कॉमिन्टर्न : कम्युनिस्टों का अंतरराष्ट्रीय समूह जिसमें नेहरू बने 'प्रोफेसर'

भारत में मौजूद कम्युनिस्ट पार्टी स्वयं लिखती हैं "सीपीआई अर्थात कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया" और सीपीआईएम अर्थात कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया मार्क्सिस्ट"। इनमें से कोई यह नहीं कहता था कि वो "Indian Communist Party" हैं, अर्थात भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी है। क्योंकि भारत स्थित सभी कम्युनिस्ट दल मूल रूप से सीपीआई से ही निकले हैं, जिसकी स्थापना कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के माध्यम से हाई हुई थी।

The Narrative World    05-Mar-2025   
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मार्च
, 1919. आज से ठीक 106 वर्ष पूर्व तत्कालीन सोवियत संघ की राजधानी मॉस्को के क्रेमलिन में एक विशाल अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया गया था। यह सम्मेलन कुछ ऐसा था कि इसका प्रभाव आज भी विश्व के तमाम राष्ट्रों में दिखाई देता है।


इस सम्मेलन में शामिल हुए गुट को तृतीय इंटरनेशनल (कम्युनिस्ट इंटरनेशनल) समूह का सदस्य माना गया जो कि कम्युनिस्ट ताकतों का एक अंतरराष्ट्रीय समूह था। यह सम्मेलन 2 मार्च, 1919 से लेकर 6 मार्च, 1919 तक मॉस्को में चला था।


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कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट विचारकों के द्वितीय इंटरनेशनल के विफल होने के बाद तत्कालीन सोवियत कम्युनिस्ट तानाशाह और लाखों लोगों का नरसंहार करने वाले कम्युनिस्ट तानाशाह व्लादिमीर लेनिन के द्वारा इसका गठन किया गया था।


दरअसल जब वर्ष 1917 में बोल्शेविक समूह के तथाकथित आंदोलन के दौरान सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी (CPSU) ने सत्ता हासिल की तो इसने विश्व को सत्ता हासिल करने का एक नया मार्ग दिखाया। जिस तरह से यूरोपीय साम्रज्यवाद की अर्थव्यवस्था प्रथम विश्वयुद्ध के बाद लड़खड़ाने लगी, वैसे ही वैश्विक स्तर पर आंदोलन और क्रांति की भावनाओं का विस्तार हुआ।


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इसी दौरान कम्युनिस्ट नेता व्लादिमीर लेनिन ने विचार किया कि यदि इस समय दुनियाभर में कम्युनिस्ट विचारधारा का विस्तार किया जाए तो यह यूरोपीय पूंजीवाद के विरुद्ध काफी सफल अभियान साबित हो सकता है। इसी विचार के साथ 24 दिसंबर को मॉस्को से एक रेडियो ब्रॉडकास्ट किया गया जिसमें दुनियाभर के वामपंथियों को कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के लिए आह्वान किया गया।


पहले यह अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन बर्लिन में कराने की योजना बनाई गई, लेकिन यूरोपीय गृह युद्ध और जर्मनी में लोकतांत्रिक समाजवादी सरकार के होने के कारण इसे अस्वीकृत कर दिया गया। कुछ समय के लिए इस सम्मेलन को गुप्त रूप से नीदरलैंड्स में भी कराने का विचार किया गया था, लेकिन इसे भी अंततः मना कर दिया गया।


इसके बाद जनवरी और फरवरी की तिथियों को देखते हुए मार्च में इस सम्मेलन को आयोजित करने का निर्णय लिया गया। इस सम्मेलन की शुरुआत जर्मन कम्युनिस्ट नेता कार्ल फ़्रेडरिक और रोज़ा लक्समबर्ग को श्रद्धांजलि देते हुए हुई थी।


2 मार्च, 1919 को आरंभ हुए इस सम्मेलन में कुल 22 राष्ट्रों के 35 दलों/संगठनों से जुड़े 51 लोग उपस्थित हुए। सदस्यों ने इस दौरान एक एक्सक्यूटिव कमेटी बनाने का फैसला किया और सभा ने यह भी निर्णय लिया कि एक्सक्यूटिव कमेटी एक 5 सदस्यीय समूह चुनेगी जो अंतरराष्ट्रीय गतिविधियों पर कार्य करेंगे। हालांकि ऐसा नहीं हो सका।


