4 जून का नरसंहार : जब लोकतंत्र की मांग कर रहे 10 हजार छात्रों को चीनी सरकार ने बेरहमी से मौत के घाट उतार दिया था

चीन में माओ के शासन आने के बाद सोवियत संघ के देखा देखी ग्रेट लीप फॉरवर्ड की नीति शुरू की गई। ग्रेट लीप फॉरवर्ड के परिणाम स्वरूप चीन में भयंकर अकाल पड़ा। 1958-62 के बीच पड़े इस अकाल में चीन की सरकारी रिपोर्ट के अनुसार 1.50 करोड़ लोगों की मृत्यु हुई थी जबकि ऐसा अनुमान है कि इस भयावह अकाल में 4.50 करोड़ लोगों की मृत्यु हुई थी।

The Narrative World    04-Jun-2024   
Total Views |

Representative Image
4
जून 1989 को चीन ने अपनी राजधानी बीजिंग में एक बड़े नरसंहार को अंजाम दिया था। बीजिंग के तियानमेन चौक पर 10,000 से अधिक प्रदर्शनकारियों को चीन ने अपनी सेना बुलाकर मार डाला था। हजारों प्रदर्शनकारी गिरफ्तार किए गए थे और सैकड़ों लोग गंभीर रूप से घायल हुए थे। पिछले तीन दशकों में यह सबसे बड़ा नरसंहार था।


आज चीन की तानाशाही से पूरी दुनिया परिचित है लेकिन एक वक्त था जब चीन की तानाशाही की खबरें दुनिया तक नहीं पहुंच पाती थी। उस वक्त चीन आर्थिक रूप से कोई बड़ी शक्ति था और ना ही चीन का दुनिया में कोई प्रभाव था।


वामपंथी गणराज्य की स्थापना करने के बाद से ही चीन में माओ के नेतृत्व में तानाशाही का राज था। कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चाइना के नेताओं ने अपने राज्य सत्ता और कम्युनिस्ट विचार को बरकरार रखने के लिए अपने ही नागरिकों को जान से मार डाला था।


चीन में माओ के शासन आने के बाद सोवियत संघ के देखा देखी ग्रेट लीप फॉरवर्ड की नीति शुरू की गई। ग्रेट लीप फॉरवर्ड के परिणाम स्वरूप चीन में भयंकर अकाल पड़ा। 1958-62 के बीच पड़े इस अकाल में चीन की सरकारी रिपोर्ट के अनुसार 1.50 करोड़ लोगों की मृत्यु हुई थी जबकि ऐसा अनुमान है कि इस भयावह अकाल में 4.50 करोड़ लोगों की मृत्यु हुई थी।


इसके बाद सांस्कृतिक क्रांति के नाम पर माओ ने पूरे चीन में युवाओं को ब्रेनवाश कर कत्लेआम मचाया। मऊ की मृत्यु के बाद दूसरे कम्युनिस्ट नेताओं ने अपनी वामपंथी नीतियों के तहत जनता का शोषण बरकरार रखा।


इस बीच कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं पर वंशवाद, परिवारवाद, भ्रष्टाचार, तानाशाही, घूसखोरी जैसे तमाम आरोप लग रहे थे। सत्ता कुछ गिने चुने नेताओं और अधिकारियों के हाथ में रह गई थी। 1987 तक आते-आते चीन के नागरिकों में अत्यधिक गुस्सा फैल चुका था। युवाओं और छात्रों ने छिटपुट विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिए थे।


चीन की अर्थव्यवस्था भी पूरी तरह चरमरा चुकी थी मुद्रास्फीति अपने चरम पर थी महंगाई बढ़ी हुई थी और मुद्रा की कीमत गिर चुकी थी वही चीनी राजनीति में भ्रष्टाचार चरम पर था।


