भारतीय लोकसभा चुनाव में 'डीप स्टेट' का षड्यंत्र

एक तरह चीनी कम्युनिस्ट सरकार और दूसरी ओर पश्चिम का डीप स्टेट, दोनों ने भारत का उभार अपने लिए एक खतरे के रूप में देखा, और उन्हें लगा कि यदि भारत की शक्ति बढ़ती है तथा भारत दुनिया की जीडीपी में अग्रणी भूमिका निभाने वाला राष्ट्र बनता है, तो यह उनके लिए एक बड़ी चुनौती हो सकता है।

The Narrative World    22-Jun-2024   
Total Views |

Representative Image
बीते 15 जून को गलवान घाटी में भारत और चीन के सेनाओं के बीच हुई हिंसक झड़प, या हम कहें कि चीनी विश्वासघात को चार वर्ष बीत चुके हैं। यह तारीख इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाती है, क्योंकि इस दिन न केवल चीन की कम्युनिस्ट सी अर्थात पीपुल्स लिबरेशन आर्मी को अपमानित होना पड़ा था और उसके 40 से अधिक सैनिक मारे गए थे, बल्कि इस गलवान घाटी में हुए हिंसक झड़प के बाद भारत में कई निष्क्रिय सीमावर्ती बुनियादी ढांचे से जुड़ी परियोजनाओं को भी गति मिली, जिसके बाद चीन तिलमिला उठा था।


वहीं दूसरी ओर वेस्ट अर्थात पश्चिम का डीप स्टेट (Deep State) इसलिए बौखलाहट में था क्योंकि भारत के पश्चिम के कुछ महत्वपूर्ण शक्तियों एवं मध्य-पूर्व और दक्षिण-पूर्वी एशिया के देशों के साथ संबंध बेहतर और मजबूत हो रहे थे।


एक तरह चीनी कम्युनिस्ट सरकार और दूसरी ओर पश्चिम का डीप स्टेट, दोनों ने भारत का उभार अपने लिए एक खतरे के रूप में देखा, और उन्हें लगा कि यदि भारत की शक्ति बढ़ती है तथा भारत दुनिया की जीडीपी में अग्रणी भूमिका निभाने वाला राष्ट्र बनता है, तो यह उनके लिए एक बड़ी चुनौती हो सकता है।


इस बढ़ते, उभरते और शक्तिशाली बनते भारत को रोकने के लिए इन भारत विरोधी शक्तियों के पास एकमात्र उपाय था, भारतीय आम चुनाव में बाधा डालना और उसे प्रभावित करना।


इस पूरे षड्यंत्र की कहानी शुरू होती एक दशक पहले से। दरअसल 2014 में हुए लोकसभा चुनाव के बाद वर्ष 2015 में कांग्रेस के तत्कालीन राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राहुल गांधी विदेश यात्रा पर निकल गए। राहुल गांधी की इस विदेश यात्रा को जहाँ एक ओर भाजपा समर्थकों एवं नेताओं ने हँसी-मजाक में उड़ाया, वहीं राहुल गांधी की इन विदेश यात्राओं में कुछ गहरे राज छिपे हुए थे।


राहुल गांधी की 60 दिनों की इस विदेश यात्रा का एक बड़ा समय चीनी-मित्रता वाले दो राष्ट्रों में बिता, जिनमें से कंबोडिया में 11 दिन और म्यांमार में 21 दिनों तक राहुल गांधी रहे।


दरअसल म्यांमार पूरी तरह से चीनी प्रभाव में है, वहीं कंबोडिया एक ऐसा देश है, जहां से अमेरिका की सेना को पूरी तरह बाहर निकाल दिया गया है, जिसके बाद से ही यहां चीनी प्रभाव कायम है।


राहुल गांधी को उस दौरान एसपीजी सुरक्षा दी गई थी, बावजूद उनकी सुरक्षा को केवल बैंकॉक तक जाने दिया गया, उसके बाद राहुल गांधी निजी सुरक्षा में आगे गए। वहीं म्यांमार और कंबोडिया में गांधी ने किससे मुलाकात की, इसकी भी कोई जानकारी किसी के सामने नहीं आई। इस यात्रा को पूरी तरह से गोपनीय रखा गया था।


