व्यक्ति, समाज व राष्ट्र की अवनतिकारी जड़: कल्चरल मार्क्सवाद

कल्चरल मार्क्सवाद: कैसे छद्म बौद्धिकता और सांस्कृतिक आक्रमण के माध्यम से वामपंथी विचारधारा समाज, परिवार, और राष्ट्र की जड़ों को कमजोर करने का प्रयास कर रही है।

The Narrative World    14-Oct-2024
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सामान्य जन के बीच अपनी विश्वसनीयता को बनाए रखने हेतु, विकिपीडिया वर्षों से तटस्थता का स्वांग रचता आया है। किंतु इस बहुचर्चित एवं तथाकथित तटस्थता वाले चेहरे के पीछे छिपे हुए एजेंडा, पक्षपात और 'चयनात्मक – भ्रामक रिपोर्टिंग' का एक जटिल मायाजाल है, जिससे दुर्भाग्यवश अधिकांश लोग अनभिज्ञ हैं, विशेषकर वे, जो विकिपीडिया को सबसे विश्वसनीय स्रोत मानते आए हैं। हाल ही में विख्यात डिजिटल मीडिया वेबसाइट 'ऑपइंडिया' ने विकिपीडिया के इस दिखावटी चेहरे का तथ्यों सहित खुलासा किया। उस रिपोर्ट के अनुसार, विकिपीडिया वामपंथियों द्वारा वित्तपोषित एक वेबसाइट है, जो प्रचुर मात्रा में हिंदू और हिंदुओं से संबंधित सभी मामलों में भारत एवं समाज के विघटन के उद्देश्य से पक्षपाती 'तथ्य' और भ्रामक जानकारी का प्रसार वर्षों से कर रही है। यदि आप विकिपीडिया पर 'कल्चरल मार्क्सिज्म' खोजेंगे, तो विकिपीडिया बड़ी चतुराई से शीर्षक में ही इसे एक षड्यंत्र सिद्धांत कहकर नकार देता है। इसके बाद, विकिपीडिया कल्चरल मार्क्सिज्म को परिभाषित करते हुए कहता है: "सांस्कृतिक मार्क्सवाद एक धुर दक्षिणपंथी यहूदी विरोधी षड्यंत्र सिद्धांत को संदर्भित करता है, जो फ्रैंकफर्ट स्कूल को आधुनिक प्रगतिशील आंदोलनों, पहचान की राजनीति और राजनीतिक शुद्धता के लिए जिम्मेदार बताता है।"
 
'कल्चरल मार्क्सिज्म' शब्द से पूरी तरह अनभिज्ञ लोग इस शब्द को अत्यंत बौद्धिक मानते होंगे; हालाँकि, जो लोग इस शब्द से परिचित हैं, वे इसे एक दुर्जेय चुनौती के रूप में पहचानने की समझ भी रखते होंगे, जिसे परास्त करना कठिन है। कल्चरल मार्क्सिज्म की दुनिया में जाने से पूर्व, आइए पहले हम मार्क्सवाद का संक्षिप्त अवलोकन करें।
 
मार्क्सवाद की तीन महत्वपूर्ण 'विशेषताएं' हैं:
 
1. यह दुनिया को दो भागों में विभाजित करता है – उत्पीड़क और उत्पीड़ित।
2. यह तीन आरआरआर (RRR) पर विशेष बल देता है – विद्रोह (रिबेल), अस्वीकृति (रिजेक्ट), और विरोध (रेजिस्ट)।
3. क्रांति केवल अर्थव्यवस्था के आधार पर लाई जा सकती है।
 
