जुलाई 2009 : मदनवाड़ा माओवादी हमला, जिसमें 29 पुलिस जवान हुए थे बलिदान

जुलाई माह की 12 तारीख, छत्तीसगढ़ के मदनवाड़ा क्षेत्र के लिए एक ऐसी तारीख है जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता। वर्ष 2009 में 12 जुलाई को सुबह-सुबह मीडिया में एक ब्रेकिंग न्यूज़ चली, जिसमें कहा गया कि जिले के कोरकोट्टी गांव के समीप ही माओवादियों ने दो पुलिसकर्मियों की हत्या कर दी है।

The Narrative World    18-Jun-2024   
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छत्तीसगढ़ में एक क्षेत्र है
, मदनवाड़ा। यह वर्तमान में मोहला-मानपुर-अम्बागढ़ चौकी जिले में आता है। यह जिला माओवाद प्रभावित क्षेत्र में शामिल है। कुछ वर्षों पहले यह मदनवाड़ा क्षेत्र माओवाद प्रभावित राजनांदगाँव जिले में आता था।


उसी दौरान माओवादियों ने यहाँ एक ऐसा आतंकी हमला किया था, जिससे पूरे भारत के पुलिस महकमे में हलचल मच गई थी। वह हमला इतना भयानक था कि अभी भी उसे देश में हुए सबसे बड़े माओवादी आतंकी हमलों में गिना जाता है।


इस आतंकी हमले में शीर्ष पुलिस अधिकारी की लापरवाही, कम्युनिकेशन में अस्पष्टता एवं दूरदर्शिता ना होने के कारण छत्तीसगढ़ पुलिस के 29 जवान बलिदान हो गए थे। बलिदान होने वाले पुलिसकर्मियों में भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी एवं तत्कालीन जिला पुलिस अधीक्षक विनोद कुमार चौबे भी शामिल थे।


इस घटना को माओवादियों ने पंद्रह वर्ष पूर्व अंजाम दिया था। लेकिन जब माओवादियों ने इस घटना को अंजाम दिया तब किसी भी 'मानवाधिकार कार्यकर्ता' ने बलिदान जवानों के मानव अधिकारों एवं जीवन मूल्यों की बात नहीं की।


जुलाई माह की 12 तारीख, छत्तीसगढ़ के मदनवाड़ा क्षेत्र के लिए एक ऐसी तारीख है जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता। वर्ष 2009 में 12 जुलाई को सुबह-सुबह मीडिया में एक ब्रेकिंग न्यूज़ चली, जिसमें कहा गया कि जिले के कोरकोट्टी गांव के समीप ही माओवादियों ने दो पुलिसकर्मियों की हत्या कर दी है।


इस खबर के सामने आने के बाद तमाम पत्रकार इसकी पुष्टि करने के लिए पुलिस से संपर्क करने में जुट गए, हालांकि तब तक पुलिस के पास भी स्पष्ट खबर नहीं थी। इस बीच यह जानकारी आई कि जिला पुलिस अधीक्षक विनोद कुमार चौबे दो पुलिसकर्मियों की मौत की खबर मिलते ही मौके के लिए रवाना हो गए।


एक एसपी स्तर के अधिकारी का यूं माओवाद प्रभावित क्षेत्र में जाना उस वक्त में सभी के लिए अचंभित करने वाला था। इन सब के बाद जो खबर आई उसने सभी के होश उड़ा दिए।


दरअसल जिला पुलिस अधीक्षक अपनी जिस टीम को लेकर मदनवाड़ा गए थे, उस टीम को 350 से अधिक माओवादियों के समूह ने घेर लिया था और इस इतने बड़े घात के बाद उनका बच कर वापस आना असंभव था। अंततः हुआ भी यही, शाम को जिला मुख्यालय में पुलिस अधीक्षक समेत 29 जवानों के शवों को लाया गया, जिसके बाद रायपुर से लेकर दिल्ली तक हड़कंप मच गया।


