तापस वेशधारी राम, जनकसुता सीता और सौमित्र लक्ष्मण को पुष्पक से उतरता देख शत्रुघ्न, कौशल्या-सुमित्रा-कैकेयी सहित सभी माताएं, गौतम, वामदेव, जाबालि, काश्यप, वशिष्ठ पुत्र सुयज्ञ सहित आठों मंत्री लपकते हुए आगे को बढ़े। परन्तु राम निश्चल खड़े रहे। उनकी दृष्टि अन्य किसी को नहीं देख रही थी, वे तो दूर टकटकी लगाए अनुज भरत को ही देख पा रहे थे।
वे भरत जो राम को देख इतने विभोर थे कि पगों को आगे बढ़ाना ही भूल चुके थे। राम, भरत को इतनी तल्लीनता से देख रहे थे कि राम की ओर बढ़ रहे अन्य सभी लोग सकुचाए से खड़े रह गए।
मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम भी प्रेम के वशीभूत हो सामान्य मर्यादा का ध्यान न रख सके। अपने गुरुजनों, माताओं को यूहीं खड़ा छोड़ वे भरत की ओर बढ़ चले। भरत ने जब श्रीराम को अपनी ओर आता देखा तो उनकी तन्द्रा टूटी और वे जैसे गौधूलि बेला में कोई बछड़ा अपनी गौ माता को वन से वापस आता देख तड़पता-उछलता हुआ पास भागा चला आता है, राम के निकट दौड़े चले आये।
श्रीराम ने अपनी भुजाएं फैला दी, परन्तु भरत ने राम की बांहों का मोह त्याग उनके चरण पकड़ लिए। कितने बड़भागी हैं वे, जिन्हें राम की खुली बाहें मिलती हैं, और कितने सौभाग्यशाली हैं वे जिन्हें राम के चरणों में लोटने का अवसर मिलता है!
राम ने उन्हें कितने ही प्रयासों के बाद उठाया और गले लगा लिया। भरत की हिचकियाँ रुक ही नहीं रही थी। श्रीराम भी भरत जैसा भावुक भक्त पा कर अपने अश्रुओं को रोक न सके। जब दोनों प्रकृतिस्थ हुए तो राम को अपनी भूल ज्ञात हुई। उन्होंने माता कौशल्या के चरण स्पर्श किए। माता सुमित्रा के चरणों में उनका सिर देर तक झुका रहा। लक्ष्मण जैसे नीतिवान पुरुष की माता श्रीराम जैसे पुरुषोत्तम के लिए वंदनीय ही होगी। उन्होंने माता कैकई की ओर देखा, और देखा माता के नेत्रों में लज्जा और गर्व का अद्भुत मिश्रण। उन्होंने झटके से माता के चरणस्पर्श किए और फिर उन्हें कसकर गले लगा लिया। माता और पुत्र ने परस्पर मूक संवाद किया और परस्पर धन्यवाद भी।
अनन्तर, श्रीराम ने उपस्थित सभी मंत्रियों के चरण स्पर्श किए। वे अपने बालसखा वशिष्ठ पुत्र सुयज्ञ के चरणों में भी झुकने को हुए परन्तु सुयज्ञ ने इसका अवसर ही नहीं दिया और बिलखते हुए श्रीराम के हृदय से लग पड़े।
कितने वर्षों बाद आज सभी के चेहरों पर हँसी खेल रही थी, सबके नेत्र बरस रहे थे। श्रीराम और लक्ष्मण ने भरत एवं अन्य का परिचय अपने सभी मित्रों से कराया। भरत ने सुग्रीव को गले लगाते हुए कहा कि हम भाई आज चार से पाँच हुए। विभीषण से गले मिलते हुए भरत ने उन्हें सांत्वना दी।
