आज बाबासाहेब जरूर रो रहे होंगे!

क्यों डॉ. भीमराव अम्बेडकर को अपना आदर्श बताने वाले युवाओं की यह कथित आर्मी हिंसा और उपद्रव के इस असंवैधानिक रास्ते पर उतर आई? इसे तुच्छ राजनीतिक स्वार्थसिद्धि नहीं तो भला क्या कहा जाए कि बात-बात पर बाबासाहब और उनके संविधान का हवाला देने वाली भीम आर्मी ने ही डॉ. अम्बेडकर की बातों को ताक पर रहकर वह सब किया, जिसने संवैधानिक मर्यादाओं को तार-तार कर दिया।

The Narrative World    13-Jun-2024
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हमारे संविधान के प्रधान शिल्पियों में से एक डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने 25 नवम्बर 1949 को भारत की संविधान सभा में एक अद्भुत वक्तव्य दिया था। इस वक्तव्य में उन्होंने हमारे लोकतन्त्र में सरकार, संवैधानिक संस्थाओं आदि से लेकर सामान्य जनमानस के उत्तरदायित्त्व तक के विषय में बड़ी अर्थपूर्ण बाते कहीं थी। उनमें से सामाजिक उत्तरदायित्व से जुड़ी एक महत्वपूर्ण बात यहाँ मैं उद्धृत करूंगा। उन्होंने कहा था,


"If we wish to maintain democarcy not merely in form, but also in fact, what must we do? There first thing in my judgment we must do is to hold fast to constitutional methods of achieving our social and economic objectives. It means we must abandon the bloody methods of revolution. It means that we must abandon the method of civil disobedience, non-cooperation and satyagraha. When there was no way left for constitutional methods for achieving economic and social objectives, there was a great deal of justification for unconstitutional methods. But where constitutional methods are open, there can be no justification for these unconstitutional methods. These methods are nothing but the Grammar of Anarchy and the sooner they are abandoned, the better for us."


अर्थात् "यदि हम लोकतंत्र को केवल रूप में ही नहीं वरन् यथार्थ में बनाये रखना चाहते हैं तो हमें क्या करना चाहिये? मेरे विचारानुसार सबसे पहले हमें यह करना चाहिये कि अपने सामाजिक और आर्थिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिये हम संविधानिक रीतियों को दृढ़ता पूर्वक अपनायें। इसका अर्थ यह है कि क्रान्ति की निर्मम रीतियों का हम परित्याग करें इसका अर्थ यह है कि सविनय अवज्ञा, असहयोग और सत्याग्रह की रीति का हम परित्याग करें। आर्थिक तथा सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिये जब कोई मार्ग न रहे तब तो इन असंविधानिक रीतियों का अपनाना बहुत कुछ रूप में न्यायपूर्ण हो सकता है। पर जब संविधानिक रीतियों का मार्ग खुला हुआ है कि इन असंविधानिक रीतियों का अपनाना कभी न्यायसंगत नहीं हो सकता है। ये रीतियां अराजकता के सूत्रपात के अतिरिक्त और कुछ नहीं है और जितना शीघ्र इनका परित्याग किया जाये उतना ही हमारे लिये अच्छा है।" (Constitutional Assembly Debates, Vol. 9, p. 978)


यदि इन बातों के आलोक में हम छत्तीसगढ़ के बलौदाबाजार जिले में सोमवार को हुई घटना पर विचार करें, जहाँ सतनामी समाज के द्वारा किए गए प्रदर्शन में भीम आर्मी, भीम रेजिमेण्ट, भीम क्रान्तिवीर नाम के अन्यान्य संगठन के उपद्रवियों और उनके नेताओं के नेतृत्व मेंजय भीम-जय भीमका नारा लगाती अमर्यादित भीड़ ने कलेक्ट्रेट समेत पुलिस अधीक्षक के कार्यालय को भस्मीभूत कर दिया, तो मन में एक बवण्डर सा उठता है कि एक समाज के रूप में आखिर हम कहाँ जा रहे है? क्या अपने महापुरुषों को श्रद्धांजलि देने का हमारे पास अब यही तरीका शेष रह गया है? क्या वे महापुरुष हमारे लिए केवल राजनीतिक स्वार्थसिद्धि के उपकरण बन कर रह गए हैं?


