जनजातियों के विरुद्ध ईसाई कन्वर्जन का षड्यंत्र

क्रिसमस (1899) के दिन 7000 जनजाति स्त्री-पुरुषों ने" उलगुलान" (क्रांति) घोषित कर दिया और इस जनजातीय समुदाय ने मुरहू के एंग्लिकन मिशन से लेकर सरवादा के रोमन कैथोलिक मिशन तक को निशाने पर लिया। एक साथ बीस से अधिक चर्चों पर आक्रमण हुए।

The Narrative World    17-Jun-2024   
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ईसाई मिशनरियों और जनजातियों के बीच टकराव की तात्कालिक राजनीति कर वर्तमान में इस या उस राजनीतिक दल या किसी संगठन को दोष देना बहुत आसान है, लेकिन सच तो यह है कि यह टकराव तब से चल रहा है जब ये दल या संगठन अस्तित्व में नहीं थे।


कोल, संथाल, खोंड, मुंडा, कोया, चेंचू, राम्पा, ओरांव आदि विद्रोहों के मूल में एक प्रमुख कारण मिशनरियों द्वारा किया गया धर्म-प्रचार था और इसी कारण यह हुआ कि अधिकतर जनजाति विद्रोहों का नेतृत्व इस समाजों के किन्हीं गुरू या धार्मिक प्रमुख ने किया।


ओरॉव सन्त जात्रा भगत, तूरिया भगत, ताना भगत, कालीचरण ब्रह्मा, तांतिया मामा, बिरसा मुंडा आदि आदि बहुत से नाम इस श्रृंखला में आते हैं। छोटा नागपुर और संथाल परगना में ब्रिटिश, जर्मन, लूथरन और पूर्वी भारत में आस्ट्रियन मिशन चलते थे।


तब जात्रा भगत "धर्मेश" के दर्शन होने की बात करते थे और उन्हें "भक्ति" से पाने की बात करते थे। उन ओरांवों पर वैष्णवों और कबीर- पंथियों के प्रभाव की बात इतिहासकार स्वीकारते हैं।


उनके भी काफी पहले बिरसा मुंडा ने खुंती, तमार, सरवदा और बेंडगांव क्षेत्रों में वनवासी विद्रोह का नेतृत्व किया था। उन्होंने देखा कि कैसे मिशनरी जनजाति लोगों की आस्थाओं और धर्म से खेल करते हैं। उन्होंने एक विरासत आंदोलन चलाया जिसे बीरसेत कहा जाता था।


चर्च उस समय न केवल तेजी से धर्मान्तरण कर रहा था बल्कि उसने कर-संग्रह भी शुरू कर दिया था। तब बिरसा स्वयं धर्मोपदेशक हो गये और चर्च के चमत्कारों के समकक्ष स्वयं भी चमत्कार करके दिखाने लगे।


धरती आबा का नाम सब जगह गूंज गया था। अंग्रेजों ने बिरसा को गिरफ्तार किया और उन्हें दो साल जेल भी हुई। ईसाई मिशनरी उनके और उनके अनुयायियों के पीछे पड़े रहे और उन्हें भूमिगत होकर गुप्त सभाएं करनी पड़ी।


क्रिसमस (1899) के दिन 7000 जनजाति स्त्री-पुरुषों ने' उलगुलान' (क्रांति) घोषित कर दिया और इस जनजातीय समुदाय ने मुरहू के एंग्लिकन मिशन से लेकर सरवादा के रोमन कैथोलिक मिशन तक को निशाने पर लिया। एक साथ बीस से अधिक चर्चों पर आक्रमण हुए।


आजद वायर' अपनी शक्ति इस बात को खर्च करने में लगाता है कि बिरसा जनजातियों की एक विशिष्ट अस्मिता की स्थापना करना चाहते थे, न कि हिन्दुत्व की रक्षा। वहीं आज यह देखकर भी आश्चर्य होता है कि जनजाति समूह के कुछ लोगों द्वारा मिशनरियों के प्रतिरोध को हिन्दुत्व के द्वारा प्रेरित और नियोजित बताने में भी उतनी ही शक्ति खर्च की जाती है।


बिरसा भगवद्गीता से क्यों चीजें उद्धृत करते थे, वे रामायण तथा महाभारत के दृष्टान्त क्यों दिया करते थे?


