संयुक्त राष्ट्र संघ ने 9 अगस्त को विश्व मूलनिवासी दिवस के रूप में मनाने का निर्णय 23 दिसंबर 1994 को लिया था। दरअसल दुनिया भर में अनेक जनजाति संस्कृतियाँ अपना अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष कर रही हैं। आधुनिक विश्व की शुरूआत नये भौगोलिक खोजों से हुई थी। कोलंबस और जेम्स कुक जैसे समुद्री यात्रियों ने अमेरिका और ऑस्ट्रेल्या जैस नये भूखण्डों की खोज की, लेकिन जब उपनिवेशवादी शोषण का दौर शुरू हुआ तब इन नये भूखण्डों में रहने वाले मूलनिवासियों की संस्कृति और इतिहास खतरे में पड़ गया।
संयुक्त राष्ट्र संघ ने ऐसी संघर्षशील मूलनिवासियों के अधिकार संरक्षित करने 2007 में मूलनिवासियों के अधिकारों की घोषणा की। तब से पुरी दुनिया में 'विश्व मूलनिवासी दिवस' (इंडिजीनस पीपल्स डे) मनाने लगी। भारत में भी इस दिन अनेक आयोजन किये जाते हैं।
भारत में बड़ी संख्या में जनजाति समूह निवास करते हैं। भारतीय मानव वैज्ञानिक सर्वेक्षण द्वारा देश में 635 जनजाति समूह व उपजातियां चिन्हित की गई हैं, जिनकी कुल आबादी 2011 की जनगणना के अनुसार 10 करोड़ 42 लाख से अधिक है, यानि भारत की कुल आबादी का लगभग 8 प्रतिशत।
छत्तीसगढ़ में 42 जनजातियाँ संविधान के तहत अनुसूची में शामिल हैं, जिनकी आबादी 30 प्रतिशत से अधिक है। छत्तीसगढ़ मे 9 अगस्त को आदिवासी दिवस के रूप में मनाया जाता रहा है और प्रदेश की सरकार ने 9 अगस्त को अवकाश भी घोषित किया हुआ है।
यह दिवस मनाने के प्रस्ताव पर और मूलनिवासियों को अधिकार देने का प्रस्ताव जब संयुक्त राष्ट्र संघ ने चर्चा के लिए आया था, तब भारत सरकार ने अपना मत स्पष्ट करते हुए कहा था कि भारत में सभी जन (नागरिक) मूल निवासी हैं। अत: वे मूल निवासी के अधिकार का प्रस्ताव का समर्थन इसी लिए करते हैं कि "दुनिया भर में जहाँ औपनिवेशिक अथवा आक्रमणकारी शक्तियों के कारण उक्त भूखण्ड में रहने वाली बहुसंख्यक जनसंख्या पर अन्याय हुआ" भारत उसके विरुद्ध खड़ा है।
विश्व मूलनिवासी दिवस एवं उन्हें अधिकार देने संबंधी प्रस्ताव विश्व मजदूर संघ में 1989 में प्रस्तुत किया गया था। प्रस्ताव क्रमांक 169 में 'राईट्स ऑफ इंडिजीनस एण्ड ट्राइबल पीपुल्’स की बात कही गई थी। इस प्रस्ताव में ट्राइबल (जनजाति) एवं इंडिजीनस (मूलनिवासी) की परिभाषा अनुच्छेद 1 मे दी गई थी।
इसके तहत जनजाति लोग वे हैं जो किसी स्वतंत्र देश में अपने पृथक सामाजिक सांस्कृतिक एवं आर्थिक स्थिति लिए राष्ट्रीय समुदाय के साथ अपनी परम्परा नियम से रह रहे है।
जबकि मूलनिवासी की परिभाषा ऐसे लोगों के बारे में है, जिन देशों में विदेशियों ने आक्रमण कर अथवा उपनिवेश बनाकर रखा और उनकी पीढ़ियाँ अपने सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एवं राजनैतिक संस्थाओं को बनाये रखी हुईं हैं।
इस दृष्टि से भारत में विश्व मूलनिवासी दिवस के रूप में अधिकारिक रूप से हम दुनियाभर के मूलनिवासियों की संस्कृतियों को बचाने की मुहिम में अपना समर्थन देते हैं।
