नक्सल आतंकवाद से पीड़ित बस्तरवासी बीते सप्ताह दिल्ली यात्रा पर थे, इस दिल्ली यात्रा में उन्होंने धरना-प्रदर्शन भी किया और राष्ट्रपति एवं केंद्रीय गृहमंत्री से मुलाक़ात भी की। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि इन्होंने बस्तर से निकलकर दिल्ली जाने का निर्णय क्यों लिया? दरअसल इसके पीछे बेहद महत्वपूर्ण कारण है, जिसे समझना आवश्यक है। पूरे विषय को समझने से पहले आपको बस्तर के दो लोगों की कहानी बताते हैं।
बस्तर संभाग के अंदर आने वाले बीजापुर जिले के नैमेड़ थाना के अंतर्गत कचीलवार गांव का एक स्थानीय जनजाति ग्रामीण गुड्डूराम लेकाम अपनी आजीविका के लिए तेलंगाना सीमा से लगे क्षेत्र में मिर्च तोड़ने जाता था। 11 मार्च, 2024 को मिर्च तोड़कर 18 वर्षीय गुड्डूराम वापस अपने गांव पैदल लौट रहा था, इसी दौरान पैदल आते हुए गुड्डुराम जंगल के भीतर माओवादियों द्वारा प्लांट किए गए आईईडी विस्फोट की चपेट में आ गया, जिसके बाद उसके दाहिने पैर का पंजा उखड़ गया, बाएं पैर के घुटने एवं दोनों हाथों में चोट आई और अंततः उसे अपना एक पैर गंवाना पड़ा। आईईडी की चपेट में आने के बाद भी माओवादियों ने उसका उचित इलाज नहीं होने दिया, उसे बंधक बनाकर रखा गया और अंत में शासन-प्रशासन ने ही गुड्डुराम का उपचार कराया, जिससे उसकी जान बच पाई, लेकिन उसने अपना एक पैर खो दिया।
कुछ ऐसी ही कहानी बीजापुर के ही माड़वी नंदा की है, जो तर्रेम जाने के लिए घर से निकला था, और बीच में तोयनाला के पास पेशाब करने रुका। इसी बीच कच्ची सड़क से उतरते ही उसके पैरों के नीचे जोरदार धमाका हुआ, जिससे माड़वी नंदा वहीं घायल होकर गिर पड़ा। इस विस्फोटक को माओवादी आतंकियों ने सड़क पर बिछा रखा था, जिसके चलते विस्फोट हुआ। 22 वर्षीय माड़वी नंदा ने माओवादियों के इस आतंक के चलते अपना एक पैर गंवा दिया, इस घटना के बाद उसके दाहिने पैर को घुटने के नीचे से काटना पड़ा।
यह कहानी केवल गुड्डुराम लेकाम और माड़वी नंदा की नहीं है, यह कहानी बस्तर के उन हजारों ग्रामीणों की है जिन्होंने माओवादियों का दंश सहा है, जो वर्तमान में भी इन नक्सलियों का आतंक झेल रहे हैं, जो आज भी इन लाल आतंकियों के कारण भय के साये में जी रहे हैं। बीते 40 वर्षों से बस्तर माओवाद का जो दंश झेल रहा है, वह अब एक कैंसर बन चुका है, जिसका जल्द से जल्द इलाज आवश्यक है।
इस माओवाद-नक्सलवाद ने ना सिर्फ बस्तर की पीढ़ियों को बर्बाद किया, बल्कि बस्तर के विकास की गति को भी लगभग रोक दिया। माओवादी आतंक के कारण बस्तर के युवाओं का भूत, भविष्य, वर्तमान आतंक के साये में रहा, वहीं बस्तर की पहचान भी लाल आतंक और रक्तरंजित भूमि के रूप में होने लगी।
बीते ढाई दशकों में इस भूमि में माओवादियों ने 8000 से अधिक ग्रामीणों की हत्या की है, और हजारों ऐसे लोग हैं जो माओवादियों के बिछाए बारूद के ढेर की चपेट में आने के कारण दिव्यांग हो गए।
बस्तर के हजारों ऐसे युवा हैं, जो नक्सल आतंक के कारण अपने शरीर का कोई ना कोई अंग गंवा चुके हैं, किसी ने अपना पैर खोया है, तो किसी ने हाथ, किसी के आंखों की रोशनी चली गई है, तो किसी के कानों में आवाज़ आने बंद हो गए हैं। और यह स्थिति बस्तर के केवल युवाओं या पुरुषों की ही नहीं है, यह वहां की महिलाओं, बुजुर्गों, और तो और नाबालिग बच्चों की भी है।