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कम्युनिस्टों के इस अंतरराष्ट्रीय समूह के गठन का मुख्य उद्देश्य दुनियाभर में कम्युनिस्ट विचारधारा का फैलाव करना, सोवियत संघ की तरह कम्युनिस्ट तानाशाही व्यवस्था लागू करना और तथाकथित बुर्जुआ वर्ग के विरुद्ध लड़ाई लड़ना था।


इसी उद्देश्य के साथ इसमें सोवियत संघ, ऑस्ट्रिया, हंगरी, फिनलैंड, जर्मनी, पोलैंड, एस्टोनिया, लात्विया, लिथुआनिया, बेलारूस, यूक्रेन, नीदरलैंड्स, बेल्जियम की कम्युनिस्ट पार्टियां शामिल हुई थी। इनके अलावा चेकोस्लोवाक, बुल्गारिया, रोमानिया, सर्बिया, स्वीडन, नॉर्वे, डेनमार्क, फ्रांस, स्विट्जरलैंड, इटली, स्पेन, पुर्तगाल, ब्रिटेन, आयरलैंड, अमेरिका, जापान जैसे देशों के भी समाजवादी और वामपंथी झुकाव वाले दलों ने भी इसमें भाग लिया था।


इस अंतरराष्ट्रीय समूह के गठन के बाद ही दुनियाभर में कम्युनिस्ट दलों की स्थापना की शुरुआत हुई। भारत की कम्युनिस्ट पार्टी से लेकर चीन की कम्युनिस्ट पार्टी और इटली की कम्युनिस्ट पार्टी से लेकर स्पेन की कम्युनिस्ट पार्टी तक के सभी कम्युनिस्ट दलों की स्थापना इसी कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के दिशा निर्देशों के तहत किए गए थे।


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विश्वभर में जितने भी कम्युनिस्ट नेता थे उनके लिए सोवियत संघ और उसका तानाशाह व्लादिमीर लेनिन सर्वोच्च नेता था। यही कारण है कि जब द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जर्मनी के तानाशाह एडोल्फ हिटलर और सोवियत के तानाशाह जोसेफ स्टालिन ने आपस में समझौते किए तो भारत सहित दुनियाभर के कम्युनिस्ट नेताओं ने हिटलर का समर्थन किया और ब्रिटिश ताकतों का विरोध किया। यहाँ तक कि जब पोलेंड पर हिटलर और सोवियत ने हमला कर कब्जा किया तब भी भारत के कम्युनिस्ट नेता और चीन के माओ जडोंग जैसे कम्युनिस्ट नेता इसकी आलोचना करने से दूर रहे।


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“इसके अलावा जब 1942 में भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों के द्वारा 'भारत छोड़ो आंदोलन' चलाया गया तब भारतीय वामपंथियों ने इसका विरोध किया था। इसका कारण यह था कि हिटलर ने जब सोवियत पर हमला कर दिया, तब सोवियत ने पाला बदल कर मित्र देशों के गुट के साथ समझौता किया, जिसमें ब्रिटेन भी शामिल था। यही कारण है कि भारतीय वामपंथी भी सोवियत की लाइन पर चलते हुए ब्रिटेन को अपना मित्र मानने लगे थे। हालांकि इस कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के खत्म होने का कारण भी यही बना।”


सोवियत संघ ने मित्र राष्ट्रों के साथ मिलकर द्वितीय विश्व युद्ध में हिस्सा लिया, वह कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के खत्म होने का सबसे बड़ा कारण था। यह कम्युनिस्ट इंटरनेशनल 1919 से लेकर 1943 तक चला और फिर इसे निष्क्रिय कर दिया गया। इस दौरान इसके सात सम्मेलन हुए।


अंतिम सम्मेलन 25 जुलाई, 1935 से लेकर 20 अगस्त 1935 तक चला, जिसमें 65 कम्युनिस्ट दलों ने भाग लिया था। 1919 से लेकर 1926 तक यूरोप में हुए तमाम आंदोलनों में कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के लोग शामिल थे। हालांकि इनका उद्देश्य स्पष्ट रूप से यही था कि किसी भी हालत में सत्ता हासिल करना और कम्युनिस्ट तानाशाही की स्थापना करना है।


