छत्तीसगढ़ के माओवाद से प्रभावित बस्तर क्षेत्र में ईसाई मिशनरियों द्वारा दशकों से स्थानीय जनजातियों का अवैध कन्वर्जन कराया जा रहा है। ईसाई मिशनरियों के कारण किए जा रहे इस अनैतिक कृत्य के चलते आमतौर पर शांत रहने वाले बस्तर से लगातार सामाजिक तनाव की खबरें सामने आ रही हैं।
बस्तर संभाग के विभिन्न जिलों में ना सिर्फ अवैध कन्वर्जन का जाल बिछाया गया हैज़ बल्कि इस क्षेत्र में जनजातीय संस्कृति को पूरी तरह से खत्म करने की कोशिश भी की जा रही है।
मिशनरियों की इन गतिविधियों में बस्तर के जनजातीय क्षेत्रों में 'जनजाति समाज की भूमि' पर ईसाइयों के अंतिम संस्कार का षड्यंत्र भी शामिल है, जिसके चलते अब इस क्षेत्र में सामाजिक ताना-बाना पूरी तरह से बिखरता हुआ दिखाई दे रहा है।
दरअसल बस्तर के विभिन्न गांवों में यह विवाद देखा जा रहा है कि कन्वर्टेड समूह जनजातियों की भूमि पर ही शव दफनाने को लेकर अड़ा हुआ है, और इसके लिए तमाम तरह के षड्यंत्रों को अंजाम दे रहा है।
इन सब के बीच शव दफनाने को लेकर वर्तमान में एक और विवाद सामने आया है, जहां कन्वर्टेड समूह एक बार फिर जनजातियों की भूमि पर ईसाई व्यक्ति के शव को दफनाने की कोशिश कर रहा है।
नारायणपुर जिले के बेनूर थाना अंतर्गत कलेपाल गांव से यह मामला सामने आया है, जहां एक ईसाई व्यक्ति की शनिवार 10 अगस्त को मौत हुई है, जिसके बाद से इस रिपोर्ट को लिखे जाने तक विवाद की स्थिति बनी हुई है। ईसाई व्यक्ति के परिजनों एवं क्षेत्र के ईसाई समूह का कहना है कि वो उसी स्थान पर शव दफनाना चाहते हैं, जहां गांव के अन्य जनजातियों के शव को दफनाया जाता है।
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वहीं दूसरी ओर स्थानीय जनजातीय ग्रामीणों का कहना है कि मृतक ईसाई बन चुका था और ईसाई रीति रिवाजों का पालन करता है, अतः उसका शव जनजातियों के स्थल में नहीं दफनाया जा सकता।
इस पूरे मामले को लेकर अब पूरे क्षेत्र में तनाव बना हुआ है, वहीं रविवार को पूरे दिन पुलिस एवं प्रशासन को भी क्षेत्र में चौकन्ना रहना पड़ा है। हालांकि ग्रामीणों का कहना है कि मृतक ईसाई के लोग नारायणपुर के ईसाई कब्रिस्तान में जाकर उसका अंतिम संस्कार कर लें, लेकिन उनके शव को गांव में नहीं दफनाने दिया जाएगा।
इस मामले को लेकर यह बात समझ आती है कि बस्तर का यह पूरा क्षेत्र संविधान द्वारा दिए गए अधिकारों के तहत 5वीं अनुसूचित क्षेत्र के रूप में घोषित है, ऐसे में इस क्षेत्र में विदेशी रिलीजन एवं शक्तियों द्वारा जनजातियों की संस्कृति में दखल देना कहीं ना कहीं जनजाति समाज के अधिकारों के हनन का भी मामला दिखाई देता है।
जनजाति समाज की अपनी एक व्यवस्था जिसके तहत ही समाज की सारी पारंपरिक गतिविधियां चलती हैं, और इसी के अनुसार समाज के लोग अपनी संस्कृति से जुड़े रहते हैं।
