पश्चिम बंगाल की एक जगह है जहाँ गंगा की दो धाराएं हुगली और पद्मा समंदर में जाकर मिलती हैं। यहीं है एक सुनसान सा दलदली द्वीप मरीचझांपी। इसी जगह पर तत्कालीन ज्योति बसु की वामपंथी सरकार ने हजारों हिन्दू शरणार्थियों को सिर्फ इसीलिए मार दिया था, क्योंकि उन्होंने भारत के विभाजन के खिलाफ मतदान किया था।
इसकी कहानी शुरू होती है भारत के विभाजन से। भारत का विभाजन ऐसी दर्दनाक घटना है जिससे मिले घाव कभी भरे नहीं जा सकते। भारत जिसे मातृभूमि माना जाता है उसे टुकड़ों में बांट दिया गया। तत्कालीन नेताओं और जिहादी मानसिकता के लोगों ने अपने निजी स्वार्थ के लिए देश का विभाजन करा दिया।
विभाजन भारत के दोनों ओर हुआ था। पूर्व और पश्चिम। पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान। ट्रेन से भरकर लाशें आ रही थी। पश्चिमी पाकिस्तान के हिस्से में कुछ वक्त में स्थिति कुछ सामान्य हुई लेकिन पूर्वी क्षेत्र जलता रहा। इसी वजह से विस्थापन की जो प्रक्रिया पश्चिम में थम चुकी थी वह पूर्व में लगातार होती रही।
बांग्लादेश से धार्मिक रूप से उत्पीड़न झेलने के बाद बांग्लादेशी हिन्दू भारत में शरण लेने आते गए। यह वही लोग थे जिन्होंने 1946 के मतदान के समय भारत के विभाजन के विरोध में मतदान किया था, लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी विभाजन के पक्ष में थी।
गरीबों, वंचितों और मजदूर वर्ग की पार्टी होने का दावा करने वाले वामपंथी दलों ने सत्ता में आने पर शरणार्थियों को नागरिकता देने का वादा किया। 1970 के दशक के समय बंगाल की राजनीति कुछ ऐसी ही थी, जिसमें शरणार्थियों का मुद्दा महत्वपूर्ण था। 1977 में सरकार आने के बाद वामपंथी दल ने इस बात को दोहराया भी, कि वो शरणार्थियों को नागरिकता देंगे।
सत्ता में काबिज होने वाली सीपीएम मूल रूप से मार्क्सवादी-लेनिनवादी विचार से पोषित थी। इस सरकार ने शुरुआती दौर में तो शरणार्थियों को वोट बैंक बनाने की योजना बनाई, लेकिन तुष्टिकरण की राजनीति और विभाजन के समय हिंदुओं द्वारा पाकिस्तान निर्माण का विरोध करना, उन्हें अभी भी याद था।
वहीं दूसरी ओर शरणार्थियों को यह लगा कि अब सत्ता में कम्युनिस्ट पार्टी आ चुकी है, जिन्होंने उन्हें नागरिकता देने का वादा किया है, जिसके चलते छत्तीसगढ़, दंडकारण्य, असम और अन्य क्षेत्रों में रहने वाले बांग्लादेशी हिंदुओं ने बंगाल की तरफ पलायन किया। लेकिन किसी तरह की सहायता ना होते देख उन्होंने सुनसान दलदली द्वीप मरीचझांपी में अपना ठिकाना बनाया।
इसी जगह पर उन्होंने खेती शुरू की, विद्यालय शुरू किए और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र की व्यवस्था की। लेकिन वामपंथी सरकार को 1947 में भारत विभाजन के विरोध में किए गए मतदान का बदला लेने की सनक ने इन हिन्दू शरणार्थियों के लिए मरीचझांपी को "खूनी द्वीप" बना दिया। 100 से अधिक पुलिस जहाज और 2 स्टीमर भेजकर राज्य की कम्युनिस्ट सरकार ने द्वीप की पूरी घेरे बंदी कर दी। वहाँ से आवागमन के सारे रास्ते बंद कर दिए गए।
