‘धर्मोन्मूलन’ को धर्मांतरण कहने की धूर्तता और मूर्खता

दरअसल इस ‘धर्मोंन्मूलन’ को ‘धर्मांतरण’ (कन्वर्ज़न) कहने-मानने की ऐसी धूर्तता व मूर्खता के मूल में ‘रिलीजन’ व ‘मजहब’ को ‘धर्म’ का समानार्थी मानने-समझने की अज्ञानता सन्निहित है, जो औपनिवेशिक अंग्रेजी मैकाले शिक्षा से निर्मित मानस की राजनीतिक चोंचलेबाजियों से होती हुई अब अकादमिक-सामाजिक क्षेत्र में भी बौद्धिकता का रूप ले चुकी है।

The Narrative World    17-Aug-2024   
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हिन्दुओं के 'ईसाईकरणअथवाइस्लामीकरणको उनका धर्मांतरण (कन्वर्ज़न) कहना षड्यंत्रकारी धूर्तता और घोर मूर्खता है; क्योंकि हिन्दू समाज धर्मधारी होता है और क्रिश्चियनिटी अर्थातईसाईयतएक रिलीजन है, तो इस्लाम भी एक मजहब है। इन दोनों में सेधर्मकोई नहीं है, तो जाहिर है कि धर्मधारी लोगों को रिलीजन या मजहब में तब्दील कर देना उनके धर्म का उन्मूलन ही है।अंतरणतो कतई नहीं; यह धर्मांतरण (कन्वर्ज़न) तो तब कहलाता, जब एक धर्म से दूसरे धर्म मेंअन्तरणहोता, अर्थात, क्रिश्चियनिटी और इस्लाम भी कोई धर्म होता।


धर्मांतरण (कन्वर्ज़न) का शाब्दिक अर्थ होता है - धर्म का परिवर्तन होना, अर्थात व्यक्ति का एक धर्म से दूसरे धर्म में परिवर्तित होना। किन्तु, वहदूसराकोईधर्महो भी, तब तो। धर्म तो केवल धर्म है, वह न तो रिलीजन है और न ही मजहब है। रिलीजन व मजहब के जन्म से पहले भी धर्म कायम रहा है और चूंकि यह सृष्टि की प्रकृति व स्रष्टा की अभिव्यक्ति का पर्याय है, इसी कारण शाश्वत व सनातन है; जबकि रिलीजन व मजहब धर्म के पर्यायवाची अथवा समानार्थी कतई नहीं हैं।


तब ऐसे में कोई भी हिन्दू जो धर्मधारी ही होता है, वह धर्म से विमुख होकर रिलीजियस (ईसाई) अथवा मजहबी (मुसलमान) बन जाता है, अर्थात ईसाईयत (रिलीजन) या इस्लाम (मजहब) अपना लेता है, तो उसका धर्म परिवर्तित नहीं होता है, अपितु उसकी धार्मिकता नष्ट हो जाती है; क्योंकि वह धर्म से इत्तर जिस धारणा को अपनाता है, वह धर्म है ही नहीं।


जाहिर है- ऐसे में वह धर्मांतरित (कन्वर्टेड) नहीं, बल्कि धर्मरहित या धर्म-रिक्त अथवा धर्म-भ्रष्ट या धर्महीन हो जाता है। इस परिवर्तित स्थिति को धर्मांतरित (कन्वर्ज़न) कहना और इस प्रक्रिया को धर्मांतरण (कन्वर्ज़न) बताना सर्वथा अनुचित है; क्योंकि इससे तो रिलीजन व मजहब को धर्म की मान्यता मिल जाती है।


दरअसल इसधर्मोंन्मूलनकोधर्मांतरण’ (कन्वर्ज़न) कहने-मानने की ऐसी धूर्तता व मूर्खता के मूल मेंरिलीजनमजहबकोधर्मका समानार्थी मानने-समझने की अज्ञानता सन्निहित है, जो औपनिवेशिक अंग्रेजी मैकाले शिक्षा से निर्मित मानस की राजनीतिक चोंचलेबाजियों से होती हुई अब अकादमिक-सामाजिक क्षेत्र में भी बौद्धिकता का रूप ले चुकी है।