सभी औपचारिकताओं के पश्चात भरत अपने मस्तक पर अंजुली बाँधकर श्रीराम से बोले, "महाबाहो! आपने मेरी माता का आदर करते हुए यह राज्य मुझे दे दिया था। नरेंद्र, जैसे आपने मुझे दिया था, उसी तरह अब यह राज्य मैं आपको वापस करता हूँ। हे शत्रुसूदन! कौवा क्या कभी हंस की चाल चल सकता है, या कोई गदहा क्या कभी घोड़े की गति पा सकता है? मैं भी क्या कभी आपके समान राज्य का पालन कर सकता हूँ? मैंने आपकी ही आज्ञानुसार इस राज्य की सेवा की देव। अब आप हमारे राजा हों और मुझे अपने एक चाकर के रूप में स्वीकार करें। मैंने राज्य बहुत भोग लिया नरेंद्र, अब मुझे श्रीचरणों में रहने का सुख मिले। राज्य बड़े भाई का होता है, और बड़े भाई का स्नेह छोटे भाई को मिलता है। भाग्य का लेख देखिए कि जो राज्य बड़े भाई को मिलना था वह मुझ अधम को मिला और जिस बड़े भाई के प्रेम का पहला अधिकारी उससे छोटे अनुज अर्थात मेरा होना था, वह मुझसे अनुज लक्ष्मण को मिला। मुझे अनुज लक्ष्मण से ईर्ष्या होती है। प्रभु, मेरी इस हठ-प्रार्थना को स्वीकारें, सिंहासन पर आरूढ़ हों और अपने चरणों में इस दास को स्थान दें।"
भरत के यह वचन सुन श्रीराम भाव से भर गए और बहुत कुछ बोलना चाहते हुए भी भरत के प्रेम के वशीभूत हो, बोलने में असमर्थ से होते हुए मात्र 'तथास्तु' कह सकें। शत्रुघ्न ने कई नापित बुलवाए थे। परन्तु श्रीराम ने उन्हें रोककर अपने हाथों से भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न को स्नान करवाया। फिर उन्होंने किष्किंधाधिपति सुग्रीव और लंकाधिपति विभीषण को स्नान करवाया। तदन्तर जटा का शोधन कर स्नान किया, और पुष्पमाला, अनुलेपन और पीताम्बर धारण कर आसन पर बैठे।
शत्रुघ्न ने अपने हाथों लक्ष्मण का शृंगार किया। माता कैकेई ने अपने हाथों जगतजननी का मनोहर शृंगार किया। माता कौशल्या और राजा दशरथ की अन्य पत्नियों ने सुग्रीव और अन्य वानरों की सभी पत्नियों का शृंगार किया।
सारथी सुमंत सूर्य के समान देदीप्यमान रथ ले आए। श्रीराम उसपर आरूढ़ हुए। सारथी का स्थान भरत ने ले लिया। शत्रुघ्न ने छत्र पकड़ लिया। चंवर डुलाने के लिए एक ओर लक्ष्मण जी खड़े हुए तो दूसरी ओर चंवर डुलाने के लिए राक्षसराज और वानरराज लपकते हुए आगे बढ़े पर राक्षसराज का भाग्य प्रबल था। अतः सुग्रीव रथ के आगे दण्ड पकड़कर चलने लगे। हनुमान से सुझाव दिया कि वानरराज अंगरक्षक के रूप में गजराज पर चढ़कर आगे-आगे चले। सुग्रीव हाथी पर बैठे और दण्ड वज्रांगी ने पकड़ लिया। माता सीता सुग्रीव की पत्नियों संग दूसरे रथ पर चढ़ी।
उन रथों के पीछे नौ सहस्त्र गजों और अश्वों पर रीक्ष, वानर और राक्षस योद्धा चले। अयोध्या पलकों में हृदय लिए अपने राम की प्रतीक्षा कर रही थी। श्रीराम के रथ के नगरी में प्रवेश करते ही प्रजा ने हर्षोद्घोष किया। नारियों और युवतियों ने मंगलगीत गाना प्रारम्भ किया। प्रत्येक मन्दिर और प्रत्येक घरों से आती शंखध्वनि ने कैलाशपति को नृत्य करने पर विवश कर दिया। छोटे बालकों के नेत्रों से होती अश्रुवर्षा ने देवताओं को पुष्पवर्षा के लिए प्रोत्साहित किया।
