ऐसी घटनाओं के माध्यम से चर्च द्वारा केवल विक्टिम कार्ड ही खेला जा रहा है।


गत वर्ष नारायणपुर में चर्च में हुई तोड़-फोड़ के बाद जब कुछ प्रबुद्ध लोगों, मीडिया संस्थानों और सामाजिक संगठनों ने जाँच की तो भी यही विक्टिम कार्ड वाली बात सामने आई थी। वास्तव में यह चर्च की एक पुरानी सोची समझी चाल ही है कि जब-तक संख्या कम है, तबतक मेमने की तरह मासूम बने रहकर शक्ति इकट्ठा करो।


जब स्थिति मजबूत हो जाए, तो लोमड़ी की तरह चालाकी दिखाते हुए अपनी संख्या तेजी से बढ़ाओ। और अन्ततोगत्वा जब बहुसंख्यक हो जाएँ, तो खूँखार चीते की तरह ईसाईयत के अलावा शेष सभी का समूल विनाश कर दो। मणिपुर का रोता अतीत और जलता वर्तमान चर्च के इस हथकण्डे का जीता-जागता उदाहरण है।


और इसीलिए हमने कहा कि यदि हमलोग ही इस आग हल्के में लेंगे तो कन्वर्ज़न की इस भयानक आग में जलते भारत के जनजातीय क्षेत्रों की सुध भला कौन लेगा? इसलिए अब एक ही विकल्प है - जागो।

 

लेख


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ऐश्वर्य पुरोहित

शोध प्रमुख

सेंटर फ़ॉर स्टडीज़ ऑन होलिस्टिक डेवलेपमेंट