बस्तर के छिंदावाड़ा गांव में, जहां ईसाई व्यक्ति के शव दफन को लेकर तीन सप्ताह तक विवाद चला और मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया, उसी गांव में जाकर द नैरेटिव की टीम ने ग्राउंड रिपोर्ट तैयार की है। यह ग्राउंड रिपोर्ट कुछ भागों में है, जिसमें घटना की जानकारी, ग्रामीणों की मांग, ईसाई पक्ष की मांग और कानूनी पहलू पर विस्तृत रिपोर्ट है, जिससे पूरे मामले को समझने में आपको सुविधा हो। इस ग्राउंड रिपोर्ट के लिए हमने गांव के जनजातीय ग्रामीणों, माहरा समाज के ग्रामीण, ईसाई पक्ष (याचिकाकर्ता), पुलिस अधिकारियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, राजनीतिक जन प्रतिनिधियों एवं वकीलों से बात की है। पढ़िए बस्तर से ग्राउंड रिपोर्ट का दूसरा भाग।
छिंदावाड़ा गांव में ऐसा विवाद हुआ कि मामला सुप्रीम कोर्ट तक चला गया, लेकिन जब फैसला आया उसके बाद भी द नैरेटिव की टीम ने छिंदावाड़ा के ग्रामीणों और ईसाई पक्ष, दोनों से संपर्क करने का प्रयास किया। ईसाई पक्ष ने हमसे बात नहीं की, वहीं दूसरी ओर ग्रामीणों का कहना था कि 'गांव का मान बच गया, जनजातियों का मान बच गया।'
आज द नैरेटिव की बस्तर से की गई ग्राउंड रिपोर्ट की दूसरी स्टोरी में हम उन सभी तथ्यों पर अधिक जोर देंगे जिसके तहत मृतक ईसाई पादरी के बेटे रमेश बघेल ने सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में याचिका लगाई थी।
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याचिका में ईसाई पादरी के बेटे रमेश बघेल द्वारा कहा गया कि वह 'तीसरी पीढ़ी का ईसाई' है, लेकिन इसकी वास्तविकता जमीन में कुछ और ही है। द नैरेटिव के संपादक ने ग्रामीणों से जब इस तथ्य की जानकारी ली, तब ग्रामीणों ने बताया कि रमेश बघेल के दादा ईसाई नहीं थे, बल्कि वह रूढ़ि प्रथा को मानने वाले सनातनी थे।
गांव वालों ने बताया कि रमेश बघेल के दादा गांव में होने वाले देवी-देवता पूजा में 'मोहरया' या 'मौर्या' के रूप में सेवा देते थे। इसका अर्थ होता है, देवी उपासना के दौरान मोहरी (वाद्य यंत्र) बजाने वाला। अब प्रश्न यह उठता है कि जो व्यक्ति देवी पूजा में पारंपरिक वाद्य यंत्र बजाता हो, वह ईसाई कैसे हो सकता है ?
अब इस प्रश्न का उत्तर लेने जब द नैरेटिव की टीम ने रमेश बघेल से बात की, तो उनका जवाब भी संतुष्टिजनक नहीं था। उनसे हमने पूछा कि यदि आपके दादाजी ईसाई थे, तो वो कब ईसाई बने ? कोई साल वगैरह उन्हें याद है क्या ? तब रमेश बघेल का उत्तर था कि 'मुझे इसकी जानकारी नहीं है।' क्या ये सच हो सकता है ? क्या इसकी कोई जानकारी सच में रमेश बघेल के पास नहीं होगी ?