उत्तर बस्तर कांकेर की ही एक घटना यह बताती है कि कैसे बस्तर क्षेत्र में छोटे-छोटे बच्चों के जीवन में माओवादी आतंक का दंश प्रभाव डाल रहा है। कांकेर में वर्ष 2019 में रामपुर कुआपारा में रहने वाले स्थानीय जनजाति किसान की एक बच्ची ने जंगल में खेलते समय 'एक वस्तु' को खिलौना समझ कर घर ले आई थी, जो वास्तव में माओवादियों द्वारा लगाया गया विस्फोटक था। यह बम घर में बच्चों के हाथ में फटा और 04 वर्षीय सुनीता हुपेंडी को भयानक चोट लगी, जिसके बाद बाएं हाथ, दाहिने पैर और पसली में समस्या आने लगी। यह घटना बताती है कि कैसे माओवादियों के कारण छोटे बच्चों का बचपन भी बारूद के ढेर में बित रहा है, जहां ना जाने कितने बच्चों का इन विस्फोटकों से बर्बाद हो रहा है।
छत्तीसगढ़ के दक्षिण भाग में बस्तर संभाग क्षेत्र आता है, जिसके अंतर्गत 7 जिले हैं, जो माओवाद से प्रभावित क्षेत्रों में शामिल हैं। बस्तर को लेकर कहा जाता है कि वहां विकास नहीं हुआ इसीलिए माओवादी-नक्सली यहाँ आये, या ये कहा जाता है कि माओवादी जल-जंगल-जमीन बचाने आये हैं, और तो और यह भी दावा किया जाता है कि माओवादी स्थानीय जनजातीय-वनवासी समाज के अधिकारों की रक्षा और उनकी सुरक्षा के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं। उपरोक्त कहे गए सभी कथन पूरी तरह से गलत और तथ्यहीन हैं।
माओवादियों ने कभी भी बस्तर का विकास नहीं होने दिया, उनके कारण ही बस्तर में सड़कें नहीं बन पाई हैं, माओवादियों ने विद्यालयों को तोड़ा है, जिसके चलते स्थानीय जनजातियों के बच्चे स्कूल नहीं जा पाए, नक्सलियों ने अस्पतालों को निशाना बनाया है, जहां जनजाति ग्रामीण इलाज कराते थे, कभी मुखबिर बताकर तो कभी निजी दुश्मनी में माओवादी आतंकियों ने स्थानीय जनजातियों की हत्याएँ की और उनका शोषण किया, कुल मिलाकर देखें तो माओवादियों ने बस्तर के ग्रामीणों को कभी भी विकास की ओर बढ़ने ही नहीं दिया, उन्हें हमेशा अविकसित और पिछड़ा ही बनाए रखा, और उन्हीं जनजातियों का शोषण किया जिसके अधिकारों की रक्षा की बात करते हैं, यह सबकुछ केवल इसलिए ताकि उनपर अपनी हुकूमत जमा सके।
नक्सलियों-माओवादियों की विचारधारा मुख्य रूप से इन सिद्धांतों पर टिकी हुई है:-
Anti National (राष्ट्र विरोधी) - इस विषय में कोई दो मत नहीं कि माओवादी आतंकी वर्तमान में भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा हैं, यही कारण है कि भारत सरकार ने उन्हें प्रतिबंधित आतंकी संगठन के रूप में सूचीबद्ध किया है। माओवादी भारत के भीतर से ही भारत को कमजोर करने, खत्म करने और खंडित करने का प्रयास कर रहे हैं।
Anti Development (विकास विरोधी) - माओवादियों को यदि विकास विरोधी कहा जाए, तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। आज बस्तर का हर वो हिस्सा जो माओवाद से प्रभावित है, वहां विकास की गति या तो एकदम धीमी है, या विकास से कोसो दूर है। यदि इन क्षेत्रों में सड़क बनाई जाती है तो माओवादी उस सड़क को काट देते हैं, बम से उड़ा देते हैं या उस सड़क को बनने ही नहीं देते। माओवादियों द्वारा सड़क के साथ-साथ स्कूल, शासकीय कार्यालय समेत इंफ्रास्ट्रक्चर की हर उस चीज को खत्म कर दिया जाता है, जिससे इन क्षेत्रों का विकास हो सके। यदि किसी गांव में सड़क आएगी तो वहां बिजली भी आएगी, पानी भी पहुंचेगा, स्कूल-अस्पताल भी बनेंगे, और स्थानीय ग्रामीणों को सुविधाएं भी मिलेंगी, लेकिन माओवादी विकास की इन सभी बुनियादी सुविधाओं को ना कभी बनने देना चाहते हैं, ना ही कभी इन क्षेत्रों में विकास होने देना चाहते हैं।
