हाल ही में दैनिक भास्कर में खबर एक छपी "ढुकू प्रथा का दंशः 22 पंचायतों में 200 बच्चे पिता के साए और मां की ममता से हो गए दूर", इस रिपोर्ट में छत्तीसगढ़ के जनजातीय समाज की ढुकु प्रथा को लेकर गंभीर आरोप लगाए गए हैं। रिपोर्ट में इसे एक कुप्रथा के रूप में दिखाया गया है, जिससे न केवल घर बर्बाद हो रहे हैं, बल्कि बच्चे माता-पिता के स्नेह से भी वंचित हो रहे हैं।
लेकिन क्या यह सच है? क्योंकि हम यह तो जानते ही हैं कि छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, झारखंड जैसे राज्यों में मिशनरियों और एनजीओ की आड़ में किए जा रहे रिसर्च जनजातीय समाज को उनकी संस्कृति और परंपरा से अलग कर कन्वर्ज़न कराने का षड्यंत्र चला रहे हैं। इसके कई उदाहरण हमने इन राज्यों में प्रत्यक्ष रूप से भी देखें हैं।
सरकार से मोटी रकम लेने का जरिया
छत्तीसगढ़ में लगभग ढाई हजार से ज्यादा एनजीओ पंजीकृत हैं। कई विदेशी और राज्य के बाहर के एनजीओ भी जनजातीय समाज को अपना शिकार बनाने के नाम पर छत्तीसगढ़ में अपना " एनजीओ कारोबार" चला रहे हैं।
पिछले कुछ वर्षों में जनजातीय क्षेत्रों में ऐसे एनजीओ की संख्या में बढ़ोतरी देखी गई है जो जनजातीय समाज को तथाकथित मुख्यधारा में जोड़ने के नाम पर सरकारों से मोटी रकम लेते है। यूं कहे तो जनजातीय समाज की परंपराओं पर आघात कर इसे कमाई का एक जरिया बना चुके हैं। इनका एक इको-सिस्टम है, जिसमें एनजीओ से लेकर तमाम अधिकारियों तक पैसे बाटें जाते हैं।
पूर्वाग्रह से छपी रिपोर्ट - “ढुकु प्रथा का दंश”
जनजातीय समाज में रूढ़ि परंपराओं का महत्वपूर्ण स्थान है। यह प्रथाएं हजारों वर्षों से जनजातीय समाज की सामाजिक व्यवस्था को बनाए हुए हैं, जिसकी बदौलत बिना किसी बाह्य सरकार की सहायता के जनजातीय समाज अपनी सामाजिक और न्याय व्यवस्था, अपने समाज के रीति-नीति (customary law) के मध्यम से चलाता आ रहा है, जिसकी स्वीकृति भारत के संविधान ने भी दी हुई है।
छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्यप्रदेश जैसे जनजातीय क्षेत्रों में ढुकु प्रथा अलग-अलग नामों से प्रचलित है। ढुकु का अर्थ है, घर में प्रवेश करना। जब कोई स्त्री, पुरुष एक दूसरे को पसंद कर लेते हैं, स्त्री उसके घर में प्रवेश कर जाती है और साथ रहने लगते हैं, इसे ढुकु प्रथा कहते है। दोनों पहले दिन से एक दूसरे की जिम्मेदारी लेकर साथ चलने लगते हैं, जब उपयुक्त समय आता है, शादी करने हेतु पैसे उपलब्ध हो जाते हैं, तब वे शादी करते हैं और परिवार, समाज के लोगों को भोज भी कराते हैं।
ढुकु प्रथा को गलत ठहराने से पहले इसके मूल स्वरूप को समझने की आवश्यकता है। यह प्रथा मुख्य रूप से उन लोगों के लिए सामाजिक समाधान रही है, जो किसी कारणवश अपने पहले विवाह संबंध को जारी नहीं रख पाते। तथाकथित आधुनिक समाज और हमारे संविधान द्वारा समाज में तलाक और पुनर्विवाह को कानूनी मान्यता प्राप्त है, तो फिर जनजातीय समुदाय में व्याप्त इस पारंपरिक पुनर्विवाह प्रथा को ‘कुप्रथा’ करार देना उचित नहीं होगा।
आज सरकार विधवा पुनर्विवाह जैसे विचारों को फैलाने में जुटी है। किसी जोड़े में पत्नी या पति के निधन पर पुनर्विवाह की बात जनजातीय समाज में सहज रूप से स्वीकार है। आज के आधुनिक युग में पुरुषों-महिलाओं के बराबर हक की बात की जाती है, लेकिन हजारों सालों से चले आ रहे, जनजातीय समाज की परंपरा में स्त्रियों और पुरुषों को दोनों को समान अधिकार प्राप्त है। चाहे विषय किसी के साथ शादी के बंधन में बंधने का हो या किसी कारणवश अलग होकर किसी और के साथ रहने का अधिकार, यह जनजातीय समाज की महिलाओं को पहले से ही प्राप्त है, जिसे पूरी दुनिया को सीखने की आवश्यकता है।