कोर्ट में दायर याचिका में रमेश बघेल ने कहा कि 'गांव वाले शव दफन का विरोध कर रहे हैं, साथ ही उन्हें धमकाया भी जा रहा है।' इसके अलावा यह कहा गया कि निजी जमीन में शव दफनाने का भी विरोध किया जा रहा है, वहीं स्थानीय ग्राम पंचायत से भी कोई सहयोग नहीं मिल रहा। इस तथ्य की जांच के लिए हमने गांव वालों से भी चर्चा की और रमेश बघेल से भी बात की।
गांव वालों का कहना है कि उन्होंने कभी भी मृतक के शव दफनाने का विरोध नहीं किया। उनका केवल यह कहना है कि शमशान हिंदु माहरा जाति एवं रूढ़ि प्रथा-परंपरा को मानने वालों के लिए आवंटित है, ऐसे में यहां शव दफन की प्रक्रिया रूढ़ि प्रथा-परंपरा के अनुसार ही होनी चाहिए। गांव के लोगों ने कहा कि यदि रमेश बघेल रूढ़ि परंपरा के अनुसार शव दफन करता है, तो उन्हें कोई आपत्ति ही नहीं है।
वहीं इस विषय को लेकर जब रमेश बघेल से हमने पूछा कि "ग्रामीणों का कहना है कि रूढ़ि प्रथा के अनुसार दफनाने वालों के लिए ही मरघट आवंटित है।" तब रमेश बघेल ने उत्तर देने के बजाय 'हिंदु-मुस्लिम-सिख-ईसाई', 'धर्मनिरपेक्षता', 'सरकार', 'कटाक्ष' एवं अन्य विषयों को लाते हुए 'गोल-मोल' जवाब देने का प्रयास किया, लेकिन अपने ही द्वारा सुप्रीम कोर्ट में डाले गए विषय का कोई संतोषजनक उत्तर उनके पास नहीं था।
ईसाई याचिकाकर्ता रमेश बघेल ने कोर्ट में यह भी कहा कि जहां उसके पूर्वज दफन है, वहीं वो अपने ईसाई पिता को दफन करना चाहता है। इस विषय पर जब ग्रामीणों से बात हुई, तब पता चला कि रमेश बघेल के दादा का अंतिम संस्कार रूढ़ि प्रथा-परंपरा से किया गया था, जिसमें गांव वाले भी शामिल थे।
रमेश बघेल ने हाईकोर्ट एवं सुप्रीम कोर्ट में कहा कि छिंदावाड़ा में गांव में माहरा जाति (अनुसूचित जाति) के लिए निर्दिष्ट श्मशान में एक अलग से ईसाई समुदाय के लिए श्मशान निर्धारित है। लेकिन इसकी सच्चाई यह है कि गांव में ईसाई समुदाय के लिए अलग से कोई कब्रिस्तान नहीं है, हाईकोर्ट में भी यह जानकारी सामने आई थी।
बस्तर पुलिस के अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक के द्वारा दायर किए गए हलफनामे में कहा गया कि "छिंदावाड़ा गांव में ईसाई समूह के लिए अलग से कोई कब्रिस्तान नहीं है। इस बात की पुष्टि गांव के सरपंच, उप सरपंच एवं पंचों ने भी की है।"
वहीं जब द नैरेटिव ने अपनी ग्राउंड रिपोर्टिंग के दौरान गांव के उप सरपंच, पंच समेत अन्य ग्रामीणों से बात की, तो उन्होंने भी बताया कि गांव में ईसाइयों के लिए कोई कब्रिस्तान नहीं है। याचिकाकर्ता ने अपने दादा एवं चाची के निधन के बाद उनके शव दफन का उल्लेख भी किया है, जिस पर जानकारी सामने आई कि दोनों को गांव के भीतर स्थित माहरा जाति के लिए आवंटित श्मशान में ही रूढ़ि प्रथा-परंपरा के अनुसार ही दफनाया गया है।
पादरी के बेटे से हमने जो बात की, वह कई मामलों में चौंकाने वाली थी। उसने द नैरेटिव के संपादक के प्रश्नों का उत्तर देते हुए यह भी कह दिया कि 'बस्तर को मणिपुर मत बनाइए', और यह भी कहा कि 'एससी, एसटी और ओबीसी का कोई धर्म नहीं होता।'
अब सबसे बड़ी बात यह है कि रमेश बघेल को यह सब कौन सीखा रहा है ? बस्तर के इतने भीतर रहने वाले को मणिपुर पर इतनी जानकारी कैसे है ? और जहां एक आम शहरी आदमी भी हाईकोर्ट तक नहीं जा पाता, तो बस्तर के इतने अंदर तक रहने वाला ईसाई व्यक्ति रमेश बघेल सुप्रीम कोर्ट तक कैसे पहुंचा और कॉलिन गोंजाल्विस जैसे वकील कैसे मिल गए ? पढ़िए इन सब की जमीनी वास्तविकता हमारे अगले रिपोर्ट में।