“आज बिरसा के शत्रु जॉन बैप्टिस्ट हाफमैन नामक जर्मन प्रीस्ट, जो बिरसा के ही तीर से मारा गया, की मूर्ति झारखंड के खूँटी जिले के रोमन कैथलिक चर्च में लगाना बताता है कि कैसे उस मिशनरी आंदोलन की, जो जनजातियों के प्रतिकूल था, की निरन्तरता बनाये रखने की कोशिश की जा रही है और उसी समय बंदगांव के मुंशी आनन्द पांडे के बारे में चर्चा नहीं होती जिसने बिरसा को आध्यात्मिक रूप से जागृत किया।”


बोडो जंजाइयों के धर्मगुरु कालीचरण ब्रह्मा का ब्रह्म धर्म भी धर्मान्तरण की मिशनरी गतिविधियों को लक्ष्य करता था। उन्हें 'गुरुदेव' कहना, आदि ब्रह्म, परम ब्रह्म की अवधारणाएँ, उनकी "आहुति " आदि अन्य कर्मकांड भारत के पारंपरिक विश्वासों के प्रतिकूल नहीं थे, पर उन मिशनरियों से उनकी जबर्दस्त टकराहट हुई जो 1836 में दो अमेरिकी बाप्टिस्ट मिशनरियों की अगुआई में सादिया में मिशन स्थापित होने के बाद से ही धर्मान्तरण में लगे हुए थे।


आज जैसे कनाडा सहित विश्व के कई एबॉरिजिनल क्षेत्रों में मिशन द्वारा निर्मित झूठी चेतना (फाल्स कांशसनेस) की बात की जाती है, उसी झूठी चेतना का अहसास भारत के जनजातियों को शुरू से ही था।


1899 के मुंडा विद्रोह की याद करते ही हमें यह भी याद करना चाहिए कि उसी वर्ष चीन में बाक्सर विद्रोह हुआ जिसमे मिशनरियों का इतना बड़ा संहार किया गया था कि इतिहास लेखक नेट ब्रांट ने उसे "ईसाई धर्म में अंतरण के इतिहास की सबसे बड़ी त्रासदी (the greatest single tragedy in the history of Christian evangelicalism) कहा था।


कुंओमितांग में KMT के पोस्टरों की भाषा भी याद की जानी चाहिए: "जीसस क्राइस्ट मर चुका, क्यों नहीं किसी ज़िन्दा चीज की पूजा करें, जैसे राष्ट्रवाद." (Jesus Christ is dead, why not worship something such as Nationalism)


जापान में सत्रहवीं सदी के मध्य सभी क्रिस्चियन मिशनरियों को देश से बाहर भगाना, सभी धर्मान्तरितों को मृत्युदंड की घटनाएँ स्थानीय प्रतिक्रिया ही थीं।


मेडागास्कर की स्थानीय जातियों की रानी रानावलोना ने 19वीं सदी में ईसाइयत पर प्रतिबंध लगाने और मिशनरियों को द्वीप से निकालने की याद संदर्भ में की जा सकती है।


जिस तरह से आज बस्तर के जनजातियों को संस्कृतिहीन धर्महीन बताने की कोशिशें होती है, वैसे ही कभी देसी अमेरिकनों को ईसाई मिशनरियों ने धर्म व संस्कृति के बिना बताया था, और जिस तरह से आज "आत्माओं की फसल काटने" (हार्वेस्टिंग आफ सोल्स) की बात होती है, वैसे ही अमेरिका के प्रारंभिक औपनिवेशन के दौरान स्पेनी और फ्रांसीसी मिशनरीगण "आत्माओं को बचाने" (सेविंग ऑफ सोल्स) की बात किया करते थे।


1537 में जब पोप पॉल तृतीय ने यह कहा कि इंडियन्स (अमेरिकी) जानवर नहीं हैं कि उन्हें मारा जाए या बंदी बनाया जाए बल्कि आदमी हैं, जिनके पास वह आत्मा है जिनका मोक्ष हो सकता है, तो यह कहना ही बड़ी प्रगतिशील बात मानी गई थी। तब भी देशज अमेरिकी इंडियन्स को 'हीथन' कहा गया था जैसे पैगनों को कहा गया था।


आज उन जनजाति विद्रोहों को स्थानीय ज़मींदारों के विरूद्ध विद्रोह बताकर पढ़ाया जाना वामपंथियों का मुख्य शग़ल है। उन्होंने मोपला हत्याकांड को भी ऐसे ही पढ़ाया है। वामपंथ मिशनरी और मज़हबी कट्टरता को ढँकने की शैली है। ये उन कट्टरताओं का Euphemism हैं।


लेख

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मनोज श्रीवास्तव

सेवानिवृत भारतीय प्रशासनिक सेवा अधिकारी
पूर्व अतिरिक्त मुख्य सचिव, मप्र सरकार