वामपंथ का माओवादी चरित्र

कम्युनिज्म के प्रयोग के रूप में किए गए "द ग्रेट लीप फॉरव"र्ड की विफलता के काल में समानांतर रूप से ही कम्युनिस्ट पार्टी और माओ ने कम्युनिस्ट व्यवस्था के मूल में निहित साम्राज्यवाद की अवधारणा को भी बल देना प्रारंभ किया था।

The Narrative World    07-Feb-2025   
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मार्क्स
, लेनिन और माओ के विचारों से पोषित चीनी कम्युनिस्ट पार्टी अपने स्थापना की एक शताब्दी से भी अधिक का समय पूरी कर चुकी है। अपनी स्थापना से लेकर अभी तक के इस काल खंड में पार्टी के तानाशाहों ने अवास्तविक वामपंथी/कम्युनिस्ट सिद्धांतों के जबरन अनुपालन को लेकर करोड़ों निर्दोष नागरिकों का नरसंहार किया।


यह भी कि वामपंथी विचार में अमोघ अस्त्र के रूप में माने जाने वाले दुष्प्रचार तंत्र के माध्यम से कम्युनिस्ट पार्टी ने इन नरसंहारों की वास्तविकता को भी ढँकने का प्रयास किया। माओ जेडोंग की सांस्कृतिक क्रांति एवं द ग्रेट लीप फ़ॉरवर्ड से लेकर वर्तमान में शी जिनपिंग के 'चीनी विशेषता वाले समाजवाद' के मूल में अब भी रक्तपोषित विचारधारा का फैलाव ही निहित है।


वर्ष 1921 में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना के उपरांत पार्टी के लिए सबसे बड़ी चुनौती आम चीनी जनमानस को कम्युनिस्ट विचारों से जोड़ने की थी। इसके लिए चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने अगले तीन वर्षों तक पुरजोर प्रयास किया, हालांकि इन प्रयासों के उपरांत भी जमीनी स्तर पर पार्टी चीनी जनमानस के एक बड़े वर्ग को अपने साथ जोड़ने में विफल रही।


अंततः वर्ष 1949 में पीपुल्स लिबरेशन आर्मी द्वारा बीजिंग को कब्जाए जाने के उपरांत चीन में आधिकारिक रूप से एक क्रूर, निष्ठुर एवं दमनकारी अधिनायकवादी व्यवस्था की स्थापना हुई।


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लगभग तीन दशकों के रक्तपात के उपरांत पार्टी की रक्तपिपासु विचारधारा को उसका लक्ष्य प्राप्त हुआ था। अब आने वाले वर्षो में चीनी जनमानस इस रक्तपिपासु विचार के निरंकुशता का साक्षी बनने वाला था।


कभी माओ ने कहा था कि सत्ता बंदूक की नली से निकलती है, अब सत्ता में काबिज होने के उपरांत चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की बंदूकें अपने ही नागरिकों का खून बहाने को तैयार थी।


“चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ढाई दशक के रक्तपात के उपरांत सत्ता पर काबिज हुई थी और सत्ता पाने के अगले ढाई दशकों में दुनिया ने यह देखा कि कैसे हिंसा के बल पर कम्युनिस्ट समाज बनाने की सनक ने करोड़ो लोगों को काल के गर्त में पहुंचा दिया। कम्युनिस्ट पार्टी अपने रक्तरंजित उद्देश्यों की अभिपूर्ती के लिए सतत नरसंहारों में लीन थी। यह वामपंथ का माओवादी चरित्र था।”


कम्युनिज्म के प्रयोग के रूप में किए गए "द ग्रेट लीप फॉरव"र्ड की विफलता के काल में समानांतर रूप से ही कम्युनिस्ट पार्टी और माओ ने कम्युनिस्ट व्यवस्था के मूल में निहित साम्राज्यवाद की अवधारणा को भी बल देना प्रारंभ किया था।


माओ ने इसकी शुरुआत वर्ष 1959 तक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में स्थापित तिब्बत के ऊपर आक्रमण करके की। ल्हासा की सड़कों पर कम्युनिस्ट सिपाहियों द्वारा स्थानीय लोगों का रक्त बहाया गया। तिब्बती समुदाय के धार्मिक स्थलों को नष्ट किया गया, उन्हें जबरन चीनी अधिनायकवादी सत्ता व्यवस्था के अधीन आने को बाध्य किया गया।


परिणामस्वरूप अथक संघर्ष के उपरांत भी तिब्बती जनविद्रोह बर्बर तानाशाही सैन्य इकाई के समक्ष टिक न सका और अंततः तिब्बतियों के धर्मगुरु दलाई लामा ने लाखों तिब्बतियों के साथ भारत में शरण ली।


तिब्बत पर 'कथित समानता' की बात करने वाले कम्युनिस्ट तानाशाह का शासन था और वहां के मूल निवासी भारत में निर्वासन झेलने को बाध्य किए गए थे। यह व्यवहारिक रूप से पार्टी के साम्राज्यवादी अभियान की पहली सफलता थी जिसने माओ को 3 वर्षों के भीतर ही भारत पर सैन्य आक्रमण करने के लिए उकसाया।


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माओ ने इस दौरान "फ़ाइव फ़िंगर्स एंड अ पॉम" का सिद्धांत रखा था। इसका अर्थ था कि तिब्बत चीन की हथेली है, और नेपाल, भूटान लद्दाख, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश उसकी पाँच उँगलियाँ हैं। माओ इन सभी पर कब्जा करना चाहता था।


वर्ष 1962 की सर्दियों में कम्युनिस्ट साम्राज्यवादी चीनी सेना ने माओ की नीति, जिसकी पांच उंगलियों में से एक लद्दाख भी था, पर पूरी शक्ति से अमल करना शुरू किया और भीषण संघर्ष के उपरांत भारत के अक्साई चीन समेत लद्दाख के एक बड़े भूभाग पर कब्जा कर लिया।


विपरीत परिस्थितियों में भारतीय रणबांकुरों ने चीनी कम्युनिस्ट सेना को कड़ी टक्कर दी और अंततः एक महीने के भीतर ही माओ को युद्ध विराम के लिए बाध्य होना पड़ा। हालांकि तब तक कम्युनिस्ट पार्टी ने इस युद्ध के अपने तात्कालिक लक्ष्यों की अभिपूर्ती कर ली थी।