मार्च 1959 : तिब्बतियों की स्वतंत्रता को कुचल कम्युनिस्टों ने किया नरसंहार

1959 में हुई यह घटना इस बात को स्पष्ट रूप से बताती है कि किस तरह चीनी कम्युनिस्ट सरकार ने एक स्वतंत्र देश पर कब्जा कर वहां के मूल निवासियों को अपने ही मातृभूमि से निर्वासित कर दिया और उनकी परंपराओं, रीतियों, संस्कृतियों और सभ्यताओं को कुचलने में आज भी लगा हुआ है।

The Narrative World    17-Mar-2025   
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वर्ष
1959 और मार्च का महीना, जगह थी 'रूफ ऑफ द वर्ल्ड' के नाम से प्रसिद्ध तिब्बत की। इस दौरान तिब्बत की जनता ने चीनी कम्युनिस्ट सरकार को पहली बार जनाक्रोश का अहसास करवाया था।


पहली बार चीनी कम्युनिस्ट पार्टी को यह पता चला था कि तिब्बती नागरिक अपनी मातृभूमि, अपनी जन्मभूमि की स्वाधीनता के लिए किस हद तक संघर्ष कर सकते हैं। इसी दौरान दलाई लामा के नेतृत्व में हजारों तिब्बतियों ने चीनी कम्युनिस्ट तानाशाही के विरुद्ध क्रांति की मशाल जलाई थी। दलाई लामा को षड्यंत्रपूर्वक फंसाने की रणनीति बनानके वाले चीनी कम्युनिस्ट अधिकारियों को तिब्बती विद्रोह का सामना करना पड़ा था।


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इसी विद्रोह के दौरान चीनी कम्युनिस्टों ने हजारों तिब्बतियों का नरसंहार कर दिया था और अंततः तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा को निर्वासित होकत हजारों तिब्बतियों के साथ भारत आना पड़ा था। इस मार्च के महीने की 10 तारीख को तिब्बती नागरिक पूरी दुनिया में तिब्बत नेशनल अपराइजिंग डे के रूप में मानाते हैं।


दरअसल आज जिस तरह से चीन ने पूरे तिब्बत पर अपना कब्जा कर रखा है, 1950 से पूर्व में ऐसी परिस्थितियां नहीं थीं। इससे पहले तिब्बत सैकड़ों वर्षों से संप्रभुता के साथ स्वतंत्र राष्ट्र था और यहां की परंपराएं, सभ्यता और संस्कृति पूरे विश्व में आकर्षण का केंद्र थीं।


पूरे तिब्बत में तिब्बती नागरिक स्वतंत्रता से अपने परंपराओं का निर्वहन कर रहे थे। लेकिन चीनी कम्युनिस्ट समूह से यह देखा नहीं गया। वर्ष 1949 में चीन में कम्युनिस्ट पार्टी का शासन स्थापित होने के बाद कम्युनिस्ट तानाशाह माओ ज़ेडोंग से सबसे पहले तिब्बत पर कब्जा करने की योजना बनाई।


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माओ ज़ेडोंग ने इस दौरान 'पाम एंड फाइव फिंगर्स' अर्थात हथेली और पांच उंगलियों का सिद्धांत दिया, जिसके तहत वो चीन के अलावा अन्य हिस्सों पर कब्जा करना चाहते थे। कम्युनिस्ट तानाशाह माओ ज़ेडोंग के इस सिद्धांत के अनुसार हथेली का अर्थ तिब्बत से और पांच उंगलियों का अर्थ लद्दाख, नेपाल, सिक्किम, भूटान और अरुणाचल प्रदेश से था, जिसे कब्जा करने की कोशिश चीनी कयुनिस्टों ने की।


माओ ज़ेडोंग के इसी सिद्धांत के चलते चीनी कम्युनिस्ट सरकार ने सत्ता हासिल करने के तत्काल बाद अपनी कम्युनिस्ट सेना को तिब्बत पर कब्जा करने के लिए रवाना कर दिया। उत्तरी तिब्बत (आमडो) क्षेत्र में जहां कभी तिब्बती सेना पेट्रोलिंग करती थी, वहां चीनी कम्युनिस्ट सेना ने कब्जा कर लिया।


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इस दौरान तिब्बत की सेना ने चीनी कम्युनिस्ट सेना का जमकर मुकाबला किया लेकिन अंततः हार गई। इसके बाद वर्ष 1950 के अक्टूबर महीने में हजारों की संख्या में चीनी कम्युनिस्ट सेना को तिब्बत में पूरी तरह से कब्जा करने के लिए भेजा गया।


19 अक्टूबर तक तिब्बत के चामडू शहर को चीनी कम्युनिस्ट सेना ने अपने कब्जे में ले लिया। इस दौरान चीनी कम्युनिस्ट तानाशाही सरकार ने तिब्बत के प्रशासन को लगभग कुचल दिया और दबाव बढ़ाते हुए तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा से विवादित समझौते पर हस्ताक्षर कराया जिसके बाद तिब्बत चीन का हिस्सा बन गया। 23 मई 1951 को समझौते पर हस्ताक्षर किया गया था।