Anti Democracy (लोकतंत्र विरोधी) - जैसा कि हम जानते ही हैं कि माओवाद के विचार में लोकतंत्र का कोई स्थान नहीं है। माओवाद केवल और केवल अधिनायकवादी तानाशाही पर विश्वास करता है। कुछ ऐसा ही विचार माओवादियों का भी है। माओवादी भारत की लोकतांत्रिक गणराज्य सत्ता को खत्म कर यहां माओवादी शासन व्यवस्था लाना चाहते हैं, वो यहां तानाशाही स्थापित करना चाहते हैं। माओवादी जिस प्रकार से प्रत्येक चुनाव में लोकतंत्र के इस पर्व का बहिष्कार करते हैं, या चुनावों में खलल डालने का प्रयास करते हैं, वह इसी षड्यंत्र की एक कड़ी है। बस्तर इसका सबसे बड़ा उदाहरण है जहाँ माओवादियों के द्वारा आये दिन जनता के द्वरा चुने गए जनप्रतिनिधियों की हत्या कर दी जाती है, चाहे वो विधानसभा के सदस्य हो या पंचायत की सबसे छोटी इकाई पंच हो, इन सभी पर माओवादी हमला करते हैं। इसके अलावा देश में जब चुनाव आये, तब माओवादी सक्रिय रूप से इसमें खलल डालने का प्रयास करते हैं, ताकि चुनावी प्रक्रिया से आम जनता का विश्वास खत्म किया जा सके।
Anti Tribals (जनजाति विरोधी) - माओवादी आतंकी और माओवादी संगठन खुद को जनजातियों के सबसे बड़े हितैषी के रूप में दिखाते हैं, लेकिन सच्चाई यही है कि माओवादियों ने सबसे अधिक नुकसान जनजातियों का ही किया है। बस्तर के जिस क्षेत्र में माओवादी अपनी तमाम आतंकी गतिविधियों को अंजाम देते हैं, उसका शिकार सबसे ज्यादा वहां का जनजाति समाज बनता है। जनजाति समाज को दिग्भ्रमित कर माओवादी ना सिर्फ उनसे अपने कार्य करवाते हैं, बल्कि उनका शारीरिक, मानसिक, आर्थिक और सामाजिक रूप से शोषण भी करते हैं। अंदरूनी क्षेत्र के जनजाति परिवारों के घर से जबरन बच्चों को नक्सल संगठन में भर्ती करना हो, या अपना डर बनाये रखने के लिए निर्दोष जनजाति ग्रामीणों की हत्या करना, माओवादी इन सभी वारदातों को अंजाम देते हैं।
माओवादियों के द्वारा ना तो जनजातीय ग्रामीणों का विकास होने दिया जाता है, ना ही उन्हें उचित शिक्षा-चिकित्सा-आवास की व्यवस्था करने दी जाती है, इसके कारण बड़ी संख्या में स्थानीय जनजाति ग्रामीण कुपोषण और बीमारी के भी शिकार हो जाते हैं। कई गांव ऐसे हैं जहाँ माओवादियों ने जनजाति समाज को पिछड़ेपन के ऐसे हालातों में छोड़ दिया है, जहां के लोगों ने ना कभी डॉक्टर को देखा है, और ना ही कभी सड़क को। 'केंजा नक्सली - मनवा माटी' के तहत जो बस्तरवासी अपनी पीड़ा लेकर न्याय की गुहार लगाने दिल्ली पहुँचे हैं, उनमें से भी अधिकांश पीड़ित जनजाति समाज से ही हैं। और बस्तर में भी माओवादियों के इन बारूदी सुरंगों का शिकार हुए लोगों में अधिकांश जनजाति ग्रामीण ही हैं।
Anti Women (महिला विरोधी) - माओवादियों के महिला विरोधी होने का प्रमाण स्वयं महिला माओवादियों ने ही दिया है। माओवादी आतंकी संगठन से निकल कर आत्मसमर्पण करने वाली महिला माओवादियों समेत पुलिस द्वारा गिरफ्तार माओवादियों ने भी इस बात की पुष्टि की है कि माओवादी आतंकी संगठन ना सिर्फ महिलाओं से भेदभाव करता है, बल्कि महिलाओं का मानसिक और शारीरिक शोषण भी करता है। माओवादियों द्वारा महिलाओं का बड़े स्तर पर यौन शोषण किया जाता है। माओवादी अपने ही संगठन के महिला कैडर्स का यौन शोषण करते हैं। नक्सलियों द्वारा महिलाओं का यौन शोषण करना और उनके साथ जबरन शारीरिक संबंध बनाने का विषय केवल निचले स्तर के महिला नक्सल कैडर तक ही सीमित नहीं है, बल्कि महिला कमांडर्स के साथ भी यह ज्यादती होती है।