मार्क्सवाद विचारधारा का ऐतिहासिक अवलोकन यह स्पष्ट करता है कि यह एक असफल विचारधारा रही है, जिसका सटीक उदाहरण सोवियत संघ का पतन और बाद में अमेरिका की गिरावट है। हालांकि कुछ समय पश्चात, पश्चिमी बुद्धिजीवियों को यह भान हुआ कि समाज में क्रांति केवल आर्थिक आधार पर नहीं आ सकती; इसके लिए संस्कृति को मुख्य केंद्र में रखना होगा। इसलिए पश्चिमी जगत में मार्क्सवादी सिद्धांतों को नकारते हुए, 1960 के दशक में सामाजिक न्याय (सोशल जस्टिस) के नाम पर कई समाज–राष्ट्र विघटनकारी सिद्धांत उभरे। वर्ग संघर्ष सिद्धांत की निरर्थकता को समझते हुए, इन पश्चिमी 'बुद्धिजीवियों' ने संस्कृति, परिवार, परंपराओं, त्यौहारों, नैतिकता, और धर्म जैसे सामाजिक मानदंडों को अस्वीकार करने, विरोध करने, और विद्रोह करने के लिए सांस्कृतिक मार्गों के माध्यम से आरआरआर फॉर्मूला चुना, जिससे समाज को एक गहन खोखलेपन की ओर ले जाया जा सके। इस प्रकार मार्क्स के मूल सिद्धांत – आरआरआर – और सांस्कृतिक साधनों के माध्यम से नई प्रणालियों की स्थापना को 'कल्चरल मार्क्सिज्म' कहा जाता है। वैसे तो 'कल्चरल मार्क्सवाद' का हिंदी अनुवाद 'सांस्कृतिक मार्क्सवाद' होना चाहिए, किंतु संस्कृति और कल्चर के अर्थ भिन्न होते हैं, इसलिए यह अनुवाद उचित नहीं है। अब आइए कल्चरल मार्क्सवाद के बारे में और बातें जानते हैं।
 
1924 में जर्मनी के सामाजिक अनुसंधान संस्थान – जिसे प्रख्यात रूप से फ्रैंकफर्ट स्कूल के नाम से जाना जाता है – के तहत उभरी कल्चरल मार्क्सिज्म की विचारधारा को होर्खाइमर के मार्गदर्शन में स्थापित किया गया था।
 
दरअसल, फ्रैंकफर्ट स्कूल एक 11-सूत्री योजना प्रस्तुत करता है, जिसे वामपंथियों द्वारा जमीनी स्तर पर भारत के समकालीन परिदृश्य में लागू होते हुए हम स्पष्ट रूप में देख सकते हैं। वे 11 सूत्र इस प्रकार हैं:
 
1. नस्लवाद से संबंधित अपराधों की मनगढ़ंत निर्मिति करना।
2. भ्रम की स्थिति उत्पन्न करने के लिए निरंतर परिवर्तन करना।
3. बच्चों को सेक्स और समलैंगिकता की शिक्षा देना।
4. स्कूलों और शिक्षकों के प्रभुत्व को कम करना।
5. मूल देशवासियों की पहचान को नष्ट करने के लिए व्यापक घुसपैठ कराना।
6. अत्यधिक मद्यपान (शराब सेवन) को बढ़ावा देना।
7. चर्चों को खाली करना (भारत के संदर्भ में मंदिर व्यवस्था को विभिन्न प्रकार से क्षति पहुंचाना)।
8. पीड़ितों के विरुद्ध पक्षपाती और अविश्वसनीय न्यायव्यवस्था तैयार करना।
9. मीडिया पर नियंत्रण बनाए रखना।
10. पारिवारिक विच्छेदन को प्रोत्साहित करना।
 
उपर्युक्त बातों से हम देख सकते हैं कि कल्चरल मार्क्सिज्म तीन आयामों पर कार्य करता है:
 
  • विकल्प गढ़ना – किसी भी सत्य, प्रथा या वर्षों से चली आ रही सामाजिक व्यवस्था (जिसमें अब प्रशासनिक और न्यायिक व्यवस्था भी शामिल है) के किसी भी आयाम का निराधार और अंततः विनाशकारी विकल्प गढ़ना।
  • उस विकल्प से जुड़ी हुई झूठी कहानियां गढ़ना।
  • तदनंतर, अपने क्षेत्र (सेक्टर्स) के माध्यम से उसे समाज में सरलता और सुचारू रूप से लागू करना।
 