ईसाइयों के शव को दफनाने का विरोध कर रहे जनजातीय ग्रामीणों का कहना है कि पांचवीं अनुसूची क्षेत्र में उन्हें संविधान द्वारा कुछ विशेष अधिकार दिए गए हैं, जो ना सिर्फ उनकी संस्कृति के संरक्षण के लिए है, बल्कि समाज की परंपरा को बनाए रखने के किए भी हैं।
उनका कहना है कि इन क्षेत्रों में जनजाति समाज का एक समाज प्रमुख होता है, यहां गायता, पुजारी, पटेल, सिरहा, बैगा होते हैं, यहां परगना व्यवस्था होती है, कुल मिलाकर जनजातियों का एक कस्टमरी लॉ (पारंपरिक कानून) होता है, जिसके तहत ही समाज चलता है।
ऐसे में यहां विदेशी रिलीजन वाले आकर जनजातियों की संस्कृति का ह्रास कर रहे हैं, वहीं इस पांचवीं अनुसूची क्षेत्र में जनजातियों के ही अधिकारों को दबाने का कार्य कर रहे हैं।
ग्रामीणों का कहना है कि जनजाति समाज में शव दफनाने की जमीन की व्यवस्था भी समाज के पारंपरिक नियमों/कानूनों के माध्यम से होती है, तथा अंतिम संस्कार विधियों में भी जनजातीय रीति-रिवाज का पालन किया जाता है। इसके अतिरिक्त जनजाति समाज में मृतक पुरखों को ईश्वरतुल्य माना जाता है, जिनके शव को दफनाने का स्थान भी एक पवित्र स्थल होता है।
ऐसे में ग्रामीणों का कहना है कि जो व्यक्ति अपनी रूढ़ि परंपरा को छोड़ चुका है, जिसने बूढ़ादेव-बड़ादेव को मनाना छोड़ दिया है, जो व्यक्ति समाज के किसी रीति-रिवाज को नहीं अपनाता, क्या ऐसे व्यक्ति को जनजातियों की पवित्र स्थली पर शव दफनाने दिया जाना चाहिए ? इसी प्रश्न का उत्तर देते हुए जनजातीय ग्रामीण कहते हैं कि ऐसे किसी भी व्यक्ति का शव यहां नहीं दफनाने दिया जाएगा, जो जनजातियों की संस्कृति को छोड़कर विदेशी संस्कृति में शामिल हो गया है।
एक तरफ यह बात भी होती है कि मानवीयता के आधार पर किसी भी व्यक्ति के शव को दफनाने से नहीं रोका जा सकता है, लेकिन विषय पर स्थानीय जनजातीय ग्रामीण काफी सहजता से कहते हैं कि उन्होंने किसी के शव दफ़नाने में हस्तक्षेप नहीं किया है, लेकिन उनका कहना है कि यदि मृतक ने ईसाई रिलीजन अपना लिया है, तो उसका अंतिम संस्कार ईसाई कब्रिस्तान में ही होना चाहिए।
चित्र - देर रात्रि तक अपने पवित्र स्थल की रक्षा में गाँव में मौजूद जनजाति ग्रामीण
इस पूरे मामले को लेकर जनजाति ग्रामीणों का एक बड़ा वर्ग यह कहता है कि इस शव दफनाने के षड्यंत्र के पीछे ईसाई मिशनरियों के तीन प्रमुख उद्देश्य हैं, जो कहीं ना कहीं बस्तर के लिए बड़ा खतरा है।
इन तीन उद्देश्यों में पहला है ईसाइयत को बढ़ावा देना, दूसरा है बस्तर की जनजातीय संस्कृति को खत्म करना और तीसरा है बस्तर की शासकीय एवं जनजातीय भूमि पर अवैध रूप से कब्जा करना।ग्रामीणों के इन दावों को विस्तार से समझें तो मिशनरियों का यह षड्यंत्र स्पष्ट रूप से दिखाई भी देता है।
यदि ईसाइयत को बढ़ावा देने की बात कहें तो यह नजर आता है कि बस्तर के अंदरूनी ग्रामीण क्षेत्रों तक मिशनरियों ने घुसपैठ कर ली है, जहां तक शासन-प्रशासन नहीं पहुंचा है, वहां भी मिशनरियों के पास्टर और नन पहुंच चुके हैं। इस क्षेत्रों में पहुंच के चलते ईसाई अब लॉबी बनाकर निर्णय ले रहे हैं, जिससे वो ना सिर्फ क्षेत्र की सामाजिक परिस्थिति और संस्कृति ही नहीं, बल्कि राजनीति को भी प्रभावित कर रहे हैं।