द्वीप चारों तरफ से समुद्र से घिरा हुआ था, इसकी वजह से वहाँ पीने के पानी का एकमात्र स्त्रोत था। उसमें भी सरकारी आदेश के बाद जहर मिला दिया गया। कम्युनिस्ट सरकार के केवल इस आर्थिक घेरेबंदी के दौरान ही 2000 से अधिक लोग मारे गए थे। मरने वालों में छोटे छोटे दुधमुंहे बच्चे भी शामिल थे।
मजबूरी में हिन्दू शरणार्थी लोगों को द्वीप से निकलना पड़ा। कुछ लोगों को वहीं मार दिया गया। मार कर लाशों को समुद्र में ही फेंक दिया गया। सुंदरवन के जंगलों में लाशों को छोड़ दिया गया जिसे खाकर वहाँ के बाघ आदमखोर बन गए।
इस घटना या हम कहे इस नरसंहार का सबसे प्रमाणिक विवरण दीप हालदार की किताब द ब्लड आइलैंड में मिलता है। इस किताब में लगभग प्रत्येक घटना और प्रत्येक दिनों की गतिविधियों को शामिल किया गया है जो इस नरसंहार के विभत्स रूप को दिखाती है।
इस पुस्तक के अनुसार एक प्रत्यक्षदर्शी यह कहता है कि 14 मई से लेकर 16 मई के बीच जो घटना मरीचझांपी में हुई, वह स्वतंत्र भारत में मानव अधिकारों का सबसे खौफनाक उल्लंघन था। पश्चिम बंगाल की कम्युनिस्ट सरकार ने जबरन 10,000 से अधिक लोगों को द्वीप से पूरी तरह खदेड़ दिया था। उन असहाय लोगों के साथ बलात्कार किया गया, उनकी हत्याएं हुई और लगभग 7,000 लोग मारे गए जिसमें महिला पुरुष और बच्चे भी शामिल थे।
जनवरी 1979 में द्वीप पर बांग्लादेश से आए करीब 40,000 हिंदू शरणार्थी मौजूद थे। इस बीच बंगाल की कम्युनिस्ट सरकार ने उन्हें यहां से भगाने के लिए षड्यंत्र रचना शुरू किया। पहले तो 26 जनवरी को द्वीप में धारा 144 लगाई गई और पूरे द्वीप को 100 मोटर बोट्स के माध्यम से घेर लिया गया। दवाई, अनाज सहित सभी वस्तुओं की आपूर्ति को रोक दिया गया। इतना ही नहीं पीने के पानी के एकमात्र स्रोत पर भी जहर मिला दिया गया।
इसके ठीक 5 दिन बाद 31 जनवरी 1979 को कम्युनिस्ट सरकार द्वारा पुलिस फायरिंग का आदेश दिया गया जिसके बाद शरणार्थियों का बेरहमी से नरसंहार शुरू हुआ। प्रत्यक्षदर्शियों का या अनुमान है कि इस शुरुआती पुलिस फायरिंग में ही एक हजार से ज्यादा लोग मारे गए लेकिन सरकारी फाइल में केवल 2 मौत दर्ज की गई, यह थी उस समय की कम्युनिस्ट सरकार की हरकत।
इस दिन से कम्युनिस्ट सरकार द्वारा हिंदू शरणार्थियों का नरसंहार जिस तरह से शुरू हुआ वह मई तक चला और अंत में 10,000 से अधिक शरणार्थी मारे गए। शरणार्थियों के मकान और दुकाने कम्युनिस्ट सरकार द्वारा जलाई गईं, महिलाओं के बलात्कार हुए, सैकड़ों हत्याएं कर लाशों को पानी में फेंक दिया और जो बच गए उन्हें ट्रकों में जबरन भरकर दूसरी जगह भेज दिया गया।
यह सबकुछ जो हुआ वह जलियांवाला बाग नरसंहार के बराबर या उससे अधिक ही जघन्य था। लेकिन इस मामले को कभी मुख्यधारा की खबरों में जगह नहीं मिली। कभी वामपंथी दलों से इस मुद्दें पर प्रश्न नहीं पूछा गया। यह वामपंथ की पुरानी आदत है कि गरीबों, वंचितों, अल्पसंख्यकों के मसीहा के नाम से खुद को पेश कर गरीबों और वंचितों का ही शोषण किया जाता है।