एक तरफ जहां पुलिस विभाग निराश और आक्रोशित था, वहीं दूसरी ओर मुख्यमंत्री रमन सिंह के द्वारा दिल्ली में केंद्र सरकार को पूरी जानकारी दी जा रही थी। माओवादियों के द्वारा किए गए किसी भी आतंकी हमले के इतिहास में यह पहला मौका था जब पुलिस अधीक्षक (एसपी) स्तर के किसी पुलिस अधिकारी की मौत माओवादी हमले में हुई थी।


इस घटना का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि छत्तीसगढ़ में कभी दोबारा किसी एसपी स्तर के अधिकारी की माओवादी हमले में मौत नहीं हुई है।


माओवादियों ने सिर्फ इस आतंकी हमले को ही अंजाम नहीं दिया था, बल्कि इस हमले के बाद कुछ ऐसी गतिविधियां की थी, जो छत्तीसगढ़ पुलिस का मजाक उड़ाने के किए पर्याप्त थी। कम्युनिस्ट आतंकियों ने पुलिसकर्मियों की हत्या करने बाद जश्न मनाया था और इसका वीडियो भी बनाया था।


माओवादियों ने जवानों के सभी हथियार, बुलेटप्रूफ जैकेट एवं अन्य सामान लूट लिए थे। इसके बाद जिस तरह सेना या पुलिस अपराधियों/आतंकियों से बरामद हथियारों का वीडियो बनाती है, ठीक उसी अंदाज में माओवादियों ने वीडियो बनाया था। माओवादी आतंकियों ने पुलिस एवं सरकार के विरुद्ध जमकर नारेबाजी की थी।


खून से लथपथ पुलिसकर्मियों के शव को देखने के बाद पूरा छत्तीसगढ़ गमगीन था। आम जनता यह जानना चाहती थी कि आखिर इन कम्युनिस्ट आतंकियों से बदला कब लिया जाएगा। लेकिन तत्कालीन केंद्र सरकार की कमजोर इच्छाशक्ति एवं कम्युनिस्ट प्रभाव के चलते ऐसा नहीं हो पाया।


लेकिन छत्तीसगढ़ में गठित न्यायिक जांच में इस घटना को लेकर कई खुलासे सामने आए। जांच की रिपोर्ट में इस पूरी घटना के लिए तत्कालीन दुर्ग रेंज के आईजी (पुलिस महानिरीक्षक) मुकेश गुप्ता की लापरवाही एवं अदूरदर्शिता को जिम्मेदार ठहराया गया।


रिपोर्ट के अनुसार मदनवाड़ा में सुरक्षाबलों के शिविर को स्थापित करने का आदेश मुकेश गुप्ता ने दिया था, लेकिन इसे ऐसे समय में स्थापित किया गया जो सुरक्षाबलों के लिए प्रतिकूल था। बारिश के मौसम के दौरान 26 जून, 2009 को इस कैम्प को स्थापित किया गया था, हालांकि स्थानीय परिस्थितियों को देखते हुए तत्कालीन एसपी ने इसका विरोध भी किया था।


न्यायिक जांच में घटना का विवरण बताते हुए कहा गया है कि 12 जुलाई, 2009 को सुबह तकरीबन 6 बजे पुलिस जवान शौच के लिए निकले, तब माओवादियों ने उनपर हमला कर 2 जवानों की हत्या कर दी।


इस घटना के बाद आईजी मुकेश गुप्ता के दबाव के कारण एसपी विनोद चौबे घटनास्थल के लिए निकले, लेकिन वहां पहले से ही घात लगाए माओवादियों ने उन्हें चारों ओर से घेर लिया।


रिपोर्ट में यह जानकारी भी आई कि सीआरपीएफ, एसटीएफ एवं जिला बल लगभग आसपास ही मौजूद थे, लेकिन तत्कालीन आईजी ने अपनी बुद्धिमत्ता का परिचय नहीं दिया और अतिरिक्त बल का इंतजाम नहीं किया।


