आजकल दुनिया के किसी भी देश में हिन्दू होना एक अपराध हो गया है, खासकर जिहादी कानून से चल रहे देशों में, और थोडा गौर करें तो आजकल नहीं पिछले करीब 1000 सालों से हिन्दू होना अपराध ही है। यहां तक कि अब तो हिन्दू भी मान बैठे हैं कि जो हिन्दुओं के साथ हो रहा है, उसका कारण भी हिन्दू ही हैं, क्योंकि “आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता”, ये तो धार्मिक हिन्दू ही हैं जो बिना बात चिल्ला रहे हैं। पता नहीं क्यों इनसे चुपचाप रेप और हत्याएं भी नहीं झेली जातीं।
हाल ही का बांग्लादेश का किस्सा लेते हैं, जमात-ए-इस्लामी के मुसलमान कट्टरपंथी छात्रों के वेश में बांग्लादेशी हिन्दुओं को मार रहे हैं। क्योंकि उनका ये मानना है हिन्दू शेख हसीना के समर्थक हैं, जोकि वे हैं भी।
बांग्लादेश में ऐसा ही बड़ा हमला 2021 में भी हुआ था, जब एक दुर्गा पांडाल में कुरान पाई गयी थी। इस नरसंहार में करीब 117 हिन्दू मंदिर एवं 300 से ज्यादा हिन्दू मंदिर/घर जला दिये गए थे। बाद में पता चला कि ये पूरा काण्ड एक मुस्लिम युवक द्वारा ही रचा गया था। लेकिन पता चलने से पहले उनकी मंशा पूरी हो चुकी थी और नवरात्रों के दौरान हुए इन हमलों में 100 से ज्यादा हिन्दू बहन बेटियों का बलात्कार हुआ था।
बांग्लादेश में हिन्दुओं के खिलाफ हिंसा भारत से थोड़ी अलग है। इसके लिए 'दंगा' शब्द का प्रयोग पर्याप्त नहीं है। मुस्लिम बहुल क्षेत्र में पूरा नरसंहार होता है, कभी दंगा नहीं हो सकता।
आपको तस्लीमा नसरीन की लिखी लज्जा की वह पंक्ति याद होंगी, जहां सुरोंजोन अपने पिता सुधामोय दत्ता के साथ बहस में फंस जाता है और जब पिता हिंसाग्रस्त बांग्लादेश में अपना बचाव करते हुए कहते हैं, "सभी देशों में दंगे हो रहे हैं। क्या भारत में दंगे नहीं होते?”, बेटा जवाब देता है: “दंगे अच्छे हैं, बाबा। लेकिन हमारे यहां दंगे नहीं होते, यहां मुसलमान हिंदुओं को मार रहे हैं!”
फिर भी हिंदुओं ने हसीना का साथ दिया था क्योंकि उसने वादा किया था कि वह हिन्दुओं के जीवन को व्यवस्थित करेगी, सुरक्षा देगी। लेकिन कहते हैं न कि अच्छा समय ज्यादा नहीं रहता, बंगलादेशी हिन्दुओं का भी “कम बुरा” समय ज्यादा दिन नही टिका।
5 अगस्त को शेख हसीना को 45 मिनट का अल्टीमेटम मिला देश छोड़ने के लिए। इसके बाद बांग्लादेश की सड़कों पर शुरू हुआ मौत का भयावह खेल। 1971 में बांग्लादेश को आजादी दिलाने वाले बंगबंधु की प्रतिमा को भी नहीं बख्शा गया।
बांग्लादेशी हिन्दुओं के लिए यह ऐसा था मानो कसाई उनकी गर्दन एक झटके के साथ उड़ा देने वाला हो। आप स्थिति की भयानकता का अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं कि एक हिन्दू लड़की के साथ 130 कट्टरपंथी छात्रों ने बलात्कार किया और फिर उसे मारकर चौराहे पर उल्टा निर्वस्त्र लटका दिया।
रिपोर्ट्स इतनी डराने वालीं थीं कि भारत के विदेश मंत्री को संसद में ये बोलना पड़ा कि “बांग्लादेश में हिन्दू मंदिरों, प्रतिष्ठानों पर हमले हो रहे हैं।” और भारत सरकार को बांग्लादेशी हिन्दुओं की सुरक्षा के लिए एजेंसियों की कमेटी बनानी पडी।