वामपंथियों द्वारा विकल्प गढ़ने की यह तकनीक हमें कई उदाहरणों में स्पष्ट रूप से देखने को मिलती है, जैसे लिंग और लैंगिकता से संबंधित मामलों में – जो कि समाज और धर्म शास्त्र से बिल्कुल विपरीत होते हैं – 2000 के दशक से कई विमर्श गढ़े जा रहे हैं।
 
इन्हीं वामपंथियों की 'जमीनी सेना' – एलजीबीटीक्यू (LGBTQ+) समुदाय, अपने अधिकारों की वकालत करते हुए अक्सर विश्वविद्यालय परिसरों और सड़कों पर लगातार विरोध प्रदर्शन करता रहता है। इन प्रदर्शनों में 'अनिवार्य रूप से' सनातन संस्कृति के विरुद्ध अपमानजनक भाषा और भड़काऊ पोस्टर शामिल होते हैं। वर्तमान स्थिति इस हद तक बढ़ गई है कि शीर्ष अदालत इस मामले पर न केवल चर्चा कर रही है बल्कि 'उनके' हक में निर्णय भी जारी कर रही है। ऐसे में द कश्मीर फाइल्स का बहुचर्चित डायलॉग स्मरण हो आता है: “.....कृष्णा सरकार भले ही उनकी हो लेकिन सिस्टम तो हमारा है!”
 
इसी प्रकार, वर्ष 2022 में कर्नाटक में उभरा एक अनूठा, अकल्पनीय, और अत्यंत निराधार 'हिजाब विवाद' – विद्यालय में सभी छात्रों द्वारा समान गणवेश धारण करने के स्थापित मानदंडों के विरुद्ध – विद्रोह का एक महत्वपूर्ण उदाहरण है, जहां गणवेश के स्थान पर इस्लाम मज़हब की लड़कियां हिजाब पहनने को उतारू थीं।
 
इसके अलावा, हिंदू ग्रंथों में निहित ऐतिहासिक पात्रों के मूल चरित्र का विपरीत चित्रण समय-समय पर धारावाहिकों और अधिकांश फिल्मों में झलकता आया है। उदाहरण के लिए, रावण का अति विद्वान होने के चलते उसका महिमामंडन करना, उसकी अनैतिकता को सही सिद्ध करते हुए उसकी 'वैकल्पिक' छवि निर्मित करना और भगवान रघुनंदन द्वारा लिए गए निर्णयों को सही-गलत की कसौटी पर कसना, विकल्प खड़ा करने का 'सर्वोत्तम' उदाहरण है।
 
कुछ माह पूर्व इसी विकल्प विमर्श का एक और अटपटा उदाहरण वर्ड मैग्जीन के कवर पेज पर देखने को मिला, जहां कवर पेज पर एलजीबीटीक्यू समुदाय के पुरुष मॉडलों को साड़ी पहने दिखाया गया। इसके अंतर्गत सामान्य सामाजिक मानदंड का विकल्प इस प्रकार प्रस्तुत किया गया: “साड़ी सभी के लिए है (साड़ी बिलोंग्स टू एवरीवन), केवल स्त्रियां ही साड़ी क्यों पहनें?” इससे कुछ समय पूर्व जेएनयू के पुरुष छात्रों को भी इसी तर्क के आधार पर साड़ी पहनकर प्रदर्शन करते पाया गया था। इसे निरर्थक प्रगतिशीलता के अलावा और क्या कहा जा सकता है!
 
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इसी के साथ, भारतीय त्यौहारों को वैकल्पिक अर्थ देने की प्रवृत्ति हम कई वर्षों से देखते आ रहे हैं। उदाहरण के लिए, होली को यौन शोषण और छेड़छाड़ से जुड़े त्यौहार के रूप में या दिवाली को प्रदूषण में योगदान देने वाले उत्सव के रूप में चित्रित करना एक अपरंपरागत दृष्टिकोण प्रदान करता है, जो इन उत्सवों से जुड़ी उमंग को खराब कर हिंदुओं में अपने त्यौहारों के प्रति पश्चाताप उत्पन्न करता है।
 
तदनंतर वामपंथी इन 'विकल्पों' के माध्यम से व्यवस्थित रूप से एक कथा का निर्माण करके और बाद में अपने सेक्टर्स के माध्यम से प्रसारित कर इस दिशा में आगे बढ़ते हैं।
 
