25 जून, 1975 : इंदिरा 'तानाशाह' गांधी ने लगाया था आपातकाल

25-26 जून, 1975 को लगा आपातकाल 21 महीनों तक देश की जनता पर थोपा गया था। 25-26 जून की मध्य रात्रि में तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के हस्ताक्षर करने के साथ ही देश में पहला आपातकाल लागू हुआ था। अगली सुबह समूचे देश ने रेडियो पर इंदिरा गांधी की आवाज में आपातकाल संदेश सुना था।

The Narrative World    25-Jun-2024   
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"भाइयो और बहनो, राष्ट्रपति जी ने आपातकाल की घोषणा की है। इससे आतंकित होने का कोई कारण नहीं है।"


आज से 48 साल पहले रेडियो में इन्ही शब्दों के साथ तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल की घोषणा कर अपना तानाशाही स्वरूप दिखाया था।


25-26 जून, 1975 को लगा आपातकाल 21 महीनों तक देश की जनता पर थोपा गया था। 25-26 जून की मध्य रात्रि में तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के हस्ताक्षर करने के साथ ही देश में पहला आपातकाल लागू हुआ था। अगली सुबह समूचे देश ने रेडियो पर इंदिरा गांधी की आवाज में आपातकाल संदेश सुना था।


देश में इमरजेंसी (आपातकाल) की घोषणा के साथ ही आम जनता के सभी मौलिक अधिकार छीन लिए गए थे। किसी तरह की अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार ही नहीं, लोगों के पास जीवन का अधिकार भी नहीं रह गया था।


आम जनता, मीडिया समूह, रेडियो, और अन्य प्रचार के माध्यमों पर पूरी पाबंदी लगा दी गई थी. आपातकाल की सूचना के बाद से ही देश में ढूंढ-ढूंढ कर विपक्ष के नेताओं की गिरफ्तारियों का दौर शुरू हो गया था।


तत्कालीन समय के बड़े नेता जयप्रकाश नारायण, लालकृष्ण आडवाणी, अटल बिहारी वाजपेयी, जॉर्ज फर्नाडिस को जेल में डाल दिया गया। विपक्षी नेताओं के साथ साथ समाज में प्रभाव रखने वाले कांग्रेस के विपरीत विचारधारा वाले सभी लोगों और आम जनता में बेगुनाहों को भी जेल में भर दिया गया था, जेलों में जगह नहीं बची थी।


करीब 1,40,000 लोगों आपातकाल में बिना किसी सुनवाई के राजनीतिक बंदी बनाया गया। सबकुछ सिर्फ एक परिवार की तानाशाही को बरकरार रखने के लिए।


आपातकाल के बाद प्रशासन और पुलिस के द्वारा भारी उत्पीड़न की घटनाएँ सामने आई थीं। अनेकों घटनाओं को सरकारी नुमाइंदों ने पूरी तरह से दबा दिया। कुछ घटनाएं जो बाहर आई यो भी सभी तरह के प्रचार सेंसरशिप की वजह से लोगों तक नहीं पहुंच पाई।


प्रेस-मीडिया पर भी सेंसरशिप लगा दी गई थी। हर अखबार में सेंसर अधिकारी तैनात किया गया था। हालात यह थे कि कांग्रेस समर्थित उस अधिकारी के अनुमति के बाद ही कोई समाचार छप सकता था। सरकार विरोधी समाचार छापने पर बिना किसी सुनवाई के गिरफ्तारी हो रही थी।


लोकतांत्रिक भारत में इंदिरा गांधी को तानाशाह बनने की इच्छा कैसे हुई ?


1966 में प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री की ताशकंद में रहस्यमयी मौत के बाद देश को अगले प्रधानमंत्री के रूप में पंडित नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी को लाया गया।


तत्कालीन कांग्रेस नेता के, कामराज ने इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए चक्रव्यूह रचा। लेकिन सबसे बड़ा खेल इंदिरा गांधी ने पहले ही खेल लिया था।


कामराज और अन्य वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं ने इंदिरा गांधी को एक कठपुतली प्रधानमंत्री बनाने के उद्देश्य से यह किया था लेकिन प्रधानमंत्री बनते ही इंदिरा ने कांग्रेस के इन नेताओं की बातों को अनदेखा करना शुरू कर दिया था। पार्टी के अंदरुनी मामलों के साथ साथ सरकार के रवैये की वजह से सत्ता और न्यायपालिका के मध्य टकराव भी शुरू हो गया।


1975 में इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल के लिए 27 फरवरी 1967 को आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।


सुप्रीम के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश सुब्बाराव के अध्यक्षता में बनी खंडपीठ ने 7-6 के बहुमत से एक फैसला सुनाया था। फैसले में बेंच ने कहा गया था कि 'संसद में दो तिहाई बहुमत से संविधान संशोधन कर किसी के मूलभूत अधिकारों के प्रावधान को ना खत्म किया जा सकता है और ना ही इसे सीमित किया जा सकता है।"


