छत्तीसगढ़ का बस्तर एक ऐसा अद्भुत क्षेत्र है जहां की ना केवल शिल्पकला और नृत्य-संगीत आकर्षक है, बल्कि यहां की प्राचीन ज्ञान परंपराएं एवं वन औषधि विद्या भारतीय संस्कृति के लिए एक बड़ा वरदान है।
लेकिन बीते 5 दशकों से बस्तर क्षेत्र में माओवाद के प्रभाव के कारण इन क्षेत्रों में अब प्राचीन विद्याओं पर संकट आ चुका है। इन विद्याओं को लेकर समाज में कल्याण का कार्य करने वाले वैद्य को माओवादी आतंकियों द्वारा धमकी दी जा रही है।
स्थितियाँ ऐसी हो चुकी है कि बस्तर की इन प्राचीन ज्ञान परंपराओं के कारण जिस जनजातीय वैद्य को भारत सरकार ने पद्मश्री से सम्मानित किया, वह भयभीत होकर अपना वह नागरिक सम्मान लौटाना चाहता है।
वहीं दूसरी ओर जिन्हें अब वैद्यराज के नाम से पुकारा जाता है, वो अपनी जन्मभूमि-कर्मभूमि छोड़कर जिला मुख्यालय में रहने को मजबूर हो गए हैं। और इन सब का एक ही कारण है, बस्तर में कम्युनिस्ट आतंकवाद, माओवादी आतंकवाद।
बस्तर में जहां एक ओर सुरक्षाबल के जवान माओवादियों को खत्म करने के लिए जी-जान से जुटे हैं, वहीं दूसरी ओर शासन-प्रशासन भी अब बस्तर का सर्वांगीण विकास करने की ओर अग्रसर है।
इन सब के बीच बस्तर में दशकों से जनजातीय ज्ञान परंपरा पर कार्य कर रहे वैद्यों को भी शासन प्रशासन ने उचित सम्मान दिया है। इन वैद्यों के सम्मान के कारण स्थानीय जनजातियों का विश्वास भी प्रशासन ने जीता है, साथ ही उनकी प्राचीन परंपराओं को आगे बढ़ाने में भी सहयोग किया है।
लेकिन माओवादी आतंकी संगठन जनजातियों के इन प्राचीन वनौषधियों की ज्ञान परंपराओं की वैश्विक ख्याति से इतना तिलमिला उठा है कि बस्तर संभाग के अंदरूनी क्षेत्रों में वैद्य के रूप में कार्य कर रहे जनजाति ग्रामीण पर झूठे आरोप लगाते हुए उन्हें जान से मारने की धमकी दी है।
जिस वैद्य को मारने की धमकी माओवादियों ने दी है, उनका नाम हेमचंद मांझी है। हेमचंद मांझी बीते 5 दशकों से स्थानीय ग्रामीणों का वनौषधियों से उपचार कर रहे हैं। उन्हें जनजातीय ज्ञान परंपरा के संरक्षण एवं समाज कल्याण के लिए भारत सरकार ने पद्मश्री से सम्मानित किया है। लेकिन अब उनके सामने विकट स्थिति आ गई है।
नारायणपुर के छोटेडोंगर के निवासी हेमचंद मांझी को लोग वैद्यराज के नाम से पुकारते हैं। इन्हीं वैद्यराज को माओवादियों की पूर्वी बस्तर डिविजनल कमेटी की ओर से जारी प्रेस नोट में धमकी दी गई है। धमकी देते हुए माओवादियों ने लिखा है कि 'पुलिस सुरक्षा में गांव से कब तक बाहर रहोगे ?'