वर्ष 2015 के ही जून माह में गांधी ने यूनाइटेड किंगडम और सितंबर माह में अमेरिका का दौरा किया। फिर जून 2016 में उन्होंने तुर्की और सितंबर 2016 में फिर यूके का दौरा किया। मार्च 2017 में इटली और जुलाई 2017 में एक बार पुनः यूके के दौरे में राहुल गांधी रवाना हुए। कुल मिलाकर वर्ष 2015 से 2019 के बीच राहुल गांधी ने 257 विदेश यात्राएं की।


“इसी दौरान सोनिया गांधी ने भी अज्ञात स्थानों पर 27 विदेश यात्राएं की। राहुल गांधी एवं सोनिया गांधी की विदेश यात्राओं से पहले ऐसी रणनीति बनती थी कि, प्रस्थान से केवल 5-6 घंटे पहले ही एसपीजी को जानकारी दी जाती थी, जिसके चलते उनके लिए भी सुरक्षा प्रदान करना असंभव हो जाता था। हालांकि इन सब के बीच भारतीय सुरक्षा एजेंसियां तब सतर्क हुईं जब राहुल गांधी ने जुलाई 2017 में चीनी दूत लुओ झाओहुई से मुलाकात की। इसके बाद राहुल गांधी की विदेश यात्राओं पर मीम बनाने वाली एवं मजाक उड़ाने वाली भाजपा ने भी गंभीरता से प्रश्न उठाए।”

 


गौरतलब है कि यह बैठक ऐसे समय में हुई थी जब भारत और चीन के बीच डोकलाम को लेकर सीमा विवाद चल रहा था, जिसमें भूटान भी शामिल था। इसके ठीक बाद राहुल गांधी ने भूटान के दूत से मुलाकात की। इस बात की जानकारी किसी को नहीं मिली कि आखिर राहुल गांधी ने चीनी और भूटानी दूत से किस विषय में बात की।


अब आते हैं 2024 लोकसभा चुनाव से एक वर्ष पहले की टाइमलाइन पर। मार्च 2023 में राहुल गांधी ने एक बार फिर यूके का दौरा किया और वहीं से भाजपा पर तीखा हमला करना शुरू किया। गांधी ने इस दौरान अमेरिका और यूके से आग्रह किया कि वो भारत में हस्तक्षेप कर यहां लोकतंत्र की बहाली करें।


राहुल गांधी ने अपने यूके दौरे में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में विद्यार्थियों से बात की और हॉउस ऑफ कॉमन्स के ग्रैंड कमेटी रूम में बैठक कर भारत की ही आलोचना की। विदेशी जमीन पर भारत को जानबूझकर खराब बताने की इस हरकत के बाद भारत में सत्तारूढ़ भाजपा के नेताओं राहुल गांधी की जमकर आलोचना की, जिससे कांग्रेस के नेता भी बैकफुट पर आ गए थे।


मई 2023 में राहुल गांधी ने अमेरिका का दौरा किया, वहीं सितंबर 2023 में उन्होंने यूरोपियन यूनियन के ब्रसेल्स स्थित मुख्यालय गए, जिसके बाद फ्रांस और नॉर्वे का भी दौरा किया। अक्टूबर 2023 में भी उन्होंने उज़्बेकिस्तान का दौरा किया।


यहां तक कि लोकसभा चुनाव से कुछ महीने पहले दिसंबर 2023 में राहुल गांधी ब्रुनेई, इंडोनेशिया, सिंगापुर, मलेशिया और वियतनाम जाने की योजना बना रहे थे, जो अंतिम समय में रद्द हो गई। लेकिन इन सब के बीच जो प्रश्न उठता है, वो यही है कि आखिर इसकी क्या जल्दी थी ?


नैरेटिव तैयार करना


राहुल गांधी के जिन विदेशी दौरों की हमने चर्चा की, उनमें से सभी सार्वजनिक सभाएं नहीं थीं, बल्कि इनमें अधिकांश ऐसी बैठकें थीं जो बंद कमरे में हुई थी। और यह मात्र संयोग नहीं हो सकता कि राहुल गांधी की हर यात्रा के बाद दुनिया भर की मीडिया में भारत विरोधी लेखों की बाढ़ आ गई, उनमें भी विषेश तौर पर पश्चिमी मीडिया में।


