"भारत में ईसाईयत और इस्लाम के आने के पश्चात् मतांतरण का सिलसिला शुरू हो चुका था। 'ईसा मसीह, बाइबिल और उनके संदेशों को न मानने वाले सभी लोग पाखंडी, विद्रोही और तिरस्कार किये जाने योग्य हैं। उसी प्रकार मोहम्मद पैगम्बर और उनके पवित्र कुरान को तथा अल्लाह को न मानने वाले सभी काफ़िर और दोजख में जाने वाले हैं। उनको बचाने का दायित्व हमारा है' ऐसा मानकर इन विधर्मियों ने भारत में ही नहीं अपितु समूचे विश्व में भयंकर उत्पात मचा रखा है।”
विराग पाचपोर द्वारा लिखित पुस्तक 'ईसाईयत का पैंतरा' में उल्लिखित यह कथन अक्षरशः सत्य है। हालांकि, ईसाईयों द्वारा हिन्दुओं व भारत के विरूद्ध छेड़ा गया यह युद्ध जनसांख्यिकीय होने की अपेक्षा वैचारिक अधिक है।
इसी संदर्भ में कुछ दिनों पूर्व 'मध्यप्रदेश परिसीमन आयोग' के पूर्व अध्यक्ष मनोज श्रीवास्त्व जी की एक सोशल मीडिया पोस्ट पढ़ने में आयी, जिसमें प्रसारवादी ईसाई शक्तियों द्वारा हिन्दुओं की वैचारिक भ्रष्टता करने को लेकर निशाना साधते हुए उन्होंने लिखा था कि
“भारत में मिशनरियों का प्रचार तंत्र वनवासी हल्क़ों में धर्म परिवर्तन के लिए यह गप्प तो बड़े आराम से फैला देता है कि ये आर्य जो थे इन्होंने तुम्हारे पूर्वज महिषासुर का वध किया। लेकिन इतिहास का वह प्रामाणिक सच वे मिशनरी छुपा जाते हैं कि ये हम थे जिन्होंने तुम्हारे बिरसा मुंडा, तुम्हारे टांट्या भील, तुम्हारे भीमा नायक, तुम्हारे कालीचरण ब्रह्मा, तुम्हारे बुधू भगत और पता नहीं किन किन का वध कराया।.............. पर क्या करें कि इतिहास को ऐसे विस्मृत करा दिया गया है कि हमारी आबादी का एक बड़ा हिस्सा अपने ही पूर्वजों और पूर्वजाओं की हत्या और बलात्कारों के असंख्य प्रसंग भुलाकर उन्हीं अत्याचारियों की आस्थाओं को आभूषण के समान पहने ही नहीं बैठा है बल्कि उसके लिए अपने ही पितरों के समधर्माओं का सिर तन से जुदा करने के लिए उद्यत है। इतिहास से वे सब ‘अप्रिय’ उल्लेख मिटाने का हिडन एजेंडा भी कहीं यह तो नहीं था कि उनका स्मरण धर्मांतरण में बाधा सिद्ध होता। इतिहास को भुलवाओ और पुराणों के बारे में भरमाओ। कन्वर्जन के लिए परफेक्ट रेसिपी।”
स्पष्ट है कि ईसाई मतांतरण की यह लड़ाई भी इस्लाम के समान ही वैचारिक, जनसांख्यिकीय एवं धार्मिक है। वामपंथियों ने अनेक वर्षों से भले ही ईसाईयत को तथाकथित प्रेम व करुणा का आवरण ओढ़ाया हो, किंतु पिछले दस वर्षों में यह आवरण अधिक हटता हुआ दिख रहा है। ईसाईयत – प्रसार और मतांतरण – का उद्देश्य प्रारंभ से लेकर चला है, इसमें कोई दो राय नहीं। इस बात का प्रमाण हमें 'ईसाईयत का नया पैंतरा' पुस्तक में प्राप्त होता है।
पुस्तक के प्रथम अध्याय में ईसाईयत के भारत में तीन प्रवेश तथ्यात्मक रूप से वर्णित हैं –