इस बीच कई बुद्धिजीवियों समेत एक मशहूर एस्ट्रोफिजिक्स के प्रोफेसर फैंग लीज़ी ने खुलकर सरकार की नीतियों की आलोचना करनी शुरू की। इनके प्रभाव और लगातार बयानों के बाद इस आंदोलन की शुरुआत हुई।


बहुत बड़ी संख्या में युवा सरकार के विरोध के लिए तैयार थे। युवाओं को चीन में लोकतंत्र चाहिए था। लेकिन चीन में कम्युनिस्ट सरकार की आलोचना का मतलब है अपनी मौत को दावत देना। यही हुआ भी।


छात्रों युवाओं द्वारा छिटपुट प्रदर्शन किए जा रहे थे। इसी बीच 15 अप्रैल को कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्व महासचिव ह्यू याओबांग की मौत की सूचना आते ही लोग भावुक होकर अपने घरों से निकलने लगे। याओबांग उन नेताओं में से थे जो छात्रों के लोकतंत्र की मांग का समर्थन कर रहे थे।


22 अप्रैल को याओबांग की शोक सभा के दिन तियानमेन चौक पर हजारों की संख्या में युवा स्पीकर और माइक लेकर इकट्ठा होते हैं। और इसके अगले दिन 23 अप्रैल को "बीजिंग स्टूडेंट्स ऑटोनॉमस फेडरेशन" का गठन किया जाता है।


इसी दौरान कम्युनिस्ट पार्टी के तत्कालीन महासचिव झाओ ज़ियांग भी छात्रों के मांग का समर्थन करते हैं और उन पर किसी भी हिंसात्मक कार्रवाई का विरोध करते हैं। कम्युनिस्ट पार्टी दो खेमों में बंट चुकी थी। एक तरफ झाओ ज़ियांग और दूसरी तरफ लीन पेंग जो आंदोलन को कुचलने की बात करते हैं।


इसी बीच 26 अप्रैल को चीन के सरकारी अखबार पीपल्स दिल्ली में सभी आंदोलनकारियों को देशद्रोही करार दिया जाता है जिसके बाद 27 अप्रैल को और तेजी से आंदोलन बढ़ता है और एक लाख की संख्या में लोग तियानमेन चौक पर इकट्ठा होते हैं।


इसी बीच सोवियत संघ के राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाचोव का बीजिंग आगमन होता है जिस दौरान भी प्रदर्शनकारी अपने प्रदर्शन को जारी रखते हैं।


सोवियत नेता के जाने के बाद कम्युनिस्ट पार्टी और कम्युनिस्ट सत्ता ने चीन की सेना को बुलाकर प्रदर्शन को खत्म करने का फैसला करती है। 3 और 4 जून की मध्यरात्रि को गोली चलने की आवाजें पूरे शहर में सुनाई देती है।


20 मई से ही शहर में मार्शल लॉ लगा दिया गया था जिसकी वजह से विदेशी मीडिया को वहां पर जाने की अनुमति नहीं थी। इसके बाद हजारों लाखों लोग पूरी रात जान बचाने के लिए दौड़ भाग रहे थे।


चीन के सरकारी आंकड़ों के अनुसार 200 लोगों की मौत हुई थी जबकि मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के मुताबिक मौतों का आंकड़ा 10000 से भी अधिक था। ब्रिटिश सरकार द्वारा जारी किए गए एक दस्तावेज के मुताबिक 10000 लोग इस नरसंहार में मारे गए थे।


चीन में ना सिर्फ इस नरसंहार को अंजाम दिया बल्कि इससे जुड़े इंटरनेट में सामग्रियों को भी हटाने का काम जारी रखा है। चीन में आज की युवा पीढ़ी और आम जनों को तियानमेन चौक में हुए नरसंहार के बारे में कोई जानकारी नहीं है।


चीन और कम्युनिज्म ने यह साबित किया है कि सत्ता और ताकत की लालसा में वह अपने लोगों को भी नहीं बख्शता। कम्युनिज्म विचार ही ऐसा है जो अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए दमनकारी नीतियों का सहारा लेता है।