जीवन सजीव का हो या फिर निर्जीव का, सभी का एक कालखंड निश्चित है। जो कल था वह आज नहीं है और जो आज नहीं है वह कल रहेगा, जीवन बस इसी अनिश्चितता का द्योतक है।
आधुनिक काल में अनिश्चितता के इसी सिद्धांत को हाइजनबर्ग ने क्वान्टम यान्त्रिकी में प्रयोग किया और कहा कि कण का संवेग और उसकी स्थिरता परिवर्तनशील होती है जिसे मापा नहीं जा सकता।
अनिश्चितता का यह सिद्धांत बस क्वांटम पर ही नहीं बल्कि सूक्ष्म से लेकर विशालकाय तत्वों पर भी तीव्रता के थोड़े से परिवर्तित रूप में लागू होता है। प्राकृतिक प्रक्रियाओं के संदर्भ में यही सिद्धांत भूगोल में 'एकरूपतावाद' के रूप में सामने आया जिसे जेम्स हट्टन ने प्रतिपादित किया।
भारतीय इतिहास के कालखंड में नालंदा भी एक ऐसा ही नाम है जो इसी अनिश्चितता का शिकार हुआ। आर्यावर्त के मुख्य भूमि और जलदुर्ग के समीप स्थित ज्ञान के आदिम विश्वविद्यालय ने मध्यकाल के आक्रांताओं के सम्मुख कुछ ऐसे ही अपने घुटने टेक दिए।
नालंदा का शाब्दिक का अर्थ है 'कमल द्वारा प्रदत्त भूमि'। बौद्ध धर्म के अनेकानेक प्रतीक चिन्हों में एक कमल भी एक महत्वपूर्ण प्रतीक रहा है जो पवित्रता एवं आध्यात्मिक जाग्रति का प्रतिनिधि है।
यह ज्ञान ही है जो हमें आध्यात्मिक जाग्रति की ओर ले जाता है और यह जाग्रति विशुद्ध रूप से बुद्धि की एक अवस्था को दर्शाता है। शायद यही कारण रहा होगा कि नालंदा के उद्भव की पटकथा कमल ने लिखी।
हालांकि नालंदा शब्द की एक अलग परिभाषा भी है 'न अलम् ददाति इति नालंदा' अर्थात् वह जो ज्ञान को बाँटने में किसी भी प्रकार का रूकावट पैदा नहीं करता हो। नालंदा वह भूमि है जहां ज्ञान की धारा अविरल बहती है।
चीनी यात्री जुआन जैंग ने अपने यात्रा वृतांत में लिखा है कि नालंदा महाविहार में प्रवेश से पहले द्वारपाल विद्यार्थियों से दार्शनिक एवं जटिल समस्याओं पर 10 कड़े प्रश्न पूछते थे और इन 10 प्रश्नों में से कम से कम 8 प्रश्नों के उत्तर के बाद ही उस विद्यार्थी को प्रवेश की अनुमति मिलती थी।
आप जरा सोचिए कि जिस विश्वविद्यालय के द्वारपाल, विद्यार्थियों को उनके दर्शन ज्ञान की गूढ़ता पर परख कर उन्हें प्रवेश करने देते थे, भला उस विश्वविद्यालय में शिक्षक एवं शोध का क्या स्तर रहा होगा।
भारत के प्रधानमंत्री ने नव नालंदा महाविहार का उद्घाटन किया। जिस विश्वविद्यालय को ऐबक के सेनापति बख्तियार खिलजी ने 1193 में आग में झोंक दिया, वही विश्वविद्यालय आज अग्नि में तप कर नये स्वरूप में सोना बनकर निकला है।
नव नालंदा वस्तुतः प्राच्यविद्या के पुनर्जन्म का उत्सव है। लगभग 800 वर्ष बाद फिर से आज नव नालंदा महाविहार ने दक्षिणीकरण के शाश्वत प्रतिबिंब के रूप में आकार लिया है।
नालंदा की यह पुनर्स्थापना सांस्कृतिक एकीकरण को धरातल पर लाने का एक अनूठा प्रयास है। यह बिहार की खोयी हुयी अस्मिता एवं मान्यताओं को फिर से नये सिरे से उसी रूप में वापस लाने का एक भगीरथ प्रयास है जहां हम सबकी सहभागिता भी आने वाले समय में बहुत मायने रखेगी।
बहरहाल, यह एक स्वागत योग्य कदम है किंतु साथ ही साथ हमें यह भी ध्यान रखना है कि हमारे बाकि बचे हुए विश्वविद्यालयों में शोध एवं अध्ययन का स्तर गौण ना हो जाए।
लेख
उद्भव सिंह शांडिल्य
छात्र , लेखक