हसीना के देश छोड़ने के 24 घंटों के भीतर ही, बांग्लादेश के करीब 27 जिलों में हिंदुओं पर हमले, उनके घरों और मंदिरों में तोड़फोड़ और उनका कीमती सामान लूटने की खबरें आना शुरू हो गयीं। यहां तक कि इस्कॉन मंदिर को भी नहीं बख्शा गया।
जमात के नेतृत्व वाले इस्लामी संगठनों द्वारा आयोजित, बड़े पैमाने पर हिंदुओं के सफाए की फिर से शुरुआत हुई, जिसे शेख हसीना ने 15 साल पहले बंद कर दिया था। हिंसा के पैमाने और प्रकृति का अंदाज़ा इन दिनों चल रहे एक भयावह वीडियो से लगाया जा सकता है, जिसमें इस्लामी कट्टरपंथी एक पीट-पीटकर मार डाले गए व्यक्ति के गुप्तांगों का निरीक्षण करते हुए और फिर खुशी व्यक्त करते हुए दिखाई दे रहे हैं कि मारा गया व्यक्ति एक हिंदू है!।
बांग्लादेश में हिंदुओं का प्रताड़ित होना आम बात थी। लेकिन अब जिहाद के जिस जिन्न को हसीना ने 15 साल तक बोतल में बंद करके रखा था, वो बाहर आ गया है। दुर्भाग्य से, जब बांग्लादेश के अल्पसंख्यकों को देखभाल, सहानुभूति और समर्थन की आवश्यकता थी, तब उनके उनके दुखों को पूरी तरह नजरअंदाज किया जाने का प्रयास किया गया। विशेषकर तथाकथित “हिन्दू लिबरल्स” द्वारा।
नई दिल्ली में स्थित एक वेबसाइट के संपादक हैं, उनके पास अमेरिकी नागरिकता भी है, उन्होंने तो हाल ही में एक साक्षात्कार में बांग्लादेश में हिंदुओं पर हमले की संभावना को सिरे से खारिज ही कर दिया था। विडंबना यह है कि वही सज्जन भारत में हिंदू कट्टरपंथ और मुस्लिम उत्पीड़न का मुद्दा उठाते नहीं थकते।
दीप हलधर और अभिषेक बिस्वास ने अपनी 2023 की किताब, बीइंग हिंदू इन बांग्लादेश में लिखा है कि ढाका विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉ. अबुल बरकत के अनुसार बांग्लादेश में हिंदू विनाश का पैमाना इतना बड़ा है कि अगर पलायन की मौजूदा दर जारी रही तो अगले 30 साल में बांग्लादेश में कोई हिंदू नहीं बचेगा।
जहां बांग्लादेश में वर्तमान स्थिति चिंताजनक रूप से गंभीर है, तो वहीं भारत में हिंदू की प्रतिक्रिया मात्र आश्वस्त करने वाली है। हमेशा की तरह बॉर्डर पार हिंदू अल्पसंख्यकों के साथ जो हो रहा है, उसके प्रति अरुचि का स्थान गुस्से की भावना ने ले लिया है। लेकिन फिर भी भारतीय हिन्दुओं में से अधिकांश को बांग्लादेश में पीड़ित हिन्दुओं के साथ कोई संबंध नहीं दिखता, लेकिन इस्लामिक कट्टरपंथी इस अपने संबंध को निभाने से कभी नहीं चूकते।
लेकिन, केवल वामपंथियों-उदारवादियों को दोष क्यों दिया जाए, ये तो लंबे समय से हिंदू समाज की ही विफलता रही है, चाहे वह भारत में हो या बाहर? 'लज्जा' में नसरीन इस हिंदू मानस को अच्छे से समझाती हैं। एक दृश्य में, सुरोंजोन खालिद नाम के एक लड़के के साथ बहस में फंस जाता है, जो उसे "सुअर का बेटा" और "कमीने" जैसे नामों से बुलाता है। सुरोनजॉय उसे बराबर मात्रा में वापस देता है। नसरीन आगे लिखती हैं :
खालिद: 'कुत्ते की पिल्ले!'