“भारत में ईसाईयत का प्रवेश कब हुआ इसको लेकर विद्वानों और अभ्यासकों में मतभेद है। कुछ लोग यह मानते हैं कि ईसा मसीह के प्रमुख शिष्यों में से एक सेंट थॉमस 52वी ईस्वी में केरल आए थे और उन्होंने कुछ नम्बूदरी ब्राह्मणों को इस नए पंथ में दीक्षित किया था, तब से केरल में ईसाईयत का प्रवेश हुआ। परन्तु ईश्वरशरण नाम के एक यूरोपीय साधु ने इस दावे का खंडन किया है। अपनी 'Myth of St. Thomas and the Mylapur Shiva Temple' नामक एक पुस्तक में उन्होंने लिखा है कि ईसाइयों ने हिन्दुओं के बीच भ्रान्ति फैलाने की योजना से इस सेंट थॉमस की दंतकथा को जन्म दिया है। इस कहानी का प्राथमिक उद्देश्य हिन्दू सामाज के ब्राह्मण वर्ग को बदनाम तथा अपमानित करना था।……… यह मान्यता है कि भारत में ईसाई लोग दूसरी शताब्दी में केरल आये और 7वीं या 8वीं शताब्दी में मुसलमान भी भारत की धरती पर पहुँच गए थे। केरल में जब ईसाई पहुँचे तब वहाँ राजा हिन्दू था और प्रजा भी हिन्दू थी। फिर भी उसने ईसाइयों को केरल की धरती पर उतरने की अनुमति दी। मकान तथा चर्च बनाने की अनुमति दी और इतना ही नहीं राजा ने तो इन्हें धर्माचरण और धर्म प्रचार की भी अनुमति दी। जब उन्हें धर्मान्तरण का स्वातंत्र्य मिला तो हिन्दू समाज को यह फल मिला कि आज केरल में करीब 25 प्रतिशत भी हिन्दू हैं और चुनावी राजनीति में इनके वोट का बड़ा महत्त्व होता है।….. इस काल में जो ईसाई केरल आए उनकी भाषा सीरियन थी और उनके पास बाइबिल ग्रन्थ नहीं था। कालांतर में वे भारतीय समाज के साथ इस कदर घुल-मिल गए कि उनका अलग अस्तित्व नाममात्र रह गया। तिलक, शिखाधारण, कर्णवेध, सूतक, पुनर्जन्म में विश्वास, गुरुजनों के द्वारा बच्चों का विद्यारम्भ इत्यादि रीति- रिवाज अपनाकर हिन्दू-ईसाई के नाते यह समाज जीता रहा।”
ईसाईयत का भारत में दूसरे प्रवेश के बारे में इस पुस्तक में वर्णित है कि —
“भारत में ईसाइयों का दूसरा समुदाय 15वीं शताब्दी के अंतिम चरण में यानि 1498 ईस्वी में वास्को- डी-गामा के नेतृत्व में आया। ईसाई धर्मगुरु पोप निकोलस ने 1455 ईस्वी में दुनिया को दो हिस्सों में विभाजित कर अपने अधीन स्पेन और पुर्तगाल के राजाओं को आदेश दिए थे कि इन प्रदेशों में जाकर ईसा मसीह के सन्देश का प्रचार करो और ईसा के साम्राज्य का विस्तार करो। अतः पोर्तुगीजों के भारत आने का प्रमुख उद्देश्य यहाँ के लोगों को ईसाई बनाना था। पोर्तुगीज इनके पहले भारत आए ईसाइयों से भिन्न थे और अधिक आक्रामक, असहिष्णु, मतान्ध, क्रूर एवं निष्ठुर थे। इन रोमन कैथोलिक मतावलंबी ईसाइयों की सेना का एक अविभाज्य हिस्सा ठाट पादरी या धर्मप्रचारक था। प्रारंभ में इन पोर्तुगीजों ने गोवा में अपना शासन प्रस्थापित किया। गोवा में किस प्रकार क्रूरतापूर्ण व्यवहार से इन ईसाइयों ने हिन्दुओं का मतांतरण किया, इसका विस्तार से वर्णन श्री अ.का. प्रियोलकर ने अपने The Goal Inquisition इस आलेख में किया है। इन्हीं पोर्तुगीजों ने केरल में हिन्दू समाज के साथ घुल-मिल चुके ईसाइयों पर दबाव बनाकर उनका रोमकरण किया और उन्हें पोप के अधीन किया। 20 जून 1599 को सिनोड़ ऑफ डायम्पिर नामक अधिवेशन में केरल के ईसाइयों का जो रोमकरण हुआ वह भारत के इतिहास में मजहबी विदेशीकरण का अव उदाहरण है।”