रिपोर्ट में यह जानकारी भी निकलकर आई कि एसपी विनोद चौबे ने पुलिस बल को मोटरसाइकिल से ना भेजने की बात कही थी, लेकिन एक बाद एक 12-12 की टुकड़ी में जवान क्षेत्र में मोटरसाइकिल से पहुँचे और माओवादियों ने उन्हें अपना निशाना बना दिया।


यह एक ऐसी घटना थी, जिसने पूरे देश को हिलाकर रख दिया था। क्षेत्र में जिला पुलिस अधीक्षक की हत्या के बाद आसपास के क्षेत्रों में भी माओवादियों को लेकर भय बढ़ता गया उर यह पूरा क्षेत्र नक्सलियों का गढ़ बन गया।


लेकिन अच्छी बात यह है कि बीते पंद्रह वर्षों में इस क्षेत्र में माओवादियों के आतंकी चरित्र के चलते एक भी युवा माओवादी संगठन से नहीं जुड़ा। इस क्षेत्र की शिक्षा, स्वास्थ्य एवं बुनियादी सुविधाओं की व्यवस्था अब पहले से काफी बेहतर हो चुकी है, और जिस स्थान में सड़कें नहीं थीं, अब वहां सड़क भी पहुंच चुकी है। इन सब के बीच जुलाई महीने में माओवादियों के द्वारा किया गया यह बड़ा आतंकी हमला इस क्षेत्र के जहन में शामिल हो चुका है, जिसे कभी नहीं निकाला जा सकता।


लेकिन यहाँ बात आती है बलिदान हुए जवानों की। क्या जो जवान इस माओवादी आतंकी हमले में बलिदान हुए उनका परिवार नहीं था? क्या उन जवानों का कोई मानवाधिकार नहीं था? कम्युनिस्ट लॉबी माओवादियों/नक्सलियों को तो क्रांतिकारी कहकर उन्हें एक "आयडीयलॉजिकल सेफ़गार्ड" दे देती है, लेकिन उन जवानों के परिजनों की आवाज़ का क्या, जिन्होंने इन कम्यूनिस्टों के आतंक में अपने बेटे/पति/पिता या भाई को खोया है?


यह सवाल उन सभी कम्यूनिस्टों एवं तथाकथित लिबरल समूह से पूछा जाना चाहिए, आख़िर क्या कारण है कि माओवादी हिंसा में बलिदान होने वाले जवानों के मानवाधिकार की बातें नहीं की जाती? इस आतंकी हमले को लेकर तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ रमन सिंह ने भी यही कहा था कि "मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को हमले की तस्वीर देखनी चाहिए।"


दरअसल यह वो दौर था जब तमाम अर्बन नक्सली मानवाधिकार कार्यकर्ता का चोला ओढ़कर माओवादियों के विरुद्ध प्रदेश सरकार द्वारा चलाए जा रहे अभियानों को रोक रहे थे, वहीं केंद्र की कांग्रेस सरकार इन्हीं कम्यूनिस्टों के हाथों की कठपुतली बंकर बैठी हुई थी।


वहीं मीडिया ने भी कभी उन बलिदानियों एवं पीड़ितों की आवाज़ नहीं उठाई जो इस कम्युनिस्ट आतंक का शिकार बने। कल्पना कीजिए कि बलिदानियों में वो जवान भी था जिसके माता-पिता किसानी करते थे, ऐसे जवान भी थे जिनके घरों में छोटे-छोटे बच्चे थे, और ऐसे जवान भी थे जिनकी शादी हुए अधिक समय भी नहीं बिता था, ऐसे जवानों को कम्युनिस्ट आतंकियों ने आतंकी हमला कर बलिदान कर दिया था।


यह जानना ज़रूरी है कि माओवादी कैसे अपनी आतंकी वारदातों से लोगों का नरसंहार कर रहे हैं, वहीं जो अर्बन नक्सल समूह या कम्युनिस्ट लॉबी है, वो इनके "आयडीयलॉजिकल शील्ड" प्रदान कर रही है।