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हालांकि दलाई लामा ने कभी इस समझौते को स्वीकार नहीं किया और उन्होंने कहा कि यह हस्ताक्षर जबरन दबाव बनाकर कराया गया था। दरअसल चीनी कम्युनिस्ट सरकार ने जब दलाई लामा से यह हस्ताक्षर करवाया था तब उनकी आयु मात्र 15 वर्ष की थी।


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पूरे तिब्बत में आम नागरिक इस समझौते के खिलाफ थे और उन्होंने चीनी कम्युनिस्ट सरकार का विरोध करने का रास्ता चुना। चीनी कम्युनिस्टों ने पूरे तिब्बत में दमन की नीतियां अपनाई और आम तिब्बतियों की आवाज को दबाना शुरू किया जिसके बाद तिब्बतियों ने अपनी पूरी ताकत से प्रतिकार किया।


1956 से लेकर 1959 तक तिब्बतियों ने अपना विरोध अलग-अलग तरीके से दर्ज कराया। वर्ष 1959 में चीनी कम्युनिस्ट सरकार ने तिब्बत पर अपना पूरा कब्जा हासिल करने के लिए जोर लगाया तब हजारों तिब्बती सड़क पर उतर कर विरोध करने लगे। इस दौरान चीनी कम्युनिस्ट सेना ने हजारों तिब्बतियों को मौत के घाट उतार दिया।


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वर्ष 1959 के 1 मार्च को चीनी कम्युनिस्ट सेना ने नई साजिश रचते हुए दलाई लामा को ल्हासा स्थिति चीनी मुख्यालय में एक थियेटर शो देखने और चाय पीने का निमंत्रण भेजा। दरअसल इसके पीछे चीनी कम्युनिस्ट सरकार की रणनीति यह थी कि वो आम तिब्बतियों में यह संदेश दे सकें कि दलाई लामा ने तिब्बत में चीन के आधिपत्य को स्वीकर कर लिया है।


दलाई लामा ने एक निश्चित तिथि नहीं बताई जिसके बाद 7 मार्च को एक बार फिर चीनी कम्युनिस्ट सेना ने दलाई लामा से चीनी मुख्यालय आने की बात कही और इसके लिए 10 मार्च की तिथि निश्चित की। इन सबके अलावा चीनी कम्युनिस्ट सेना ने यह भी कहा कि दलाई लामा अपने अंग रक्षकों को छोड़कर उनके साथ आएं।


आम तिब्बतियों को जब इसकी जानकारी मिली तो उन्होंने इस पूरे मामले को एक बड़ी साजिश की तरह देखा और चीनी कम्युनिस्ट सेना की इस बात से तिब्बती अधिकारी भी चिंतित हो गए। जैसे ही यह जानकारी आम तिब्बती नागरिकों तक पहुंची उन्होंने 10 मार्च को नोरबुलिंगका को घेर लिया, इस दौरान लगभग 30 हजार तिब्बती मौजूद थे।


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इसके बाद 12 मार्च को हजारों की संख्या में तिब्बती महिलाएं सड़कों पर और ल्हासा स्थिति पोटला पैलेस के बाहर एकत्रित हुईं। इस दौरान हजारों की संख्या में तिब्बती नागरिकों ने स्वतंत्रता के लिए प्रदर्शन किया जिसका दमन करते हुए चीनी कम्युनिस्ट सेना ने तिब्बतियों का नरसंहार कर दिया।


23 मार्च को चीनी कम्युनिस्ट सैनिकों ने तिब्बती बौद्धों के पवित्र जोखंग मंदिर में चीनी झंडा फहराकर उसपर कब्जा कर लिया। 26 मार्च को दलाई लामा ने तिब्बत को एक स्वतंत्र मुल्क घोषित किया और 31 मार्च को भारतीय सीमा पार कर उन्होंने अरुणाचल प्रदेश के तवांग मठ में कुछ दिन बताएं।


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दरअसल 1959 में हुई यह घटना इस बात को स्पष्ट रूप से बताती है कि किस तरह चीनी कम्युनिस्ट सरकार ने एक स्वतंत्र देश पर कब्जा कर वहां के मूल निवासियों को अपने ही मातृभूमि से निर्वासित कर दिया और उनकी परंपराओं, रीतियों, संस्कृतियों और सभ्यताओं को कुचलने में आज भी लगा हुआ है।


तिब्बतियों का नरसंहार करने से लेकर उन्हें जबरन प्रताड़ित करने और उनकी संस्कृति का समूल नाश करने में आज भी चीनी कम्युनिस्ट सरकार सक्रिय है। मार्च 1959 की यह घटना पूरे विश्व में यह संदेश देती है कि कम्युनिस्ट जहां भी होंगे, सिर्फ रक्तपात ही करेंगे।