आगे इस पुस्तक में तीसरे प्रवेश का वर्णन करते हुए लेखक बताते हैं कि — “भारत में ईसाइयों का तीसरा प्रवाह अंग्रेजों का था। पहला सीरियन था, रोमन कैथोलिक था, तो यह तीसरा प्रोटेस्टंट या ऑग्लिकन था। कलकत्ता के समीप श्रीरामपुर में इन्होंने अपना केन्द्र स्थापित किया था ब्रिटिश शासनकाल में (1757-1947 ई.) मतांतरण के लिए जैसे सीधे प्रयास हुए उसी प्रकार अन्य कूटनीतिक उपायों का भी प्रयोग किया गया। इनमें मिशन स्कूलों की स्थापना, नयी अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था लाना और हिन्दू धर्म तथा संस्कृति का भ्रामक, अश्लील और प्रासंगिक अर्थ लगाकर हिन्दू समाज के मन में अपने धर्मग्रंथों के प्रति घृणा का भाव उत्पन्न करना इत्यादि सभी उपायों का समावेश था। हिन्दुओं का अहिन्दुकरण और अहिंदुओं का ईसाईकरण यह उनकी नीति रही।”
इस प्रकार हिंदू समाज को पतित करने के उद्देश्य के साथ तेज़ी से प्रसारित होती इन ईसाई शक्तियों हेतु विद्यालय और जनजातीय क्षेत्र अत्यंत सुगम रूप से उपलब्ध रहते हैं। अभी हाल ही में मध्यप्रदेश के विदिशा जिले के सरकारी विद्यालय में छात्रों को 'पवित्र ग्रंथ' बांटकर मतांतरित करने का मामला सामने आया।
वहीं दूसरी ओर हरियाणा में ईसाई मिशनरियों द्वारा हिंदू लकड़ियों के यौन शोषण का मामला सामने आया। इस रिपोर्ट के अनुसार “हरियाणा के एक अनाथालय से दुर्व्यवहार और जबरन धर्मांतरण की किया जा रहा था, जहां ईसाई मिशनरी इसे समाज के लिए एक धर्मार्थ सेवा के रूप में पेश कर रहे थे। यह तथ्य तब प्रकाश में आया जब अनाथालय से भाग निकली दो लड़कियों ने अपने साथ हुए अत्याचारों के बारे में बताया। उन्होंने बताया कि सिस्टर लूसी और फादर जोमेन और अरुण सहित देखभाल करने वाले लोग लगातार उनके साथ मारपीट करते थे और उनका अपमान करते थे, खासकर उनकी धार्मिक मान्यताओं को लेकर। लड़कियों ने यह भी कहा कि उन्हें ईसाई रीति-रिवाजों के अनुसार अनिवार्य रूप से प्रार्थना करने के लिए कहा गया तथा उन्होंने कभी भी अपने धर्म से संबंधित किसी भी प्रकार की पूजा-अर्चना नहीं की।”
ईसाईयों की जनसांख्यिकीय लड़ाई का आधार 'ईसाईयत का नया पैंतरा' पुस्तक में लेखक इस प्रकार बताते हैं कि — पूर्वकाल में ईसाईयत ने स्वयं को राजनीति से परे रखा था, लेकिन वर्तमान में चर्च के लिए राजनीति एक प्राथमिक सद्गुण बन चुका है। चर्च का यह मुक्ति दर्शन चार ठोस आधारों पर टिका है।
ये आधार हैं -
मार्क्सवाद और उसकी क्रांति का दर्शन,
आर्थिक साम्राज्यवाद का इतिहास और उसके परिणाम,
आधुनिक तंत्रज्ञान क्रांति
आधुनिक उदारमतवादी तथा मानवाधिकार का प्रचार
जैसा कि पहले इस आलेख में कहा गया कि ईसाई मतांतरण की यह लड़ाई भी इस्लाम के समान ही वैचारिक, जनसांख्यिकीय एवं धार्मिक है। हमने वैचारिक एवं जनसांख्यिकीय उदाहरण देखे ; अब चलते हैं धार्मिक उदाहरणों की ओर। इसी पुस्तक में लेखक बताते हैं कि — “'आल अफ्रीकन कांफ्रेंस ऑफ चर्चेस' के जनरल सेक्रेटरी कैनन बर्जेस कार का कहना है कि, "गिरे हुए इंसान को सम्मानपूर्वक जीने का अवसर उपलब्ध कराने के लिए परमेश्वर ने स्वयं हिंसा के उपयोग की अनुमति दी है।"