आपातकाल के तात्कालिक कारण


1971 आते तक इंदिरा गांधी एक शक्तिशाली नेता बन चुकी थी। इंदिरा गांधी के राजनीतिक कद के सामने कोई भी नेता छोटा ही दिखाई पड़ता था। यह बात इंदिरा गांधी बहुत अच्छे से जानती भी थी और समझती भी थी।


1971 में आम चुनाव हुए। इंदिरा गांधी ने कांग्रेस को अभूतपूर्व सफलता दिलाई। इंदिरा गांधी का रायबरेली सीट से खुद की जीत का मार्जिन भी काफी बड़ा था। लेकिन इंदिरा के चुनावी प्रतिद्वंद्वी और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार राजनारायण ने चुनाव में धांधली करने का आरोप लगाया। आरोप सिर्फ जुबानी नहीं था बल्कि राजनारायण इसके लिए कोर्ट तक चले गए। राजनारायण ने अपने आरोप आरोप पत्र में लिखा कि "इंदिरा गांधी ने गलत तरीकों का इस्तेमाल कर चुनाव जीता है। इंदिरा गांधी ने चुनाव जीतने के लिए सरकारी संसाधनों का बेजा इस्तेमाल किया है।"


इस आरोप पर जब सुनवाई शुरू हुई तो पूरा देश इससे जुड़ी खबरों को जानने में उत्सुक था। इलाहाबाद हाइकोर्ट में इस केस की सुनवाई कर रहे जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने इंदिरा गांधी को 18 मार्च 1975 को कोर्ट में पेश होने को कहा था।


सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि यह दुनिया के राजनीतिक इतिहास में यह पहला मौका था जब किसी सिटिंग प्रधानमंत्री को कोर्ट में पेश होना पड़ रहा था।


कांग्रेस ने 20 जून 1975 को एक विशाल रैली का आयोजन किया तथा इस रैली में कांग्रेस नेता देवकांत बरुआ ने कहा वा "इंदिरा तेरी सुबह की जय, तेरी शाम की जय, तेरे काम की जय, तो नाम की जय" और इसी जनसभा में अपने भाषण के दौरान इंदिरा गांधी ने घोषणा की कि वह प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र नहीं देंगी।


वरिष्ठ नेता जयप्रकाश नारायण ने रामलीला मैदान पर विशाल जनसमूह के समक्ष 25 जून 1975 को कहा था कि "सभी विरोधी पक्षों को देश के हित के लिए एकजुट हो जाना चाहिए अन्यथा यहां तानाशाहो स्थापित होगी और जनता दुखी हो जाएगी।"


जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा


इलाहाबाद हाइकोर्ट के चीफ जस्टिस जस्टिस माथुर के द्वारा जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा को प्रभावित करने की कोशिश की भी गई। बावजूद इसके जस्टिस सिन्हा ने अपने फैसले में इंदिरा गांधी को दोषी पाया।


इसके बाद इंदिरा गांधी पर 6 वर्ष तक किसी भी तरह के चुनाव लड़ने पर रोक लगा दिया। इंदिरा गांधी इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुँची। सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले पर आंशिक रोक लगा दिया। जिसके बाद 25 जून को जयप्रकाश नारायण ने बड़े स्तर पर आंदोलन को शुरू किया।


कोर्ट के इस फैसले और इस्तीफे के लिए दबाव बनाने वाले आंदोलन के बाद इंदिरा का अहंकार दुनिया के सामने आया। अपनी हार देखकर इंदिरा गांधी ने अपने पद का दुरुपयोग करते हुए 25-26 जून की आधी रात देश में आपातकाल लगा दिया।


आपातकाल में देश


नई दिल्ली स्थित पंडित दीनदयाल शोध संस्थान में 15-16 मार्च 1975 में संविधान में आपात स्थिति और लोकतंत्र के विषय पर पश्चिचर्चा आयोजित की गई। इस परिचर्चा में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश श्री कोका सुब्बाराव ने आशंका जाहिर की थी कि "कुछ ऐसी स्थिति आ सकती है जब संवैधानिक प्रजातंत्र को नष्ट करने के लिए राष्ट्रपति और मंत्रिमंडल एक हो जाएंगे। कुछ ऐसा ही आपातकाल लगने पर हुआ।


पहली बार ऐसा मौका था जब देश में अनुच्छेद 352 के तहत आपातकाल की घोषणा की गई थी। लोगों को आपातकाल के मतलब भी नहीं पता था। प्रेस से लेकर कोर्ट में ताले लगने शुरू हो गए। पूरे देश में नियंत्रण गांधी-नेहरु परिवार के हाथ में था। कांग्रेस ने आपातकाल की आड़ में वो सभी काम किए जो ना सिर्फ राजनीतिक लिहाज से अशोभनीय थे बल्कि अमानवीय भी थे।


विपक्ष के तमाम नेताओं को जेल भेज दिया गया। जेपी नारायण को भी जेल भेज दिया गया। प्रेस में सरकार या आपातकाल की आलोचना करना अपराध की श्रेणी में आ चुका था।


