शान्ति, उत्साह और मस्ती से भरा निश्चिन्त जीवन जीने वाले लोग दिन-रात अपनी और अपने परिवार की चिन्ता में लगे रहकर ‘दादालोगों’ की गुलामी को विवश है। शहरों में बैठे हम लोग यदि कल्पना करें कि घर से अपने काम पर निकलें और सिटीबस या मेट्रो में धमाका हो जाए, तो इस कल्पना से ही हम सिहर जाते हैं। पर बस्तर के आदिवासी रोज इस भय के साथ जी रहे हैं। खैर, "Death solves all problem. No man, No Problem." स्टालिन की इस बात को अपना आदर्श मानकर चलने वाले माओवादियों से भला अपेक्षा भी क्या ही की जा सकती है।
क्रान्ति का विचार युवा मन को खूब भाता है। यौवन में निहित ऊर्जा ऐसे विचारों के आते ही स्वयं को व्यक्त करने को आतुर हो बैठती है। सोमड़ु, जवानी की दहलीज पर खड़ा एक आदिवासी युवक। उसके साथ भी यही हुआ। जवानी की ओर कदम बढ़े ही थे कि वह माओवादी प्रोपगैण्डा में फंस कर सीपीआई (माओवादी) का कैडर बन गया, जिसे आप-हम सभी नक्सल कैडर के नाम से जानते हैं।
दूसरी ओर ऐसा ही कुछ एक आदिवासी युवती जोगी के साथ भी हो रहा था। वह भी एक माओवादी कैडर बन चुकी थी। सोमड़ु और जोगी पहली बार नक्सलियों के कैम्प में मिले। यह मुलाकात जल्द ही प्रेम में बदल गई और दोनों ने आजीवन साथ रहने का निश्चय किया।
पर माओवादी कैडर में यह सब इतना सरल नहीं है। जहाँ घृणा, द्वेष और हिंसा ही मुख्य ताकते होती हैं, वहाँ प्रेम की बेल का बढ़ पाना वैसे भी सम्भव नहीं है। दूसरे विवाहित जोड़ों की ही तरह उन्हें भी अलग कर दिया गया। और इस जोड़े के साथ आगे जो हुआ, वह जानने के लिए मैं पाठकों को युवा पत्रकार शुभम उपाध्याय की पुस्तक इनविज़िबल विक्टिम्स (Invisible Victims) पढ़ने की सलाह दूंगा।
खैर, सोमड़ु और जोगी को अलग रहना मंजूर तो नहीं था; पर माओवादी क्रान्ति का जुनून ऐसा था कि वे अलग रहने लगे। पर जब धीरे-धीरे माओवाद की असलियत उन्हें समझ आई कि आदिवासियों के अधिकारों की रक्षा के नाम पर यह आदिवासियों को अपने ही भाइयों के खिलाफ बन्दूकें तानने को विवश कर रहा है, तो पहले सोमड़ु ने आत्मसमर्पण किया और मौका पाते ही जोगी का भी आत्म समर्पण कराया।
अब वे हिंसा-द्वेष, रक्तपात आदि से मुक्त होकर सुखी दाम्पत्य जीवन जीने लगे थे। सोमड़ु अब आरक्षक था। लेकिन हिन्दी फिल्मों की तरह हर कहानी का अन्त सुखद नहीं होता। कल यानी 6 जनवरी 2025 की दोपहर सर्च ऑपरेशन से लौट रहे दन्तेवाड़ा, नारायणपुर, और बीजापुर के संयुक्तदल का वाहन माओवादियों द्वारा लगाए गए आईईडी की चपेट में आ गया।
वाहन चालक समेत 8 जवान वीरगति को प्राप्त हुए। सोमड़ु उनमें से एक था। शेष जवान भी गरीब आदिवासी परिवारों से ही थे। यह तो केवल कल की घटना की बातु हुई। यदि हम अतीत के पन्ने पलटें, तो पिछले 10-15 सालों में सोमड़ु जैसे 2 हजार से अधिक जवानों को माओवादियों ने मारा है।
और बात केवल जवानों तक भी नहीं है। आए दिन जनताना अदालतों में निर्दोष आदिवासियों को नृशंसता से मारा जा रहा है। मुझे अक्टूबर 2021 की एक घटना याद आती है। 3 अक्टूबर की सुबह समाचार पत्रों में एक माओवादियों द्वारा ग्रामीण की हत्या का समाचार छपा था। छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, ओडिशा, तेलंगाना आदि राज्यों में रहने वालों के लिए वैसे तो यह रोजमर्रा की खबर हो चली है, लेकिन वह खबर और दिनों से अलग थी।
दिन भर की थका देने वाली मेहनत के बाद बुधरा नाग अपने परिवार के साथ रात का भोजन कर आराम कर रहा था। तभी एख दर्जन से भी ज्यादा माओवादियों ने उसे घर से बाहर निकाला और पूरे परिवार के सामने कुल्हाड़ी से उसका सर धड़ से अलग कर दिया। बूढ़े माता-पिता जहाँ अपने एक मात्र सहारे को यूँ टूटता देख रहे थे, वहीं दूसरी ओर बच्चों का उज्ज्वल भविष्य उनके ही समक्ष दम तोड़ रहा था। केवल मुखबिरी के शक में यह नृशंसता भला कैसे उचित ठहराई जा सकती है?