इन्हीं वैचारिक, धार्मिक और हिंसक आघात करने वाली ईसाई शक्तियों से जूझने हेतु कई उपाय, बहुचर्चित पुस्तक 'इनवेडर्स और इन्फिडेल्स' के लेखक, प्रसिद्ध वक्ता व 'द धर्म डिस्पेच' के मुख्य संपादक श्री संदीप बालकृष्ण जी ने अपने अंग्रेजी भाषा में लिखे आलेख में बताए हैं, वे कहते हैं कि – “सभी हिंदुओं को न केवल इसका समर्थन, सराहना और सराहना करनी चाहिए, बल्कि निम्नलिखित कदमों को भी अपनाना चाहिए :
गांवों और कस्बों में जहां पहले से ही चर्च हैं, वहां जो सिखाया जा रहा है और प्रचार किया जा रहा है, उस पर कड़ी निगरानी रखें, किसी भी संदिग्ध गतिविधि की कहानियों को व्यापक रूप से प्रसारित करें।
जहाँ संभव हो, ग्रामीणों को उन खतरों की छोटी क्लिप दिखाएं जो ईसाई परिवर्तन उनके परिवारों के लिए आवश्यक है : सबसे बड़ा खतरा उनके कम उम्र के बच्चों का बलात्कार है।
नए धर्मान्तरित को फिर से वापस लाने का हर संभव प्रयास करें; प्रत्येक सफल घर वापसी के साथ, उन्हें बताएं कि कैसे उन्हें धोखे से भूत-पूजा के पंथ में फुसलाया गया था और इन कहानियों को व्यापक रूप से प्रसारित करें।
प्रत्येक गांव को "नो मिशनरी ज़ोन" और हिंदुओं के लिए एक सुरक्षित स्थान घोषित करें।
ऐसे गांवों की तस्वीरें क्लिक करें और उन्हें व्यापक रूप से प्रसारित करें।
चर्च बनाने के लिए अपने गांव में जमीन देने के विरुद्ध संकल्प लें।
ऐसा नियम बनाएं कि जो मिशनरीज एक गांव में जमीन खरीदने में सफल रहे हैं, उनके लिए चर्च का निर्माण करना निषेधात्मक है।
और उन गांवों में जिनके पास कार्यशील चर्च हैं, उनके लिए कार्य करना कठिन रहे, यह सुनिश्चित करें।
हिंदू त्यौहारों को भव्य रूप से एवं गर्व से मनाएं। इसमें पूरा गांव शामिल करें। एक दूसरे के साथ भोजन का आदान-प्रदान करें।
अंतिम, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण: इन गांवों में निस्वार्थ, पारंपरिक हिंदू स्वामियों और गुरुओं को प्रशिक्षित करें और भेजें। इस प्रयास में, आरएसएस और विहिप एक महत्वपूर्ण और महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं, और यदि वे इस गतिविधि को तत्काल, युद्ध स्तर पर करते हैं तो हमारे ऋषियों की स्थायी कृतज्ञता अर्जित करेंगे।
हालांकि सत्य तो यह है कि, समस्याओं का निदान करने के लिए यह आवश्यक है कि पहले समस्या के अस्तित्व में होने की स्वीकारोक्ति की जाए। हिंदू समाज को स्वयं के साथ हुए नरसंहार एवं वैचारिक रूप से हुई बर्बर हत्या को सर्वप्रथम स्वीकार करने की आवश्यकता है।
मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि अपने पूर्वजों के साथ हुए अत्याचारों को भली प्रकार जानते हुए कोई भी हिंदू बंधु कभी मतांतरित नहीं होगा, चाहे फिर बड़े से बड़ा प्रलोभन उसकी ओर बांह फैलाए ही क्यों न खड़ा हो!!!
संदर्भ
विराग पाचपोर — ईसाईयत का नया पैंतरा (पुस्तक — हिंदी भाषा)
20 July, 2024 ऑपइंडिया की रिपोर्ट (मूल अंग्रेजी में)
23-Aug-2024, द नैरेटिव की रिपोर्ट (मूल अंग्रेजी में)
श्री संदीप बालकृष्ण जी का आलेख 05 Dec 2018 (मूल अंग्रेजी में)
आलेख
परेश गुप्ता
यंगइंकर
बी.एससी, एलएलबी
युवा आयाम सह प्रमुख
प्रज्ञा प्रवाह, मध्य भारत प्रांत
ग्वालियर, मध्य प्रदेश