20 अप्रैल 1979 का वह भयावह दिन आज भी मानवता को शर्मसार करता है, जब अफगानिस्तान के कुनार प्रांत में करीब 1000 निहत्थे किसानों को कम्युनिस्ट सत्ता ने गोलियों से भून डाला।
यह नरसंहार कम्युनिस्ट विचारधारा की बर्बर और अमानवीय हकीकत को उजागर करता है।
आज, उन मासूमों को श्रद्धांजलि देते हुए, हमें इस क्रूरता के खिलाफ आवाज बुलंद करनी होगी और कम्युनिस्टों की दमनकारी नीतियों को कभी न भूलने की कसम खानी होगी।
1978 में सोवियत संघ के समर्थन से अफगानिस्तान में सत्ता पर काबिज हुई पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ अफगानिस्तान (PDPA) ने कम्युनिस्ट विचारधारा को जबरन थोपने की कोशिश की।
समाजवाद के नाम पर यह पार्टी स्थानीय संस्कृति और स्वतंत्रता को कुचल रही थी।
कुनार प्रांत, जो पाकिस्तान सीमा से मात्र 12 किलोमीटर दूर था, अपने शांतिपूर्ण किसान समुदाय के लिए जाना जाता था।
यहां के करीब 5000 लोग खेती पर निर्भर थे और अपनी परंपराओं को महत्व देते थे।
लेकिन कम्युनिस्ट सरकार की अतिवादी नीतियां उनके लिए असहनीय थीं।
20 अप्रैल 1979 को कम्युनिस्ट सरकार के लगभग 200 सशस्त्र सैनिक, जिनमें कथित तौर पर सोवियत सलाहकार भी शामिल थे, टैंकों के साथ उस गाँव में पहुंचे।
गांव वालों को एक मैदान में इकट्ठा कर कम्युनिस्ट नारे लगाने का आदेश दिया गया।
लेकिन केरला के बहादुर किसानों ने नारे लगाने से इनकार कर दिया। यह उनकी आस्था और स्वाभिमान का प्रतीक था।
कम्युनिस्ट सत्ता इसे बर्दाश्त नहीं कर सकी। जवाब में, सैनिकों ने निहत्थे पुरुषों और किशोरों पर अंधाधुंध गोलियां चलाईं।
अनुमानित 1000 से 1269 लोग इस नरसंहार में मारे गए।
इस बर्बरता की हद तब पार हुई, जब मृतकों और घायलों को जिंदा दफनाने के लिए बुलडोजर से सामूहिक कब्र खोदी गई।
कई लोग, जो सांस ले रहे थे, उन्हें भी मिट्टी में दबा दिया गया।
महिलाएं और बच्चे अपने प्रियजनों के शवों तक पहुंचने के लिए चीखते रहे, लेकिन सैनिकों ने उन्हें बेरहमी से रोका।
यह नरसंहार कम्युनिस्ट विचारधारा की उस मानसिकता का सबूत है, जो किसी भी विरोध को कुचलने के लिए किसी भी हद तक जा सकती है।
यह घटना उस समय हुई, जब अफगानिस्तान में कम्युनिस्ट सरकार और मुजाहिदीन विद्रोहियों के बीच संघर्ष चरम पर था।
केरला के लोग मुजाहिदीन का समर्थन कर रहे थे, क्योंकि वे कम्युनिस्टों की दमनकारी नीतियों से तंग आ चुके थे।
कम्युनिस्ट सरकार ने इसे विद्रोह का बहाना बनाकर पूरे गांव को निशाना बनाया।
इस नरसंहार की खबर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहुंची, लेकिन सोवियत प्रचार तंत्र ने इसे ‘पश्चिमी प्रोपेगेंडा’ बताकर दबाने की कोशिश की।
द क्रिश्चियन सायंस मॉनिटर और न्यूजवीक जैसे पत्रकारों ने बचे हुए लोगों के बयानों के आधार पर इसकी सच्चाई दुनिया के सामने लाई।
46 साल बाद भी इस नरसंहार के दोषियों को सजा नहीं मिली। 2015 में नीदरलैंड में एक संदिग्ध, सादिक अलेमयार, को गिरफ्तार किया गया, लेकिन सबूतों के अभाव में उसे रिहा कर दिया गया।
यह अन्याय उन मासूमों की आत्मा को और ठेस पहुंचाता है।
कम्युनिस्ट विचारधारा, जो स्वतंत्रता और मानवता की दुश्मन है, आज भी विभिन्न रूपों में दुनिया को नुकसान पहुंचा रही है।
भारत में भी, केरल और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में कम्युनिस्टों की हिंसक राजनीति का इतिहास रहा है।
यह नरसंहार हमें सिखाता है कि कम्युनिस्ट विचारधारा का असली चेहरा हिंसा और दमन है।
हमें उन निर्दोषों की कुर्बानी को याद रखना होगा और ऐसी विचारधारा के खिलाफ एकजुट होकर आवाज उठानी होगी।
यह सिर्फ अफगानिस्तान की कहानी नहीं, बल्कि हर उस समाज के लिए चेतावनी है, जहां कम्युनिस्ट अपनी जड़ें जमाने की कोशिश करते हैं।