और इस आधार पर माओवादियों को तो स्वयं से ही यह प्रश्न करना चाहिए कि असंख्य आदिवासी परिवारों के कुलदीपक इस तरह बुझाकर, असंख्य विधवाओं और और अनाथ बच्चे देकर, बूढ़े माता-पिता को बेसहारा कर वे आदिवासियों के कौन से हितों की रक्षा कर रहे हैं।
उन्हें स्वयं से पूछना चाहिए कि दुनिया को कम्युनिस्ट बनाने की भला यह कैसी सनक है, जो शान्तिपूर्ण जीवन जी रहे आदिवासियों से जीवन और स्वतन्त्रता का अधिकार ही छीन ले? पर मुझे पता है कि वे कभी नहीं पूछेंगे। "Death solves all problem. No man, No Problem." स्टालिन की इस बात को अपना आदर्श मानकर चलने वाले माओवादियों से भला अपेक्षा भी क्या ही की जा सकती है। फिर आँकड़े भी यही कहते हैं।
विश्व की एक प्रतिष्ठित संस्था South Asia Terrorist Portal की वेबसाइट पर प्रकाशित आँकड़ों के अनुसार 2019 से लेकर अबतक निरपराध ग्रामीणों को गोली मारने की ऐसी 49 घटनाएँ हो चुकी हैं, जिनमें कुल 69 लोगों की हत्या की गई है। और भारत सरकार के गृह मंत्रालय द्वारा 31 दिसम्बर 2019 को प्रकाशित आँकड़ों के अनुसार वर्ष 1999 से 2023 तक देशभर में लगभग साढ़े 8 हजार निर्दोष नागरिकों समेत 11 हजार से अधिक लोगों की हत्या इन माओवादियों ने की है।
इसके अलावा छत्तीसगढ़ के केवल बस्तर क्षेत्र में 1800 से अधिक लोग ऐसे हैं, जिन्होंने आईईडी और गोलीबारी की चपेट में अपने हाथ-पैर या अपनी आँखें गँवाई हैं। छः महीने की मासूम बच्ची मंगली का मस्तक बेधने वाली गोलियों ने बस्तर के आम जन-जीवन की शब्दावली से शान्ति और चैन बिल्कुल ही निकाल दिए हैं।
ऐसे ही, पिछले ढाई दशकों में अनेक विद्यालय, अस्पताल, पुल-पुलिया आदि इन माओवादियों ने ध्वस्त किये हैं। विकासपरक कार्यों में निरन्तर बाधा डालकर जनजातीय क्षेत्रों को शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, बुनियादी ढाँचे, जैसी मूलभूत आवश्यकताओं से वंचित रखा जा रहा है। उन्हें भारत सरकार के खिलाफ बन्दूकें उठाने पर मजबूर किया जा रहा है।
अपने सगे-सम्बन्धियों की हत्या के लिए विवश किया जा रहा है। शान्ति, उत्साह और मस्ती से भरा निश्चिन्त जीवन जीने वाले लोग दिन-रात अपनी और अपने परिवार की चिन्ता में लगे रहकर ‘दादालोगों’ की गुलामी को विवश है, ताकि बुधरा के परिवार का जो हश्र हुआ, वह कहीं उनके भी परिवार का न हो जाए।
भला यह भी कैसा विचार और कैसा वामपन्थ कि जो सोरोस जैसे पूंजीवादियों के पैसों पर पलकर गरीब आदिवासियों के जीवन को नर्क बनाता है और उसे आदिवासियों के हक की लड़ाई भी कहता है। शहरों में बैठे हम लोग यदि कल्पना करें कि घर से अपने काम पर निकलें और सिटीबस या मेट्रो में धमाका हो जाए, तो इस कल्पना से ही हम सिहर जाते हैं। पर बस्तर के आदिवासी रोज इस भय के साथ जी रहे हैं।
लेकिन सागर जैसे अथाह दर्द और पर्वत के समान अपार पीड़ा को स्वयं में समाया बस्तर निराश नहीं है, बल्कि वह और मजबूती से उठा है और अब अपनी धरती से कम्युनिस्टों के आतंकवाद के सफाए के लिए कमर कस चुका है। वह हमसे बस इतना चाहता है कि अस्तित्व के इस संघर्ष में हम सभी भारतवासी अपने बस्तरवासी भाई-बहनों का सहानुभूतिपूर्वक पूरा साथ दें!