उन लेखों के कुछ उदाहरण -

“Will the outcome of India’s election increase intolerance” – Deutsche Welle


“Modification of India is almost complete” – TIME Magazine


“India’s election: fixing a win by outlawing dissent damages democracy” – UK Guardian


“Is India’s BJP the world’s most ruthlessly efficient political party?” – Financial Times


“Narendra Modi Is Preparing New Attacks on Democratic Rights” – Jacobin Magazine


“With democracy under threat in Narendra Modi’s India, how free and fair will this year’s election be?” – The Conversation, Australian Research Council


“Progressive South Is Rejecting Modi” – Bloomberg


“Billionaire Raj Is Pushing India Toward Autocracy” – Bloomberg


“India’s Voting Machines Are Raising Too Many Questions” – Bloomberg


“Modi’s Sledgehammer Politics Are Battering Indian Democracy” – Bloomberg


“The ‘mother of democracy’ is not in good shape” – Financial Times


“Modi’s Temple of Lies” – New York Times



दिलचस्प बात यह है कि राहुल गांधी ने जब मार्च 2023 में यूके का दौरा किया तब यूके की पब्लिक बब्रॉडकॉस्टिंग न्यूज़ एजेंसी 'बीबीसी' ने एक डॉक्यूमेंट्री रिलीज़ किया, जिसमें यह बताया गया कि भारत में मुस्लिमों का नरसंहार हो रहा है।

Representative Image


इस डॉक्यूमेंट्री में 21 वर्ष पूर्व हुए गुजरात दंगों का जिक्र था, जिसका वर्तमान समय से कोई लेना-देना नहीं था। इसी दौरान भाजपा सरकार 'भारत-विरोधी' एजेंडे को रोकने में नाकाम रही, वहीं बीबीसी के कार्यालयों में केंद्रीय एजेंसियों द्वारा मारे गए छापों ने इन पूरे मुद्दें को और तुल दे दिया।


दरअसल विदेशी मीडिया भारत की उन सभी 'फॉल्ट लाइन्स' को समझता है, यही कारण है कि सभी विदेशी मीडिया भारत में साम्प्रदायिक दंगों एवं समाज में विभाजन के नाम पर भारतीय समाज को बांटने का काम करते हैं। ब्रिटिश ईसाइयों द्वारा भी इस 'फॉल्ट लाइन' का इस्तेमाल किया गया, जिसके चलते देश के कई स्थानों में भीषण दंगे हुए।


मुम्बई से लेकर बंगाल और पेशावर से लेकर कानपुर, वहीं मालाबार से लेकर मुल्तान-लाहौर और गुजरात से लेकर वाराणसी तक ऐसे दंगों का इतिहास रहा है।


इन दंगों में सबसे भयावह 1920-21 का मालाबार दंगा था, जिसमें हिंदुओं का जबरन धर्मान्तरण एवं नरसंहार हुआ। इस नरसंहार में दस हजार लोग मारे गए थे, वहीं एक लाख से अधिक विस्थापित हुए और सैकड़ों महिलाओं के साथ इस्लामिक जिहादियों ने दुष्कर्म किया था।


इन दंगों से जहां भारत में मुख्य रूप से स्थापित हिंदुओं और मुस्लिमों के बीच तनाव बढ़ रहा था, वहीं ब्रिटिश ईसाई सत्ता इसका लाभ ले रही थी।


इसके बाद भारत को स्वतंत्रता मिली, लेकिन कांग्रेस की सरकारों में दस से अधिक बड़े साम्प्रदायिक दंगे हुए। अहमदाबाद 1969 (512 मौतें), जलगांव 1970 (100 मौतें), मुरादाबाद 1980 (1500 मौतें), भिवंडी 1984 (146 मौतें), दिल्ली 1984 (2733 मौतें), अहमदाबाद 1985 (300 मौतें), भागलपुर 1989 (1161 मौतें), दिल्ली 1990 (100 मौतें), हैदराबाद 1990 (365 मौतें), सूरत 1992 (152 मौतें), और मुंबई 1993 (872 मौतें)।


वहीं यदि हम पिछले एक दशक की बात करें तो केवल पूर्वोत्तर दिल्ली में हुआ हिन्दू-विरोधी दंगा ही दिखाई देता है, वो तब जब अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रम्प की भारत यात्रा चल रही थी। इस्लामिक जिहादियों द्वारा किए गए इस हिन्दू-विरोधी दंगों में 54 लोग मारे गए थे।