Anti Human Rights (मानवाधिकार विरोधी) - माओवादी मानवाधिकार के सबसे बड़े विरोधी हैं। सामान्य तौर पर माओवादी अपने तमाम प्रेस विज्ञप्तियों में 'मानवाधिकार' की बात करते हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में यदि स्थानीय निवासियों का जो सबसे अधिक मानवाधिकार हनन करता है, वो माओवादी ही हैं। किसी भी व्यक्ति की बुनियादी आवश्यकताएं होती हैं - भोजन, आवास, कपड़े, शिक्षा, चिकित्सा और रोजगार के अवसर। लेकिन माओवादियों के कारण उनके प्रभावी क्षेत्रों इन बेसिक चीजों की आपूर्ति हो पाना भी अत्यधिक कठिन होता है, और तो और कभी-कभी लगभग असम्भव होता है।
इसके तमाम उदाहरण हम देख सकते हैं कि कैसे बस्तर के अंदरूनी क्षेत्रों में सड़क ना होने के कारण वहां बिजली, पानी नहीं पहुंच पाती है। ग्रामीणों को उचित उपचार नहीं मिल पाता है। बच्चों को शिक्षा नहीं मिल पाती है। यदि इनके क्षेत्र में ये सुविधाएं पहुंचने लगे तो क्या स्थानीय ग्रामीणों के जीवन स्तर में सुधार नहीं होगा ? किंतु माओवादी ऐसा कभी नहीं होने देंगे। एक व्यक्ति का मौलिक अधिकार होता है कि उसे बुनियादी सुविधाएं मिल सके, लेकिन नक्सलियों के कारण उसे इन अधिकारों से भी वंचित कर दिया जाता है। इसके अलावा माओवादी जिस तरह से 'जन अदालत' के नाम पर 'कंगारू कोर्ट' चलाते हैं, वह भी मानवाधिकार का बड़ा उल्लंघन है।
दुनिया के किसी भी लोकतांत्रिक देश में यदि किसी को आरोपी बनाया जाता है तो उसे भी अपनी दलील रखने का पूरा अधिकार होता है, लेकिन माओवादी आतंकियों के इस कंगारू कोर्ट में ना कोई अपील होती है, ना दलील और ना ही वकील, सीधे किसी भी ग्रामीण को पुलिस मुखबिर बोलकर मार दिया जाता है। यही इन नक्सलियों की सच्चाई है।
माओवादियों के इन्हीं मानवता विरोधी, बस्तर विरोधी और जनजाति विरोधी चरित्र को उजागर करने के लिए माओवादी हिंसा से पीड़ित बस्तरवासी देश की राजधानी दिल्ली में न्याय की गुहार लगाने पहुँचे थे। पीड़ित बस्तरवासियों ने दिल्ली में गुहार लगाई कि उन्हें नक्सलवाद के दंश से मुक्ति दिलाया जाए। उन्हें बस्तर में बारूद के ढेर से निकाला जाए।
माओवादी हिंसा से मुक्ति की मांग कर रहे ये ग्रामीण कहते हैं कि बस्तर में विकास तो हो सकता है, लेकिन उस विकास के रास्ते में माओवादियों ने 'बम' प्लांट कर रखा हुआ है। जैसे ही बस्तर का कोई नागरिक विकास के रास्ते पर थोड़ा आजाद होकर चलता है वैसे ही माओवादियों के लगाए बम फट कर उसे दोबारा उसी आतंक के साये में ले जाते हैं, जहां से निकलना नामुमकिन हो जाता है। जैसे ही बस्तर के अंदरूनी क्षेत्रों का कोई बच्चा स्कूल जाने के लिए अपना बैग उठता है, यूनिफॉर्म पहनता है, माओवादी उसकी हत्या करने को उतारू हो जाते हैं। जब ग्रामीण को मारने में उन्हें अपना नुकसान दिखता है, तो स्कूल को बम से उड़ा देते हैं। कोई महिला अपनी रोजी-रोटी के लिए तेंदूपत्ता बिनने जाती है, तो वहां माओवादियों के लगाए आईईडी की चपेट में आ जाती है, जिसके बाद उसके पैर तक काटने पड़ जाते हैं। कोई बम की चपेट में आता है, तो कोई माओवादियों के बिछाए 'स्पाइक होल' की जाल में फंस जाता है।
जो माओवादियों की हिंसा में मर जाते हैं, उनकी कहानी तो खत्म हो जाती है, लेकिन जो बच जाते हैं, कल्पना कीजिए वो कैसे रहते होंगे ? एक ऐसी महिला जिसके घर में बच्चे हैं, जो परिवार की एकमात्र कमाने वाली महिला होती है, जिसपर पूरा परिवार आश्रित है, ऐसी महिला का यदि पैर कट जाए तो उस परिवार पर क्या बीतेगी ?