अंग्रेजी उपनिवेशवाद की पीठ पर सवार होकर भारत आया हुआईसाई विस्तारवादयहां अपनी जड़ें जमाने के लिए जिन बौद्धिक धूर्तताओं व षड्यंत्रों का सहारा लिया, उनमें से एक यह भी है।


यह कि भारत के धर्मधारी हिन्दू समाज के बीच क्रिश्चियनिटी फैलाने के निमित्त इसे एकनया धर्मबताने हेतु उन रिलीजियस विस्तारवादियों ने अपनेयेसु / यीशुको हमारे संस्कृत शब्दईशके सदृशईसाहोना और क्रिश्चियनिटी कोईसाई धर्महोना प्रचारित किया-कराया, ताकि सामान्य जनमानस क्रिश्चियनिटी को भीईश काअर्थातईश्वर द्वारा प्रतिपादितधर्म जान-मान सके।

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इस पैंतरेबाजी के कारण उन्हेंयीशुकोईसाबनाकरईशके अर्थ में प्रचारित करने सेईसाईयतअर्थात क्रिश्चियनिटी कोधर्मनिरुपित कर देने और जन-सामान्य को उसे धर्म के तौर पर समझा देने की सुविधा कायम हो गई। फिर तो शिक्षा कीमैकाले पद्धतिके अंग्रेजी स्कूलों से पढे-लिखे हिंदुओं ने हीईश्वर अल्लाह तेरो नामऔरसब धर्म एक समानका राग आलापना शुरू कर दिया, तब उनका यह षड्यंत्र और आसानी से क्रियान्वित होने लगा।


धीरे-धीरे जब पूरी शिक्षा-व्यवस्था ही मैकाले-शिक्षा-पद्धति के अधीन होकर चर्च-मिशनरियों की गिरफ्त में आ गई, तब स्कूलों-कॉलेजों में शिक्षार्थियों कोक्या पढ़ाना हैयह भी वे ही तय करने लगे। उधर ईसाईयत और इस्लाम दोनों के झंडाबरदारों नेपैगम्बरवादीऔरएकल किताबवादीहोने के आधार पर परस्पर मैत्री का हाथ मिलाकर धर्म के विरुद्ध अघोषित मोर्चा खोल लिए।


कालांतर में औपनिवेशिक शासन के सहारे शिक्षा व बौद्धिकता में रिलीजियस विस्तारवाद से युक्त अंग्रेजी सोच पूरी तरह से जब कायम हो गई, तब उन तथाकथित शिक्षाविदों ने धर्म के अधिष्ठाताब्रह्मके विरुद्धअब्रह्मअर्थातअब्राहमका मिथक स्थापित करने और मोहम्मद व क्राइस्ट को राम-कृष्ण-विष्णु के समान सिद्ध करने के लिए इतिहास व समाजशास्त्र की पुस्तकों मेंपैगम्बरवादसे लेकरऐकेश्वरवादतक एक से एक अवधारणायें-स्थापनायें रच-गढ करबायबिलकोज्ञान की इकलौती पुस्तक’, तोकुरानकोआसमानी किताबहोने की मिथ्या दावेदारी का वायरस फैला दिया, जो आज भी समूचे बौद्धिक वातायन को भ्रमित किए हुए है।

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इन दोनों पुस्तकों में ज्ञान का लेश मात्र भी नहीं होने के बावजूद रिलीजियस-मजहबी झण्डाबरदारों द्वारा उन्हें विज्ञान के आदि स्रोत- वेदों-पुराणों-उपनिषदों के अलावा रामायण व भग्वद गीता के समतुल्य बताने की हिमाकत की जाने लगी और आज भी की जा रही है। इस क्रम में उन्होंनेगॉडऔरखुदाको भीईश्वरका पर्याय के रूप में प्रचारित कर दिया।


आप समझ सकते हैं कि जिस रिलीजन के अनुसारगॉडको मात्र एक ही पुत्र होयीशु’, वह भला समस्त चराचर जगत का रचइता व पालक-पोषक नियामक परमपिता कैसे हो सकता है?


इसी तरह से जिस मजहब के मुताबिकनिराकारने यह हुक्म दे रखा हो किआकारकी पूजा-भक्ति करने वालों से शत्रुतापूर्ण व्यवहार किया जाना चाहिए, वह करुणासागर कृपानिधान दयानिधि परमात्मा कैसे हो सकता है?


