बस्तर में कम्युनिस्ट आतंकवाद अर्थात नक्सलवाद ने आम बस्तरवासियों का, आम जनजातियों का, आम ग्रामीणों का जीवन नर्क से भी बदतर कर रखा है, लेकिन यह कम्युनिस्ट प्रोपेगेंडा का ढाल ही है, जो देश की मीडिया में इस विषय पर कोई चर्चा नहीं होती।
नक्सलवादी आतंकियों ने अपने इसी आतंक को दोहराते हुए 2 गांव के 8 परिवारों को उनकी अपनी ही जमीन से बेदखल कर दिया है। अपनी भूमि पर शरणार्थी बनने पर मजबूर कर दिया है। 17 से अधिक लोग बेघर हो गए हैं।
बस्तर की जीवनदायिनी इंद्रावती नदी के पार अबूझमाड़ में दंतेवाड़ा, बीजापुर और नारायणपुर जिले की सीमा में दो गांव मौजूद हैं, जिनका नाम है कोहकवाड़ा और तोड़मा। इन दोनों गांवों की स्थिति ऐसी है कि अभी भी यह नक्सली-माओवादी आतंक से घनघोर प्रभावित है।
यहां कभी भी नक्सली आ जाते हैं, कभी भी ग्रामीणों का शोषण करते हैं और कभी भी उन्हें धमकाने भी लगते हैं। गौरतलब है कि इस गांव में माओवादियों का आतंक ऐसा है कि यहां नक्सली अपनी जनअदालत (फर्जी कंगारू कोर्ट) भी लगाते हैं। और इसी फर्जी जनअदालत में नक्सलियों ने फरमान सुनाकर 8 परिवारों से 17 से अधिक ग्रामीणों को गांव छोड़कर भागने का निर्देश दिया है।
2 दिन पहले (मार्च, 2025 के पहले सप्ताह में) नक्सलियों का एक बड़ा समूह हथियारों के साथ कोहकवाड़ा और तोड़मा पहुँचे थे। गांव पहुंचकर इन नक्सलियों ने ग्रामीणों के सामने अपनी फर्जी जनअदालत लगाई। करीबन 40-50 हथियारबंद नक्सलियों को देख ग्रामीण डर चुके थे और उनके सामने नक्सलियों की बात सुनने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं था।
नक्सलियों ने अपनी फर्जी जनअदालत लगाई, जिसमें ना कोई वकील होता है, ना कोई दलील होती है, और ना ही कोई अपील होती है, और इस फर्जी जनअदालत में दोनों गांव के 8 परिवारों पर पुलिस मुखबिरी का आरोप लगाया। माओवादी कहने लगे कि ये ग्रामीण पुलिस के मुखबिर हैं, जिनके कारण थुलथुली में हुई मुठभेड़ में 38 नक्सल आतंकी मारे गए।
नक्सलियों ने इन फर्जी आरोपों को ग्रामीणों के सामने रखते हुए तुगलकी-तालिबानी फरमान जारी किया कि ये 8 परिवार तत्काल गांव छोड़कर निकल जाएं, नहीं तो इन्हें मार दिया जाएगा।
नक्सल आतंकवाद को अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में देखने वाले वो ग्रामीण जानते थे कि यदि नक्सलियों की बात नहीं मानी गई, तो उन्हें मार दिया जाएगा, और उनकी हत्या के बाद भी देश का बुद्धिजीवी हो या मीडिया हो, उनके लिए मारे गए ग्रामीण केवल एक खबर होंगे। यही सोचकर उन ग्रामीणों ने अपने जरूरत का थोड़ा सामान लेते हुए गांव को छोड़ दिया।
गांव को छोड़ते हुए जाने से पहले अपने घर को निहारती हुई उस परिवार की बूढ़ी महिला के आंखों में आंसू थे, क्योंकि उसे यह भी नहीं पता था कि अब वह कब अपने घर लौटकर आएगी। उसे यह भी नहीं पता था कि अब वह कभी अपने घर को दोबारा देख पाएगी या नहीं। यह सब कुछ उन सभी के साथ बीत रहा था, उन सभी ग्रामीणों के साथ, जिन्हें माओवादियों ने उनकी अपनी जमीन से बेघर कर दिया। घर छूट गया, जमीन छूट गई और घर में पाले हुए पशु भी छूट गए।
नक्सलियों के फरमान से डरे-सहमे ग्रामीण कह रहे हैं कि "वो ना तो कोई मुखबिर हैं, ना ही पुलिस से उनका कोई संपर्क है, वो केवल और केवल खेती-किसानी करते हैं।" उनका पूछना है कि "अपना घर-खेत तो सब छूट गया, अब लेकिन कहाँ जाएं ? हमारी क्या गलती है ?"
बस्तर, जो 40 हजार वर्ग किलोमीटर की भूमि पर बसा हुआ क्षेत्र है, जहां नक्सल आतंकियों ने ऐसा जाल बिछाया हुआ है कि आम बस्तरवासी आज भी उस आतंक के साये में जी रहा है। कोहकवाड़ा और तोड़मा के ग्रामीणों के साथ जो हुआ है, वह ना सिर्फ आतंकवाद है, बल्कि मानवाधिकार का भी उल्लंघन है।
देश में तमाम ऐसे मानवाधिकार कार्यकर्ता बने बैठे हैं जो कभी इन्हीं बस्तरवासियों को मारने वाले नक्सल आतंकियों के मानवाधिकार की बात करते हैं, तो कभी नक्सलियों के विरुद्ध चल रहे अभियान को मानवाधिकार विरोधी बताते हैं, लेकिन आज जिस तरह से इन जनजातीय ग्रामीणों को उनकी मातृभूमि छोड़कर जाने को मजबूर किया गया है, क्या यह मानवाधिकार का उल्लंघन नहीं है ? क्या उन ग्रामीणों का मानवाधिकार नहीं है जो बस्तर में शांति से अपना जीवन यापन कर रहे हैं ?