सुरोंजोन: 'तुम कुत्ते के पिल्ले।'
खालिद: 'हिन्दू!'
सुरोंजोन: 'तू हिंदू !'
सुरोंजोन ने सोचा कि 'हिन्दू' भी कोई गाली है। कई वर्षों तक उसका मानना था कि हिंदू एक अपमानजनक, मज़ाक उड़ाने वाला शब्द है। जब वह थोड़ा बड़ा हुआ तब उसे समझ आया कि हिंदू एक सभ्यात्मक सांस्कृतिक पहचान है और वह खुद भी एक हिन्दू है। वह तो मानने लगा कि वह मानव जाति और बंगाली नामक समुदाय से हैं। सुरोंजोन यह दिखाना चाहता था सेक्युलर और समावेशी है, हिन्दू नहीं क्योंकि हिन्दू होना गाली है।
उपन्यास के अंत में, सुरोंजोन की काल्पनिक दुनिया बिखर जाती है क्योंकि वह अपने पिता से भारत चले जाने की विनती करता है क्योंकि "यहाँ (बांग्लादेश में) मुसलमान हिंदुओं को मार रहे हैं।"
नरसिन इसका मार्मिक अंत लिखती हैं - सुरोंजोन ने अपने पिता को रोकते हुए कहता है कि 'हम नास्तिक और मानवतावादी हो सकते हैं, लेकिन वे लोग हमें काफिर ही कहते हैं।'
विभाजन के बाद बांग्लादेश में रहने वाले अधिकांश हिंदू दलित समुदाय से थे। आजादी से पहले, ये लोग राजनीतिक रूप से बहुत सक्रिय थे और जोगेंद्रनाथ मंडल के रूप में उनके पास एक मजबूत नेता था जो दलित-मुस्लिम एकता के दिखावे में विश्वास करता था।
मंडल ने अपने लोगों को भारत के साथ न जाने के लिए मना लिया था। लेकिन जब अधिकांश सवर्ण हिंदू बांग्लादेश (तब पूर्वी पाकिस्तान) से चले गए, तो ये दलित इस्लामिक कट्टरपंथियों के सीधे निशाने पर आ गए। उनके जाने से दलित-मुस्लिम गठबंधन का मूल उद्देश्य ही ख़त्म हो गया।
हालात इतने खराब हो गए कि मंडल जो खुद दलितों को भारत ना आने के लिए कह रहे थे, और जो पाकिस्तान के पहले कानून मंत्री भी थे, उन्हें खुद 1950 में भारत में पलायन करना पड़ा। लेकिन उनके अनुयायी, गरीब और दलित होने के कारण, उतने भाग्यशाली नहीं थे कि भारत में शरण ले सकें। जो पीछे छूट गए हिंदू थे, वे लज्जा के काल्पनिक सुधमोय की तरह खुद को बंगाली, मानवतावादी, नास्तिक आदि मानते रहे। वे यह समझ ही नहीं पाए कि इस्लामवादियों की नजर में वे हिंदू हैं, काफिर ही हैं।
तीसरा, उनका दुर्भाग्य है, भारत में बैठी कट्टरपंथी, वामपंथी-'उदारवादी' ब्रिगेड, जो बांग्लादेश में उनकी दुर्दशा पर दो-चार बातें करती है। इन तथाकथित सेक्यूलर्स के अनुसार बांग्लादेश और पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के साथ सब कुछ ठीक-ठाक है। यह सिद्ध करने के लिए वे स्पष्टीकरण ढूंढते हैं, नहीं मिलता तो अक्सर शरारती ढंग से आविष्कार करते हैं।
इस बिग्रेड के लोगों का चरित्र ऐसा रहा है कि वे शपथ तो अंबेडकर की लेते हैं, लेकिन बांग्लादेश और पाकिस्तान में फंसे अंबेडकर के बच्चों को कोई भी राहत देने से इनकार करने के लिए दिन-रात मेहनत करते हैं। ये ही वामपंथी-'उदारवादी' अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश के उत्पीड़ित हिंदुओं को भारत की नागरिकता दिलाने में मदद करने के लिए वर्तमान सरकार द्वारा पेश किए गए सीएए के खिलाफ आंदोलन करने में सबसे आगे रहे हैं।