जनजातियों पर माओवादियों का अत्याचार : हत्या, नरसंहार और बेघर होते परिवार

माओवादियों के इस आतंक के कारण बीते 6 माह में 10 से अधिक ग्रामीण मारे जा चुके हैं, और ढेरों ग्रामीण बेसहारा हो चुके हैं। स्थितियां ऐसी हैं कि अपनी जमीन, अपना खेत, अपना घर और अपना गांव छोड़कर जिला मुख्यालय में शरण लिए जनजाति ग्रामीणों में छोटे बच्चे भी शामिल हैं, जिन्हें मजबूरी में जिला मुख्यालय में बने शिविरों में रहना पड़ रहा है।

The Narrative World    02-Jul-2024   
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छत्तीसगढ़ में माओवादी फोर्स की कार्रवाइयों के चलते लगातार बैकफुट पर हैं
, और उन्हें एक के बाद एक झटका लग रहा है।


एक ओर जहां पुलिस का इंटेलिजेंस काफी मजबूत हुआ है, और फोर्स में माओवादियों के विरुद्ध अपनी रणनीतियों में भी बदलाव किया है, वहीं दूसरी ओर माओवादियों के सारे षड्यंत्र विफल हो रहे हैं।


यही कारण है कि अब माओवादी आतंकी संगठन में बौखलाहट साफ दिखाई देने लगा है। अपनी इसी बौखलाहट और तिलमिलाहट के चलते माओवादी बस्तर के ग्रामीण क्षेत्रों में स्थानीय जनजातीय ग्रामीणों को निशाना बना रहे हैं, और उनकी हत्याएं कर रहे हैं।


माओवादियों ने अपनी बौखलाहट का परिचय देते हुए नारायणपुर जिले एक और जनजाति ग्रामीण की हत्या की है। जिले के ओरछा थानाक्षेत्र के अंतर्गत माओवादियों ने इस हत्या को अंजाम दिया है।


माओवादियों ने जिस जनजातीय युवक की हत्या की है, उसकी पहचान 30 वर्षीय सन्नू उसेंडी के रूप में हुई है। मृतक जनजातीय युवक सन्नू उसेंडी नारायणपुर जिले के बांस शिल्प कॉलोनी में निवासरत था, जिसका मूल ग्राम नेलंगुर था।


वह बीते दिनों एक काम के सिलसिले में अपने गांव पहुंचा था, जिसके बाद माओवादियों को इसकी सूचना मिलते ही योजना बनाकर उसकी हत्या कर दी गई। माओवादियों की हैवानियत कुछ ऐसी थी कि उन्होंने सन्नू उसेंडी को पहले उसके गांव से उठा लिया और फिर रविवार 30 जून की रात उसकी हत्या कर दी।

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कम्युनिस्ट आतंकियों ने सन्नू की हत्या के बाद उसके शव को ओरछा के बटुमपारा क्षेत्र में फेंक दिया। इसके अलावा माओवादियों ने जनजाति युवक की हत्या करने के बाद उसके शव के समीप पर्चें फेंके हैं, जिसमें माओवादी आतंकियों ने सन्नू उसेंडी को पुलिस मुखबिर बताया है। माओवादियों ने अपने पर्चे में मृतक जनजाति युवक को 15 जून को हुई मुठभेड़ के लिए मुखबिरी करने की बात कही है।


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गौरतलब है कि इस मुठभेड़ में माओवादियों को बड़ा झटका लगा था, जिसमें 8 माओवादी मारे गए थे। इस मुठभेड़ के लिए नारायणपुर, दंतेवाड़ा, कांकेर और कोंडागांव की संयुक्त फोर्स शामिल थी।


माओवादियों की मांद में घुसकर फरसेबेड़ा और कोड़तामेटा के जंगलों में इस ऑपरेशन को अंजाम दिया गया था, जो माओवादियों का आरामगाह माना जाता था। ऐसे में माओवादियों को अपने हाथ से एक और बड़ा गढ़ निकलता देख ऐसी तिलमिलाहट हो चुकी है कि वो निर्दोष जनजाति ग्रामीणों की हत्या कर रहे हैं।


दरअसल नारायणपुर के जिस अबूझमाड़ क्षेत्र से लगे इलाके में माओवादियों ने जनजातीय युवक सन्नू उसेंडी की हत्या की है, वहां के जनजाति ग्रामीणों के साथ माओवादी लगातार अत्याचार करते आये हैं।


इसी जून माह के शुरुआती सप्ताह में माओवादियों ने यहां के दो युवकों की हत्या कर दी थी, जिसके बाद पूरे क्षेत्र में दशहत बढ़ गया था। इस हत्या के बाद भी माओवादी शांत नहीं रहे, उन्होंने हत्या करने के एक सप्ताह के भीतर ही मृतक युवकों के परिजनों को गांव से निकाल कर बेघर कर दिया था।


बेघर हुए 15 से अधिक जनजाति ग्रामीण नारायणपुर जिला मुख्यालय के रैन बसेरा में शरण लिए हुए हैं, जो कम्युनिस्ट आतंकवाद से पूरी तरह भयभीत हैं।