लेकिन देश में 'विश्व आदिवासी दिवस' के नाम पर जो आयोजन किये जा रहे हैं, उनमे कई तरह के भ्रम समाज में पैदा करने का प्रयास किया जा रहा है। स्वतंत्रता के पूर्व वन क्षेत्रों मे पली-बढ़ी उन्नत संस्कृतियों को मानने वाले लोगों को वनवासी शब्द से संबोधित किया जाता था, अंग्रेजों ने वनवासी के स्थान पर 'आदिवासी' शब्द का प्रयोग शुरू किया।
जब 1948-49 में संविधान निर्माण की प्रक्रिया चल रही थी, तब संविधान सभा में भारत में रहने वाले जनजातीय समाज को लेकर विस्तृत चर्चा हुई। चर्चा के अंत में सर्वसम्मति से इन समुदाय को परिभाषित करने के लिए जनजातीय शब्द को स्वीकार्य किया गया एवं उनकी जातियों एवं उपजातियों को एक अनुसूची में शामिल किया गया।
सवाल यह है कि भारत में विश्व मूलनिवासी दिवस या आदिवासी दिवस मनाने का औचित्य क्या है ? पहली बात तो यह कि विश्व भर के मूलनिवासियों के प्रति जो बर्बरता बरती गई, उनके साथ भारतीय जनजाति समाज सहित पूरे भारत को खड़ा होना चाहिए। भारतीय समाज ऐसी संस्कृतियों को पुनर्जीवित करने में सहयोग दे, लेकिन जहां तक छत्तीसगढ़ में इस दिन सार्वजनिक अवकाश देने की बात है, तो प्रदेश के जनजातीय समाज के गौरव के प्रतीक को उत्सव के रूप मनाने की पहल हो।
देश या प्रदेश के किसी जनजातीय महापुरूष के स्मरण में जनजातीय दिवस मनाया जाना चाहिए जिससे जनजातीय समाज अपने महापुरूषों को याद कर उनसे प्रेरणा ले सकें, जैसे भगवान बिरसा मुंडा की जयंती के अवसर पर "जनजातीय गौरव दिवस" मनाया जाता है।
लेकिन एक ऐसा दिन जो संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा घोषित किया हुआ है, और जिसे भारत सरकार ने माना है कि इसका संबंध भारतीय जनजाति समाज से नहीं है, उस दिन को भारतीय परिपेक्ष्य में उत्सव के रूप में मनाना क्या उचित होगा ?
हमें इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि अंग्रेज भारतीय समाज को बांटकर अपना राज कायम करने की नीति चलाते थे, वैसे ही देश-दुनिया के षडयंत्रकारी भारत में समाज में विषबैल फैलाकर भारत में अस्थिरता पैदा करने की योजना बनाते हैं।
मूलनिवासी, आदिवासी और जनजाति जैसे शब्दों के बीच भ्रम फैलाकर जनजाति समाज को शेष राष्ट्रीय समाज के विरूद्ध भड़काने का कुत्सित प्रयास तो नहीं किया जा रहा ? भोले-भाले, सरल जनजातीय बंधुओं को ऐसे मंसूबों से सावधान रहना होगा।
जनजाति समाज की प्रगति स्वतंत्रता के बाद जिस गति से होनी चाहिए थी, वैसी नहीं हो सकी। जल, जंगल, जमीन पर उन्हें अभी भी पर्याप्त अधिकार नहीं मिल सका है, पांचवीं अनुसूची और पेसा कानून का पूरी तरह लागू होना शेष है। लेकिन जनजातीयों के विकास में संविधान और सरकारी योजनाओं के अनुरूप जो कार्यक्रम चलाए जा रहे उनमें जनजातीय समाज की सहमति और भागीदारी जरूरी है। जनजाति समाज का विकास जब समाज स्वयं अपने हाथों में नहीं लेगा तब तक उनके विकास की दिशा सही नहीं होगी।
लेख
शशांक शर्मा
वरिष्ठ पत्रकार