किन समूहों ने इन दंगों को अंजाम दिया था, यह धीरे-धीरे सबके सामने आ रहा था, बावजूद इसके विदेशी मीडिया ने इस विषय पर ऐसा नैरेटिव बनाने का प्रयास किया कि भारत की 'फासीवादी' सरकार में मानवता अब खतरे में है।


सीएए में मुस्लिमों को भी शामिल करने के नाम पर भारत की आलोचना करने वालों में वो समूह भी शामिल था जिसने कभी भी अरब देशों द्वारा शरणार्थियों को नहीं लिए जाने पर चुप्पी साध ली थी।


यह वही समूह था जिसने पोलैंड, हंगरी और चेक गणराज्य की उस नीति पर भी चुप्पी साधी हुई थी, जब उन्होंने कानून व्यवस्था में खतरे को आधार बनाकर शरणार्थियों को जगह देने से मना कर दिया था। इसी समूह ने चीनी कम्युनिस्ट सरकार द्वारा तिब्बत और शिनजियांग में किए जा रहे नरसंहार पर भी चुप्पी साध ली।


सबसे महत्वपूर्ण इसी समूह ने ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड और कनाडा के मूलनिवासियों के साथ हो रहे अत्याचार भी कभी आवाज़ नहीं उठाई, लेकिन यह समूह भारत की आलोचना करता रहा।


भारत के विरुद्ध बड़ा षड्यंत्र


आने वाले दशकों में भारत, पश्चिमी देशों एवं चीन के बीच आर्थिक समेत तमाम मोर्चों पर बढ़ती हुई प्रतिस्पर्धा देखने को मिलने वाली है। एक तरफ जहां चीन ऐर्क कम्युनिस्ट तानाशाही-अधिनायकवादी राज्य है, जिसने अपने नागरिकों को दुनिया से 'आइसोलेट' कर रखा हुआ है, वहीं दूसरी ओर एक लोकतांत्रिक-गणराज्य एवं खुले समाज वाला भारत है।


यही कारण है कि पश्चिमी षड्यंत्रकारी समूह भारत में अधिक रुचि रखता है, और उसके लिए भारत में अपनी गतिविधियों को अंजाम देना आसान भी होता है।


लेकिन भारत ही क्यों ? 'डेर स्पीगल' जैसी जर्मन पत्रिकाएं भारत को 'ओवर क्राउडेड' अर्थात अत्यधिक भीड़भाड़ वाला और 'अविकसित' बताती हैं। इसका कारण है, अर्थव्यवस्था।


वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के अनुसार भारत 2027-29 के मध्य किसी भी समय विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन सकता है। वहीं ब्लूमबर्ग की एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2028 तक भारत विश्व में जीडीपी योगदानकर्ताओं में सबसे ऊपर पहुंच सकता है। वर्तमान में चीन सबसे ऊपर है, लेकिन भारत 2028 तक उसे पछाड़ सकता है।


वहीं 140 करोड़ से अधिक की जनसंख्या के साथ भारत विश्व में सर्वाधिक आबादी वाला देश है, और पश्चिमी वस्तुओं के लिए एक बड़ा बाजार है। चूंकि विकसित देशों में आबादी की वृद्धि दर लगातार कम हो रही है, ऐसे में भारत कुशल एवं अनुशासित जनशक्ति का विश्व में अग्रणी स्त्रोत होगा।


यही कारण है कि पश्चिमी एजेंडे में फिट बैठने के लिए भारत का ऐसा नेता ज्यादा कारगर होगा जो विनम्र, लचीला और अनुभवहीन हो।


इस पहलू को भारत के दिवंगत राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की बेटी शर्मिष्ठा मुखर्जी ने अपनी पुस्तक 'प्रणब, माई फादर' में बहुत अच्छे से समझाया है। पुस्तक में उन्होंने लिखा है कि उनके पिता, अर्थात प्रणब मुखर्जी राहुल गांधी से निराश थे। उन्होंने पाया कि राहुल प्रधानमंत्री कार्यालय चलाने में असमर्थ हैं। वो चाहते थे कि राहुल कैबिनेट में शामिल हों, और शासन का अनुभव प्राप्त करे, लेकिन उनकी सलाह को नजरअंदाज कर दिया गया।