बीते वर्ष हुए विधानसभा चुनाव के समय दैनिक भास्कर की एक ग्राउंड रिपोर्ट में यह खुलासा हुआ था कि इस क्षेत्र के कन्वर्टेड ईसाई परंपरागत रूप से तो कांग्रेस के वोटर हैं, वहीं 2023 के चुनाव में उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी का समर्थन किया था।
वोट बैंक बनकर राजनैतिक समर्थन हासिल करने वाले ईसाइयों द्वारा इस पूरे क्षेत्र में ईसाइयत का विस्तार तेजी से किया जा रहा है, और इसी विस्तार के क्रम में शव दफनाना भी एक बड़ा टूल है।
वहीं दूसरे उद्देश्य का विश्लेषण करें तो यह बस्तर के जनजातियों के लिए सबसे बड़ा खतरा है। बस्तर की संस्कृति हजारों वर्षों से अपने मूल में बनी हुई है। सनातन सभ्यता की आरण्यक संस्कृति का प्रतिनिधित्व करने वाला बस्तर का जनजाति समाज आज इन विदेशी रिलीजन के मिशनरी एजेंट्स की अनैतिक गतिविधियों से जूझ रहा है। इन मिशनरी समूहों द्वारा बस्तर की जनजाति संस्कृति, रूढ़ि परंपरा, रीति-रिवाज और स्थानीय अस्मिता को पूरी तरह से खत्म किया जा रहा है।
स्थानीय जनजातियों को प्रलोभन, भय, आतंक एवं दबाव के माध्यम से अवैध रूप स कन्वर्ट किया जा रहा है। कन्वर्ट होने के बाद जनजातीय परिवारों को ना ही किसी रूढ़ि परंपरा में सम्मिलित होने दिया जाता है और ना ही किसी देवस्थान में जाने दिया जाता है, उन्हें केवल और केवल चर्च जाने और ईसा मसीह की पूजा करने की अनुमति होती है।
ऐसे में एक बड़ा वर्ग अब बस्तर की मूल संस्कृति से दूर होने लगा है, जो धीरे-धीरे अपने पुरखों की परंपराओं को ना सिर्फ भूल चुका है, बल्कि उसका अपमान और उसका विरोध भी कर रहा है।
तीसरे और मिशनरियों के मुख्य उद्देश्य की ओर देखें तो वह है जमीन पर कब्जा करना। इसका एक ताजा उदाहरण नारायणपुर के ही भटपाल गांव से मिलता है, जहां मिशनरियों ने एक ईसाई व्यक्ति के शव को जनजातियों के देवस्थान के समीप ही दफन कर दिया था, जिसके बाद स्थानीय ग्रामीणों ने उसका जमकर विरोध किया। मिशनरियों ने उस भूमि को मृतक की निजी संपत्ति बताई थी, जो बाद में जांच में झूठी पाई गई, असल में वह संपत्ति शासकीय भूमि थी।
इससे समझा जा सकता है कि भविष्य में ऐसे स्थानों को चर्च या ईसाइयों की भूमि के रूप में परिवर्तित करने के लिए भी मिशनरी समूह ईसाइयों के शव को इस तरह से शासकीय भूमि पर दफनाने को लेकर सक्रिय है। कुल मिलाकर देखें तो ग्रामीण जिस तरह का आरोप इन मिशनरियों पर लगा रहे हैं, उसमें सच्चाई नजर आ रही है।
एक तरफ जहां बस्तर में हजारों वर्षों से जनजाति समाज अपनी संस्कृति, परंपरा का पालन करते हुए आ रहा है, ऐसे में वहां शव दफनाने से लेकर अवैध कन्वर्जन तक के षड्यंत्रों को अंजाम देकर ईसाई मिशनरी ने समूह पूरे बस्तर के माहौल को तनावपूर्ण बना दिया है।