एक चित्र सोशल मीडिया पर वायरल हुआ, जो कि वायरल के लिए ही सुनियोजित था। इस चित्र में बताया गया एक व्यक्ति 27 वर्ष पूर्व पत्नी से दूर चला गया था, वह इस महाकुंभ में पत्नी को मिला। साथ में चित्र लगाया गया पत्नी से चिपके एक साधु का। कोशिश है इसे महाकुंभ का प्रतिनिधि चित्र बना दिया जाए ज्यों गैस त्रासदी का बनाया था, गुजरात दंगों का बनाया गया था।
लोग भूल जाएं इस कल्पित भावुक कथा में कि कुंभ आध्यात्मिक आनंद है, हिंदुओं का सबसे बड़ा त्योहार है, भारत की आत्मा है, विविध पंथ पथिकों का समागम है जो सब सनातन हैं, भारत के हजारों आध्यात्मिक आयाम है, सबका ईश्वर अलग होके भी सबमें सबकी समात है, सनातन का सत्य है।
अब बात चित्र और इसके साथ थ्रेड की गई कहानी की। अव्वल तो यह सत्य नहीं है, दूसरी बात यह प्रॉपगेंडा लेफ्ट मीडिया का है। साधुओं का यूं महिला से लिपटे हुए इस काल्पनिक चित्र को वायरल करके साधुओं को विभिन्न मंचों पर बदनाम करने की साज़िश है।
तीसरी बात आज के इस महा संवाद, मल्टीपल सिटीजन डेटा के युग में बिछुड़ना, मिलना महज कुछ दिन, महीनों का ही रह गया है। चौथी बात अगर सब सही मान भी लें तो भी 27 वर्ष महापापी भी अगर साधु के भेस में रहे तो उसमें कुछ साधुत्व तो आ ही आ जाता है। वह यूं पत्नी से चिपक कर साधुत्व को नहीं लजा सकता।
लोग इस कुत्सित चाल को न समझ पाए। यह सिर्फ़ इस चित्र को महाकुंभ का प्रतिनिधि चित्र बनाने की कोशिश है और कुछ भी नहीं। ताकि दुनिया साधुओं को महिलाप्रेमी के रूप में याद रखें, कुंभ को बिछड़ने-मिलने के केंद्र के रूप में।
जैसा कि बॉलीवुड फ़िल्मों में होता रहा कुंभ में बिछड़ते थे सिर्फ़ और कोई डुबकी नहीं। हमारे अवचेतन में बिठाया गया कुंभ मतलब भीड़ न कि धार्मिक, आध्यात्मिक ऊंचाई। इस मंतव्य को भांपिए और इस कुचक्र को भेद डालिए।
लेख
बरुण सखाजी श्रीवास्तव
वरिष्ठ पत्रकार