पूर्वाग्रह से ग्रसित “ढुकु प्रथा का दंश” से छपी रिपोर्ट में आप यह महसूस कर सकते हैं कि इस विषय पर केवल एक पक्षीय बात की गई है। इस प्रथा का दूसरा पक्ष भी है, कि जिन बच्चों के ऊपर से माँ का आँचल हट गया हो, उन्हें एक नई माँ मिलती है। जो पूरी जिम्मेदारी के साथ उनका लालन पालन कर बड़ा करती है, ऐसे परिवारों के संदर्भ में कोई जानकारी नहीं जुटाई गई। ढुकु प्रथा ऐसे कितने ही परिवार के लिए वरदान सिद्ध हुई होगी ? दूसरी महत्वपूर्ण बात जनजातीय समाज में अपनी जाति पंचायत होती है, जो इन विषयों को देखती है।
रिपोर्ट बनाने के लिए क्या समाज के वरिष्ठजन, उस समाज के मुखिया, इस प्रथा को जानने वालों की राय ली गई? क्या समाज के इस सकारात्मक पक्ष पर रिसर्च टीम ने कार्य किया? क्या किसी रिपोर्ट को बनाते या रिसर्च करते समय दोनों पक्षों पर विचार नहीं करना चाहिए? बिना समाज को विश्वास में लिए किसी विषय पर एक तरफा रिपोर्ट प्रकाशित करना कितना सही है? क्या नगरों में निवासरत किसी समाज से बिना पूछे ऐसी खबर छाप देने की हिम्मत क्या कोई संस्था कर सकती है?
हजारों सालों से चले आ रहे, समाज के किसी गहरे महत्वपूर्ण विषय पर तुरंत ही उसे बिना किसी वैज्ञानिक पद्धति से जाँचे बिना एक निष्कर्ष पर पहुंचा देना, एनजीओ नेटवर्क की एक गहरी चाल है। ढुकु प्रथा के बारे इस प्रथा को सिर्फ नकारात्मक नजरिए से देखना उचित नहीं होगा, क्योंकि यह जनजाति समाज की पारंपरिक सामाजिक संरचना का हिस्सा रही है, जिसमें विवाह, पुनर्विवाह और पारिवारिक दायित्वों की एक विशिष्ट परंपरा है।
रिपोर्ट में बताया गया कि इससे बच्चों के मानसिक विकास पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। यह चिंता तो सही हो सकती है, लेकिन इसका कारण केवल परंपरा नहीं है, बल्कि आधुनिक सामाजिक-आर्थिक बदलाव भी इसमें प्रमुख भूमिका निभाते हैं। पहले जनजातीय समाज में संयुक्त परिवार की परंपरा मजबूत थी, जिससे बच्चों को पर्याप्त देखभाल और सुरक्षा मिलती थी। परंतु बदलते सामाजिक परिवेश के कारण यह सामूहिकता कमजोर हुई है, जिससे कुछ परिवारों में कठिनाइयाँ उत्पन्न हो रही हैं।
जनजाति समुदायों के बुजुर्गों, पंचायतों और सामाजिक संगठनों के साथ मिलकर संवाद स्थापित करना चाहिए, ताकि उनकी पारंपरिक व्यवस्थाओं को आधुनिक आवश्यकताओं के अनुरूप ढाला जा सके।
सरकार को चाहिए कि वह इन समुदायों में शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक कल्याण की योजनाओं को मजबूत करे, ताकि किसी भी बच्चे को अपने माता-पिता से अलग होने की स्थिति में उपेक्षा का शिकार न होना पड़े। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जनजातीय परंपराओं को अपराध की तरह प्रस्तुत करने की प्रवृत्ति बंद होनी चाहिए।
किसी भी समाज की सांस्कृतिक पहचान और परंपराएँ उसके विकास की धुरी होती हैं। इनका अध्ययन और विश्लेषण संवेदनशीलता के साथ किया जाना चाहिए, न कि पूर्वाग्रहपूर्ण मीडिया रिपोर्टिंग के आधार पर। जनजातियों को अपनी परंपराओं पर निर्णय लेने का अधिकार है, और किसी भी सुधार का प्रयास संवाद, जागरूकता और समुदाय की भागीदारी के माध्यम से होना चाहिए, न कि आरोपों और निषेधाज्ञाओं के जरिए।
लेख
वेद प्रकाश सिंह
अनुसंधान प्रमुख
सेंटर फ़ॉर जनजाति स्टडीज़ एंड रिसर्च (CJSR)