यह कोई काल्पनिक कहानी नहीं है, यह करतम जोगक्का की सच्ची कहानी है, जिनका पैर माओवादियों के लगाए आईईडी में आने के कारण क्षतिग्रस्त हुआ और अब वो अपने दैनिक कार्य के लिए भी परिवार पर आश्रित है। यह तो एक ऐसी महिला की कहानी थी, जिसके बच्चे हो चुके थे, जिसकी आयु 45 वर्ष थी, लेकिन बस्तर में माओवादी आतंक का कहर ऐसा है कि नाबालिग बच्चे भी इस दंश का शिकार हो रहे हैं।
सुकमा के भीमापुरम की निवासी मड़कम सुक्की टोरा बिनने निकली थी, तभी माओवादियों द्वारा प्लांट कर रखे गए विस्फोटक में उसका पैर पड़ा और जोरदार विस्फोट में उसका एक पैर बुरी तरह से क्षतिग्रस्त हो गया। मई 2024 में जब यह घटना हुई, तब सुक्की केवल 14 वर्ष की थी, और इस घटना के बाद उसके बाएं पैर को घुटने के नीचे से काटना पड़ा जिसके चलते अब वह हमेशा सहारे से ही चल पाती है। यह एक 14 वर्ष की बच्ची की कहानी है, केवल 14 वर्ष की।
कल्पना कीजिए कि आपके घर का 4 वर्ष का बच्चा घर के समीप गार्डन में खेलने निकले तो आप क्या सोचेंगे ? क्या वो गार्डन से कोई 'बम' को खिलौना समझ उसे लेकर घर आ जाएगा ? ऐसा कभी नहीं हो सकता, क्योंकि हम जानते हैं कि हमारे घर के पास गार्डन में किसी ने बम प्लांट कर के नहीं रखा है। लेकिन अब सोचिए कि आपके घर की एक छोटी 14 वर्षीय बच्ची घर से बाहर खेलने निकली है, और उसके पैर किसी बम में पड़ गए तो ? हम यह भी नहीं सोच सकते हैं, क्योंकि इसका उत्तर फिर से वही है कि हमारे घर के पास किसी ने बम प्लांट कर नहीं रखा है। लेकिन बस्तर की कहानी ऐसी नहीं है।
बस्तर के गांवों में माओवादियों ने स्थानीय ग्रामीणों के घर के पास ही बारूद बिछाकर रखा है, वो भी ऐसे स्थानों पर जहां गांव के बच्चे खेलने जाते हैं, घूमने जाते हैं, महुआ बिनने जाते हैं, महिलाएं रोजी-रोटी के लिए जाती हैं, बुजुर्ग टहलने जाते हैं, पुरूष खेती करने जाते हैं, उन सभी स्थानों पर माओवादियों ने बम बिछाकर रखा है।
शहरों में बैठकर यह सोचते ही मन में सिहरन सी हो जाती है कि कैसे घर से निकलते ही कब किसी आईईडी में पैर पड़ जाए, और पूरा का पूरा शरीर ही ब्लास्ट में उड़ जाए, तो कल्पना कीजिए कि बस्तर के गांव वाले किस जिंदगी को जी रहे हैं।
इसीलिए बस्तरवासी न्याय की गुहार लगाने दिल्ली पहुंचे थे, इसीलिए नक्सल आतंक से पीड़ित बस्तरवासी अपनी आवाज़ उठा रहे हैं, बस्तरवासी चाहते हैं कि देश उनके दुःख, दर्द और पीड़ा को भी समझे, उसका भी समाधान निकाले और बस्तरवासियों को भी बारूद के ढेर की नहीं बल्कि आजादी की सांस लेने दें।