गौरतलब है कि यह कोई पहला मौका नहीं है कि माओवादियों ने इस तरह से किसी निर्दोष ग्रामीण की मुखबिरी के शक में हत्या की या स्थानीय जनजाति ग्रामीणों को उनके ही जमीन से बेघर कर दिया।


इससे पहले माओवादियों ने बस्तर के अलग-अलग जिलों में कई स्थानीय ग्रामीणों की हत्याएं की हैं, वहीं केवल नारायणपुर की बात करें तो बीते एक माह में ही 4 ग्रामीण माओवादियों के इन आतंक की भेंट चढ़ चुके हैं।


हाल ही में कोंडागांव जिले के केशकाल क्षेत्र में माओवादियों ने एक जनजातीय युवक को गोली मारकर उसकी हत्या कर दी थी। वहीं मई के माह में बीजापुर में माओवादी आतंकियों ने दो भाइयों को मौत के घाट उतार दिया था, जिसके बाद पूरे क्षेत्र में भय का माहौल बन चुका था।


माओवादी बीते कुछ समय से अपनी हार एवं कमजोरी की बौखलाहट स्थानीय जनजाति ग्रामीणों पर निकाल रहे हैं, जिसके चलते ना सिर्फ जनजातीय युवाओं की हत्या की जा रही है, बल्कि जनजाति ग्रामीणों को बेघर भी किया जा रहा है।


ग्रामीणों को बेघर किए जाने की स्थिति को कुछ ऐसे समझा जा सकता है कि नारायणपुर में पूरी एक बस्ती बसाई गई है, जहां ऐसे लोग रहते हैं जिन्हें माओवादियों ने उनके गांव-घर से भगा दिया है।


माओवादी बीते कुछ वर्षों में लगातार बस्तर के स्थानीय ग्रामीणों को निशाना बना रहे हैं, जिसके चलते निर्दोष ग्रामीणों की हत्याएं हो रही हैं, वहीं उनके परिजनों को भय के कारण अपने गांव को छोड़कर जिला मुख्यालय में शरण लेना पड़ रहा है।


माओवादियों के इस आतंक के कारण बीते 6 माह में 10 से अधिक ग्रामीण मारे जा चुके हैं, और ढेरों ग्रामीण बेसहारा हो चुके हैं। स्थितियां ऐसी हैं कि अपनी जमीन, अपना खेत, अपना घर और अपना गांव छोड़कर जिला मुख्यालय में शरण लिए जनजाति ग्रामीणों में छोटे बच्चे भी शामिल हैं, जिन्हें मजबूरी में जिला मुख्यालय में बने शिविरों में रहना पड़ रहा है।

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कम्युनिस्ट आतंकवाद से पीड़ित इन परिवारों की ना कोई सुध लेने वाला है, ना ही कोई मीडिया उनकी कहानी सुनने वाला है। एक ओर जब कम्युनिस्ट-माओवादी आतंकी झूठी बात करते हैं या झूठा विमर्श गढ़ते हैं, तो उन्हें बस्तर से लेकर दिल्ली की मीडिया और तो और अंतरराष्ट्रीय मीडिया का भी कवरेज प्राप्त होता है, लेकिन जब इसी कम्युनिस्ट आतंकवाद से पीड़ित परिवारों की बात आती है, तब मीडिया चुप्पी साध लेता है।


जब माओवादी आतंकी पुलिस मुठभेड़ में मारे जाते हैं तब मानवाधिकार और तमाम तरह के कार्यकर्ता आवाज़ उठाने लगते हैं, लेकिन इन बेसहारों के मानवाधिकार की चिंता कोई नहीं करता है।


जब माओवादी झूठी कहानी गढ़ते हुए मारे गए आतंकियों को 'ग्रामीण' बताते हैं, तब कम्युनिस्ट कार्यकर्ता तुरंत फैक्ट फाइंडिंग कमेटी लेकर पहुँच जाते हैं, लेकिन इन परिवारों और मृतकों के परिजनों को सुनने कोई नहीं पहुंचता।

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आज कम्युनिस्ट आतंकवाद की सबसे बड़ी मार झेल रहे ये पीड़ित जनजाति सिर्फ और सिर्फ यही मांग कर रहे हैं कि उन्हें उनकी जन्मभूमि, उनके गांव और उनके घरों में शांति से रहने दिया जाए। वो केवल इतनी मांग कर रहे हैं कि इनके मानवाधिकार की भी बात की जाए और उसकी उचित रक्षा हो।


ये जनजाति कोई पूंजीपति नहीं हैं, जिन्हें कम्युनिस्ट आतंकी निशाना बना रहे हैं, ये तो वो निर्दोष ग्रामीण हैं, जो केवल और केवल अपनी रीति, परंपरा एवं संस्कृति का पालन करते हुए शांति से अपने गांव में जीवन यापन कर रहे हैं, लेकिन माओवाद का विचार ही यही है कि "सबकुछ उजाड़ कर ही माओवाद की स्थापना की जा सकती है।"