लेकिन यह माना जा रहा है, या दूसरे शब्दों में कहें तो मनवाया जा रहा है किइकलौते पुत्रको जन्म देकर पृथ्वी पर भेजने वालेपिताजीऔर आकार की पूजा-भक्ति करने वालों का सफाया कर देने का फरमान जारी कर सातवें आसमान में कहीं विराज रहेनिराकारमहोदय; दोनों उसपरम ब्रह्मके पर्याय हैं, जिससे यह समस्त सृष्टि निःसृत हुई है।


इन सब तथ्यहीन अवधारणाओं-मान्यताओं को जैसे-तैसे खींच-तान कर उन विस्तारवादियों द्वारा रिलीजन व मजहब को धर्म के सदृश परिभाषित-प्रदर्शित करने की कोशिशें लगातार की जाती रहीं, किन्तु वे सफल नहीं हो सके। कारण साफ है कि गड्ढों-कूपों का जल न कभी गंगा हो सकता है, न समुद्र। बावजूद इसके, धर्मधारी लोगों की अंग्रेजी शिक्षा से निर्मित और औपनिवेशिक राजनीति से संचालित बौद्धिकता नेईश्वर अल्ला तेरो नाम - सर्व धर्म एक समानका नारा देते हुए रिलीजन व मजहब को भी धर्म होने की भ्रांति फैला रखी है, जिसका परिणाम सामने है।


किसी व्यक्ति को, या यों कहिए कि एक सनातनी / हिन्दू को धर्म से विमुख कर उस पर रिलीजन या मजहब थोप देने को यह कहा जा रहा है कि उसनेदूसरा धर्मअपना लिया और चूंकि धार्मिक स्वतंत्रता संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकार है, इसलिए यह उचित भी है। जबकि, वास्तव में यह धर्मांतरण नहीं, बल्कि धर्मोन्मूलन है और इस कारण घोर अनुचित व आपराधिक कृत्य है।

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कोई हिन्दू अथवा धार्मिक व्यक्ति अगर स्वेच्छा से ऐसा करता है, तो उसके इस कृत्य कोधर्म-द्रोहकहा जाएगा और ऐसा करने वाले कोधर्म-द्रोही क्रिश्चियनअथवाधर्मद्रोही मुस्लिमकहा जा सकता है, न कि धर्मांतरित (कन्वर्टेड); क्योंकि धर्म तो केवल और केवल एक ही है।


जबकि धर्म से इतर अधर्म है, चाहे वह रिलीजन हो या मजहब। धर्म से जबरिया (लोभ-लालच-भय-प्रलोभन के सहारे) विमुख कराया हुआ व्यक्तिधर्म-भ्रष्टयाधर्महीनऔर धर्म से स्वयं विमुख हुआ व्यक्तिधर्मद्रोहीकहला सकता है, मगर धर्मांतरित (कन्वर्टेड) तो कतई नहीं।


इस संबंध में सबसे अचरज वाली बात यह है कि धर्मधारी व्यक्ति-समाज के ईसाईकरण या इस्लामीकरण का विरोध करते रहने वाले धार्मिक हिन्दू-संगठन भी उन्हीं रिलीजियस-मजहबी विस्तारवादियों की हां में हां मिलाते हुए रिलीजन व मजहब कोधर्मएवंधर्मोन्मूलनको धर्मांतरण (कन्वर्ज़न) ही समझते रहे हैं।


ऐसे में सरकार एवं न्यायालय दोनों को चाहिए कि वह तर्क, तथ्य व सत्य की कसौटी पर वस्तु-स्थिति की विवेचना करधर्मांतरण’ (कन्वर्ज़न) की भ्रांति को दूर करे और यह स्थापित करे कि रिलीजन व मजहब में से कोई भीधर्मनहीं है, इसलिएधर्म-विच्छेदनको धर्मांतरण (कन्वर्ज़न) कतई नहीं कहा जा सकता है; जबकि व्यक्ति-समाज के जिसईसाईकरणइस्लामीकरणकोधर्मांतरण’ (कन्वर्ज़न) कहा जा रहा है, सो वास्तव मेंधर्मोन्मूलनहै।


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मनोज ज्वाला
पत्रकार, लेखक, अन्वेषक, चिंतक