लोगों की जबरन नसबंदी कराई जाने लगी। बिना आरोप के जेल में भेजा जाने लगा। यही नहीं, कांग्रेस का विरोध करने वाले तमाम संगठनों पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया।


4 जुलाई 1975 को राष्ट्रीय विचार और भारतीयता के लिए काम करने वाले संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया।


देश भर से आरएसएस के 189 प्रचारकों को जेल भेजा गया। संघ के प्रमुख बाला साहब देवरस सहित कई कार्यकर्ताओं को कारावास में डाला गया।


आपातकाल के दौरान मिसा एक्ट के तहत बंदी बनाए गए 30,000 लोगों में से 25,000 आरएसएस से जुड़े हुए थे।


शाह कमीशन रिपोर्ट


आपातकाल के दौरान पूरे देश भर में अमानवीय कृत्य कांग्रेस की सरकार ने इंदिरा गांधी के तानाशाही निदेश में किए। इस सरकार को आपातकाल के बाद हुए चुनाव में जनता ने उखाड़ फेंका।


1977 में आई मोरारजी देसाई की सरकार ने 28 मई 1977 में आपातकाल के दौरान हुए ज्यादतियों को जानने के लिए जस्टिस जे सी शाह की अध्यक्षता में शाह कमीशन गठित किया। शाह आयोग ने अपनी रिपोर्ट को तीन हिस्से में सौंपा। इस रिपोर्ट में छह अध्याय और 530 पेज शामिल थे।


सभी पहलुओं की जांच करने के बाद शाह आयोग ने अपनी रिपोर्ट में स्पष्ट किया था कि जिस वक्त आपातकाल की घोषणा की गई उस वक्त ना देश में आर्थिक हालात खराब थे और ना ही कानून व्यवस्था में किसी तरह की कोई अड़चन थी।


इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल अपनी इच्छा के अनुसार लगाया था और इस संबंध में उन्होंने अपने पार्टी के कुछ लोगों को छोड़कर किसी भी सहयोगी से कोई विमर्श नहीं किया था।


आपातकाल के दौर में आजादी के बाद देश में सबसे अधिक पैमाने पर नेताओं की गिरफ्तारी, हुई।


आपात काल में गिरफ्तार किए गए अधिकतर सम्मानित और बुजुर्ग नेताओं को चिकित्सा सुविधा की आवश्यकता थी जी उन्हें अस्पताल में मौजूद नहीं कराई गई।


इंदिरा गांधी की तानाशाही का एक नमूना इस बात से भी पता चलता है कि शाह आयोग ने नसबंदी कार्यक्रम पर सरकार के रवैए की बेहद आलोचना की थी। आयोग ने कहा था कि पटरी पर रहने वाले और भिखारियों की जबरदस्ती नसबंदी की गई इसके साथ-सुद्ध ऑटो रिक्शा चालकों के ड्राइविंग लाइसेंस के नवीनीकरण के लिए नसबंदी सर्टिफिकेट दिखाना अनिवार्य कर दिया गया था।


आयोग ने यह स्पष्ट रूप से माना था कि सरकारी तप का उपयोग कर कुछ लोगों को फायदा पहुंचाने के लिए इस पूरे आपातकाल का इस्तेमाल किया गया।


श्वेत पत्र


आपातकाल के दौरान प्रेस की स्थिति को लेकर एक बेत पत्र 1 अगस्त 1977 में संसद में पेश किया गया। सत्या सी पेज के श्वेत पत्र से यह स्पष्ट हुआ कि आपातकाल के दौरान प्रेस की नीति खुद तानाशाह इंदिरा गांधी ने तय की थी।


तानाशाही की इच्छा रखने वाली इंदिरा गांधी ने अपनी अध्यक्षता में तय किया था कि प्रेस काउंसिल को भंग कर दिया जाए और तत्कालीन चारों समाचार एजेंसियों को मिलाकर एक कर दिया जाए, जिससे उन्हें सेंसर करने और संभालने में आसानी होगी।


इस श्वेत पत्र से यह भी पता चलता है कि आपातकाल के दौरान कुल 253 पत्रकारों को गिरफ्तार किया गया। बेरों प्रकाशकों को मौसा एक्ट के तहत गिरफ्तार करने, प्रेस जप्त करने, अखबारों के घोषणा पत्र निरस्त करने, मान्यता पापस लेने, सरकारी विज्ञापन रोकने और सिक्योरिटी जमा करने की बातें भी सामने आई है।


भारत के राजनीतिक इतिहास में आपातकाल एक काले धब्बे की तरह है। एक ऐसा दाग जिसे मिटाना नामुमकिन है। एक ऐसी घटना जिसने दुनिया को यह बताया कि एक राजनेता की सनक किस तरह अपने देश के लिए कितनी खतरनाक हो सकती है। 1975 में लगाया हुआ आपातकाल इंदिरा गांधी की गलती नहीं थी, बल्कि इंदिरा का "अहंकार" था।