भारत में मौजूद कम्युनिस्ट पार्टी "भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी" नहीं, बल्कि "कम्युनिस्ट इंटरनेशनल" की इकाई है


यह ध्यान देने योग्य विषय है कि भारत में मौजूद कम्युनिस्ट पार्टी स्वयं लिखती हैं "सीपीआई अर्थात कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया" और सीपीआईएम अर्थात कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया मार्क्सिस्ट" इनमें से कोई यह नहीं कहता था कि वो "Indian Communist Party" हैं, अर्थात भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी है। क्योंकि भारत स्थित सभी कम्युनिस्ट दल मूल रूप से सीपीआई से ही निकले हैं, जिसकी स्थापना कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के माध्यम से हाई हुई थी।


'प्रोफ़ेसरनेहरु और कम्युनिस्ट इंटरनेशनल


ब्रिटिश नागरिक रजनी पालमे दत्त ने लेनिन से प्रभावित होकर लेबर मंथली नामक एक पत्रिका का आरंभ किया, जिसका वो जीवन भर संपादन करते रहे। रजनी पालमे दत्त ही वो व्यक्ति हैं जिन्होंने भारत में कम्युनिस्ट पार्टी और विचार को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी और इसमें उनका साथ दिया था कांग्रेस के नेता और भारत के पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने।


“जवाहरलाल नेहरू ने रजनी पालमे दत्त को यह वचन दिया था कि वो कांग्रेस अध्यक्ष के नाते पूरी ऊर्जा एवं शक्ति से कम्युनिस्ट पार्टी को बढ़ावा देने के लिए वो सब करेंगे जो संभव हो सके।”


स्विट्ज़रलैंड के लुसान शहर में जवाहरलाल नेहरू की मुलाकात बेंजामिन फ्रांसिस ब्रैडले से हुई थी। बेंजामिन ब्रैडले एक घोर कम्युनिस्ट नेता थे, जो ब्रिटिश मूल के थे। दोनों की मुलाकात लुसान के एक अस्पताल में हुई थी, जहां नेहरू अपनी पत्नी कमला नेहरू का उपचार कराने गए थे।


जिस दौरान नेहरू और ब्रैडले की मुलाकात हुई, उसी समय वहां रजनी पालमे दत्त भी मौजूद थे। इस दौरान नेहरू और दत्त ने अस्पताल में ही तीन दिन बिताए, जिसके बाद दोनों में काफी नजदीकियां बढ़ चुकी थी। गौरतलब है कि इस मुलाकात को हमेशा संयोग कहा जाता है, लेकिन जिस तरह से इसके बाद नेहरू और दत्त के वार्तालाप सामने आए, यह संयोग से अधिक दिखाई देता है।


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एक तरफ रजनी पालमे दत्त, जो ब्रिटिश कम्युनिस्ट पार्टी के दिमाग थे, वहीं दूसरी ओर जवाहरलाल नेहरू, जो भारत में बड़े नेता के रूप में स्थापित किए जा रहे थे, और दोनों के बीच की एक कड़ी, वो थी ग्रेट ब्रिटेन। इस पूरे मुलाकात पर कांग्रेस पार्टी के वर्तमान राष्ट्रीय महासचिव एवं संचार विभाग के प्रमुख जयराम रमेश ने लिखा है कि 'रजनी पालमे दत्त ने ब्रैडले की बीमारी का बहाना बनाकर नेहरू से मुलाकात की थी, जिसके बाद उन्होंने कम्युनिस्टों के अंतरराष्ट्रीय मंच कॉमिन्टर्न को एक रिपोर्ट भेजी थी।


इस रिपोर्ट में कहा गया कि दत्त की नेहरू से 16 घंटे बातचीत हुई थी। इस बात की पुष्टि करता हुआ एक पत्र पूर्व भारतीय रक्षा मंत्री वीके मेनन की जीवनी में प्रकाशित है। इस पत्र से यह भी खुलासा हुआ था कि रजनी पालमे दत्त ने नेहरू का कोड नेम 'प्रोफेसर' रखा था। जयराम रमेश ने ही मेनन की जीवनी ने इस बात का उल्लेख किया है कि नेहरू से मिलकर रजनी दत्त आश्वस्त हो चुके थे कि नेहरू कम्युनिस्टों के प्रति सहानुभूति रखते हैं।