अशोक, विजय और सिद्धार्थ नामक मंत्रियों ने राजमहल में श्रीराम का स्वागत किया और सब मिलकर पिता दशरथ के भवन की ओर चले। वहाँ सभी माताओं को पुनः प्रणाम कर और नेत्रों से ही अनुमति प्राप्त कर राम भरत से बोले, "प्रिय भरत, भाई सुग्रीव को मेरा वैदूर्य भवन दे दो।" इतना सुनते ही भरत सुग्रीव का हाथ पकड़कर उन्हें राम के भवन में ले गए। पीछे शत्रुघ्न ने पलंग, दीप इत्यादि की व्यवस्था कर दी।
तीनों मंत्री राम के भवन में भरत से मिलने आए और प्रार्थना की कि यथाशीघ्र सभी सागरों और नदियों का जल मंगवाया जाए, ताकि राज्याभिषेक की तैयारी हो सके। भरत कुछ कहते उसके पूर्व ही सुग्रीव ने वहां उपस्थित हनुमान, जाम्बवान, ऋषभ और गवय को आज्ञा दी कि कल प्रातः तक चारों दिशाओं के समुद्रों का जल उपस्थित किया जाए, एवं अन्य अनेक वेगवान वानरों को भारतवर्ष की प्रत्येक नदी एवं झील का जल लाने की आज्ञा दी।
अगली प्रातः सभी वानर समुद्रों, नदियों और झीलों के जल के साथ उपस्थित हुए और सभी पात्र वशिष्ठ जी को सौंप दिया।
जैसे आठ वसुओं ने देवराज इंद्र का अभिषेक किया था, आठ मंत्रियों वशिष्ठ, वामदेव, जाबालि, काश्यप, कात्यायन, सुयज्ञ, गौतम और विजय ने सीतासहित नरोत्तम श्रीराम का अभिषेक किया। पूरे विधिविधान से राज्याभिषेक सम्पन्न हुआ।
राम ने सौमित्र से कहा, "धर्मज्ञ लक्ष्मण! हमसे पूर्व महात्मा राजाओं ने जिस प्रकार चतुरंगिणी सेना के साथ इस राज्य का पालन किया था, उसी प्रकार तुम इस भूमण्डल के शासन के लिए मेरे साथ प्रतिष्ठित होओ। पिता, पितामह और प्रपितामहों ने जिस भाँति इस राज्य को धारण किया, तुम युवराज पद पर आसीन होकर मेरे समान इस राज्य को धारण करो।"
यह कदाचित प्रथम अवसर था जब सौमित्र ने अपने ईश्वरतुल्य अग्रज की आज्ञा मानने से स्पष्ट मना कर दिया। उनकी दृष्टि में युवराज पद के योग्य कोई था तो वह थे अग्रज भरत। सौमित्र के हठ और अपने राजा राम की आज्ञा के कारण भरत को युवराज पद ग्रहण करना पड़ा।
श्रीराम ने अपने भाइयों सहित अनेक वर्षों तक राज्य किया। सभी राक्षस और वानर अपने राज्यों को लौट गए परन्तु हनुमान श्रीराम को छोड़ जा न सके। माता सीता भी उन्हें पुत्रवत मानती थी।
अयोध्यावासियों के नेत्रों में वह दृश्य सदैव-सदैव के लिए चित्रित हो गया जहाँ महाबाहु श्रीराम जगतजननी सीता के साथ सिंहासन पर बैठे हैं, दाएँ-बाएँ दयालु भरत और सौमित्र लक्ष्मण चँवर डुलाते तथा पीछे छत्र पकड़े शत्रुदमन शत्रुघ्न खड़े हैं, और श्रीचरणों में प्रणाम की मुद्रा में हैं रुद्रावतार वज्रांगी।
अयोध्या धन्य हुई।