यदि नहीं, तो फिर क्यों  डॉ. भीमराव अम्बेडकर को अपना आदर्श बताने वाले युवाओं की यह कथित आर्मी हिंसा और उपद्रव के इस असंवैधानिक रास्ते पर उतर आई? इसे तुच्छ राजनीतिक स्वार्थसिद्धि नहीं तो भला क्या कहा जाए कि बात-बात पर बाबासाहब और उनके संविधान का हवाला देने वाली भीम आर्मी ने ही डॉ. अम्बेडकर की बातों को ताक पर रहकर वह सब किया, जिसने संवैधानिक मर्यादाओं को तार-तार कर दिया।


मानाकि गुरु घासीदास की पवित्र जन्मभूमि के निकट जैतखाम को गिराया जाना अक्षम्य अपराध है, लेकिन क्या इसके विरोध में उपद्रव और आग लगाने जैसे असंवैधानिक रूख अख्तियार करना अपराध नहीं हैं? पूरा कलेक्ट्रेट फूंक कर जनता की गाढ़ी कमायी का यूँ अपमान करना अपमान नहीं है? बिल्कुल है। और इस लेख के आरम्भ में उद्धृत पंक्तियाँ यदि आपने गौर से पढ़ी हों, तो आपको यह समझने में तनिक भी कठिनाई नहीं होगी कि बाबासाहेब अम्बेडकर स्वयं अपने ऐसे अनुयायियों को कभी क्षमा नहीं करते। प्रत्युत कल की घटना के बाद तो बाबासाहेब अवश्य रो रहे होंगे कि आखिर उनके देशवासियों ने संवैधानिक मर्यादाओं का ऐसा मान रखा है, विशेषकर स्वयं को उनका अनुयायी बतलाने वालों ने।


खैर, मौजूदा घटनाक्रम और उसकी पृष्ठभूमि जो भी हो, पर इसने हमारे समाज में वैमनस्य की बढ़ती विषबेलि से हमें आगाह जरूर किया है। कल्चरल मार्क्सवादियों ने पहचान-सम्बन्धी भ्रम के अपने सिद्ध हथकण्डे का उपयोग कर अलग-अलग महापुरुषों और देवी-देवताओं को आइकॉन बनाकर समाज को अलग-अलग जातीय वर्गों में बाँटने और फिर उनके बीच वर्गसंघर्ष पैदा करने के भयानक षड्यन्त्र रचे हैं। लोगों को स्थापित व्यवस्था, चाहे वह राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक कोई भी व्यवस्था क्यों न हो, इनके विरुद्ध लामबन्द करने की दृष्टि से भडकाया जा रहा है।


मार्क्सवादी समाज विज्ञानियों द्वारा पैदा किए गए द्वन्द्वों की रस्साकशी में हमारे समाज का तानाबाना टूटता नजर आ रहा है। कम्युनिस्ट क्रान्ति की सनक पर सवार अर्बन माओवादियों के दुष्चक्र में हम तेजी से घिरते जा रहे हैं। परिवार के भीतर हो या समाज में या फिर जीवन के और किसी क्षेत्र में, सभी जगह इन द्वन्द्वों की घुसपैठ तेजी से बढ़ी है। राजनीतिक स्वार्थसिद्धि ने भी इसे अवलम्बन ही प्रदान किया है।


और सच मानिए कि बलौदाबाजार की यह घटना तो केवल इनके शुरुआती दुष्परिणाम है। अगर हम सचेत नहीं हुए तो ऐसी घटनाओं को दिन--दिन बढ़ता ही देखेंगे। ऐसे में अब हम सब पर यह बड़ी जिम्मेदारी है कि इन सबसे समाज को बचाने के, समाज में पुनः सौमनस्य का संचार करने के हरसम्भव प्रयास हर-एक स्तर पर आरम्भ करें। शुभस्य शीघ्रम्।