दरअसल वैद्यराज हेमचंद मांझी बीते 5 दशकों से वनौषधियों की विद्या के माध्यम से स्थानीय ग्रामीणों का उपचार कर रहे हैं। शहरों एवं अन्य राज्यों से भी लोग उनके पास उपचार कराने आते रहे हैं।
उनका कहना है कि दशकों पूर्व बस्तर की अधिष्ठात्री देवी माँ दंतेश्वरी ने उनके स्वप्न में आकर जड़ी-बूटी एवं वनौषधियों से मरीजों का उपचार करने का निर्देश दिया था, जिसके बाद से ही वो लोगों का उपचार कर रहे हैं।
इन पांच दशकों में मांझी ने हजारों मरीजों को ठीक किया है। पारंपरिक तरीके स जड़ी-बूटी के माध्यम से वो दवाई देते हैं, जिनके शोध के लिए उन्होंने अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया है।
दशकों तक वैद्यराज हेमचंद मांझी ने नारायणपुर जिले के छोटे डोंगर क्षेत्र में ही इलाज किया, लेकिन जब भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से सम्मानित करने की घोषणा की और जनजाति समाज की इस विशिष्ट ज्ञान परंपरा को लेकर राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चाएं हुईं, तब माओवादियों को अपने सुरक्षित ठिकाने में 'दुनिया की नजर पड़ती' दिखाई दी।
इसे रोकने के किए माओवादियों जनजातीय ज्ञान परंपरा का संरक्षण कर रहे वैद्यराज के परिवार को निशाना बनाना शुरू किया। हेमचंद मांझी के भतीजे कोमल मांझी की हत्या माओवादियों ने की। इसके बाद मांझी ने बताया कि उनके अन्य रिश्तेदारों की हत्या भी माओवादियों द्वारा की गई।
इन सब के बीच मई 2024 में माओवादियों ने छोटेडोंगर में स्थित दो मोबाइल टॉवर में आग लगाने के बाद क्षेत्र में पर्चा फेंककर हेमचंद मांझी के लिए धमकी दी थी। इसके बाद सरकार ने सुरक्षा की समीक्षा करते हुए उन्हें वाय श्रेणी की सुरक्षा प्रदान की थी।
माओवादियों द्वारा भतीजे की हत्या के बाद से ही हेमचंद गांव छोड़कर नारायणपुर जिला मुख्यालय में रह रहे हैं, जहां प्रशासन ने उनके रहने की व्यवस्था की है। मांझी का कहना था कि उनके पास गरीब लोग जड़ी-बूटी लेने आते हैं। उपचार नहीं मिलने से उनकी मौत हो जाती है। लेकिन माओवादी आतंक के कारण वो अब दवाई देना भी छोड़ देंगे। उन्होंने भय और दबाव के कारण पद्मश्री पुरस्कार लौटाने की इच्छा भी जाहिर की थी।
आज स्थिति ऐसी है कि हेमचंद अपने घर, अपने गांव, अपनी जन्मभूमि में नहीं जा पा रहे हैं। माओवादी आतंक के कारण उन्हें सुरक्षा के घेरे में नारायणपुर में ही अपना कार्य करना पड़ रहा है।
वो नारायणपुर में मरीजों को देखते हैं, लेकिन उन्हें दवाई लेने के लिए मांझी के गांव ही जाना पड़ता है, जहां उनके बेटे दवाई देते हैं। हालांकि उनका पूरा परिवार डरा हुआ है, और कह रहा है कि अब उन्हें इस वैद्य के कार्य को छोड़ देना चाहिए।
माओवादी आतंक का ये एक ऐसा घिनौना रूप है जो कभी राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मीडिया में चर्चा का विषय नहीं बनता। ऐसी ही परिस्थितियों के कारण कई बार स्थानीय ग्रामीणों को उपचार नहीं मिल पाता और गंभीर बीमारी नहीं होने पर भी ग्रामीणों की मौत हो जाती है।
ऐसे मरीजों की सेवा करने वाले वैद्य को भी माओवादी रोक देना चाहते हैं, मार देना चाहते हैं, क्योंकि वो बस्तर की उस प्राचीन आरण्यक संस्कृति की ज्ञान परंपरा के संवाहक है, जिसका विरोध कम्युनिस्ट हमेशा से करते आये हैं।