यह एक बड़ा कारण है कि राहुल गांधी या उनके जैसी क्षमताओं वाला कोई व्यक्ति पश्चिमी एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए सबसे उपयुक्त हो जाता है। इसीलिए विदेशी सरकारें और संगठन दुनिया के समक्ष भारत की विकृत छवि पेश करने और भारत के भीतर दुष्प्रचार की बाढ़ लाने के लिए मैदान में कूद पड़ते हैं।


हाल ही में यूरोप स्थित डिसइन्फो लैब ने भारतीय आम चुनाव 2024 में विदेशी प्रभावों को लेकर 85 पृष्ठों का एक विश्लेषण प्रकाशित किया है, जिसमें विस्तार से विदेशी शक्तियों के षड्यंत्रों का उल्लेख है।

Representative Image


'द इनविजिबल हैंड' के नाम से प्रकाशित इस रिपोर्ट में अमेरिका स्थित हेनरी लूस फाउंडेशन (HLF), जॉर्ज सोरोस के ओपन सोसायटी फाउंडेशन (OSF) और फ्रांसीसी इंडोलॉजिस्ट एवं राजनीतिक वैज्ञानिक क्रिस्टोफ जैफरलॉट का प्रमुख रूप से उल्लेख है। इस रिपोर्ट के अनुसार 44 दिनों तक चले आम चुनाव से पूर्व 6 माह तक भारत में दुष्प्रचार अपने चरम पर था।


राहुल गांधी ने जिस 'जाति जनगणना' का शोर मचाया था, वह दरअसल क्रिस्टोफ जैफरलॉट के दिमाग की ही उपज थी। इसके बाद इन जाति जनगणना को कांग्रेस के घोषणापत्र में भी शामिल किया गया था।

Representative Image


क्रिस्टोफ जैफरलॉट की दूसरी रणनीति 'हिन्दू बहुसंख्यकवाद के समय मुसलमान' की थी, जिसमें 'मुस्लिमों को निशाना बनाया जा रहा है', जैसे नैरेटिव गढ़े गए। क्रिस्टोफ जैफरलॉट को HLF द्वारा वित्तपोषित किया जा रहा था।


इन चुनावों के दौरान HLF ने भारत को बदनाम करने के लिए कई भारत-विरोधी एजेंडे को भी वित्त पोषित किया। कई भारत विरोधी लेखकों में कैलिफोर्निया स्थित कार्यकर्ता अंगना पी चटर्जी और ऑड्रे ट्रश्के जैसे लोग भी शामिल थे, जो समय समय पर अपनी भारत विरोधी मानसिकता को उजागर कर चुके हैं।


युद्ध अभी भी जारी है


2024 के आम चुनावों में भाजपा के खराब प्रादर्शन के बाद चीनी मीडियाकर्मी हु ज़िजिन ने कहा कि 'भारतीय प्रधानमंत्री ने तीसरी बार जीत का दावा किया, लेकिन यह एक हार की तरह लग रहा है। एक बार मोदी कमजोर हो गए, तो वाशिंगटन उनकी लॉन्ग टर्म वैल्यू का आंकलन करेगा। यह चुनाव मोदी के लिए मजबूत से कमजोर होने का एक टर्निंग पॉइंट है।'


सामान्य रूप से यह एक साधारण सा बयान लग सकता है, लेकिन वास्तव में यह बयान 'पार्टी द्वारा पूरा प्रयास करने के बाद' मिले नतीजे के बाद की निराशा और हताशा को प्रदर्शित करता है। आखिरकार मोदी और भारत विरोधी नैरेटिव गढ़ने के लिए अरबों रुपये खर्च किए गए थे, तो यह निराशा और हताशा तो दिखनी ही थी।


लेकिन इन सब के बीच बड़ा प्रश्न यही है कि क्या भारत अगली बार भाग्यशाली होगा ? इंटरनेट, सोशल मीडिया और डीप फेक के युग में आगे बढ़ना भारत के लिए कठिन है। यदि वर्तमान में भारत इन दृश्यमान आन्तरिक एवं अदृश्य बाहरी शक्तियों से स्वयं को सुरक्षित नहीं रखता है, तो उपनिवेशवाद की एक नई परछाई दूर की कौड़ी नहीं है।


The original article was written in English by Commander Sandeep Dhawan on the website insightful.co.in. This article is a Hindi translation of that article with slight changes.