कल्चरल मार्क्सवाद – जिसे क्रिटिकल थ्योरी के रूप में भी जाना जाता है – के चार प्रमुख एजेंट हैं:
 
1. शिक्षाविद
2. मास मीडिया
3. बॉलीवुड
4. औपचारिक संस्थान
 
शिक्षाविद: शिक्षाविदों में इस विचारधारा अर्थात कल्चरल मार्क्सिज्म के प्रभाव का कालानुक्रमिक तरीके से निरीक्षण किया जा सकता है। इसके कुछ चरण हैं जिन्हें प्रसन्न देशपांडे ने अपनी पुस्तक डिसइंडियनाइजिंग इंडियंस में उल्लिखित किया है, जिनमें प्रमुख हैं:
 
1. औपनिवेशिक चरण: स्वतंत्रता के बाद के भारतीय शिक्षाविद।
2. छद्म धर्मनिरपेक्षतावादी चरण।
3. क्रिटिकल थ्योरी चरण।
4. उत्तर आधुनिकतावाद (पोस्टमॉडर्निज्म)।
5. उत्तरसंरचनावाद (पोस्ट-स्ट्रक्चरलिज्म)।
6. द न्यू लेफ्ट: मार्क्सवाद का अंतिम चरण।
7. अकादमिक बेमेलपन।
8. शिक्षाविदों के माध्यम से नया वामपंथ।
9. कल्चरल अध्ययन।
10. आइडेंटिटी पॉलिटिक्स (पहचान की राजनीति) को शिक्षाविदों द्वारा खड़ा करना।
 
इनमें उत्तरसंरचनावाद, न्यू लेफ्ट, और अकादमिक बेमेलपन जैसे चरण प्रमुख हैं। प्रसन्न देशपांडे के अनुसार, “डिकंस्ट्रक्शन किसी भी साहित्यिक, सांस्कृतिक या ऐतिहासिक ग्रंथ की केंद्रीय व्याख्या का विरोध करता है और आमतौर पर प्रचलित अर्थ के विरुद्ध अनिश्चित एवं अवधारणात्मक बिंदुओं का उपयोग करके उन्हें 'डिकंस्ट्रक्ट' करता है।” इससे सामान्य व्यक्ति विषय-वस्तु के प्राथमिक अर्थ को प्रतिस्थापित करके वैकल्पिक अर्थ को अधिक प्राथमिकता देने लगता है।
 
देशपांडे, डिकंस्ट्रक्शन के उदाहरणों में आगे बताते हैं:
 
  • एकलव्य जातिवाद का शिकार है क्योंकि उच्च जाति के द्रोणाचार्य ने उसे तीरंदाजी में प्रशिक्षित करने से इनकार कर दिया था।
  • औरंगजेब को एक धर्मनिरपेक्ष शासक के रूप में प्रस्तुत करना।
  • महिषासुर को पीड़ित के रूप में चित्रित करना।
  • बाली को छल का शिकार दिखाना।
  • रावण को नायक के रूप में दिखाना।
  • माता सीता को श्रीराम द्वारा उपेक्षा का शिकार दिखाना।
  • कर्ण को पीड़ित दिखाना।
  • भारतीय परिवार में पिता या पितृवंश को प्रमुख और दमनकारी शक्ति के रूप में दिखाना।
  • अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यक आबादी के सांस्कृतिक प्रभुत्व के शिकार के रूप में चित्रित करना।
  • महिलाओं, दलितों, और सभी प्रकार के अल्पसंख्यकों (यौन, धार्मिक, जातीय, और भाषाई) को शिकार दिखाना।
  • राष्ट्रगान का विरोध करना (धार्मिक अधिकारों के बहाने)।
  • राष्ट्रगीत का विरोध करना (अल्पसंख्यक होने के बहाने)।
 
आज, दुर्भाग्यवश छात्रों के 'बौद्धिक ढांचे' में इन उपरोक्त उदाहरणों को हम देख सकते हैं।
 
मास मीडिया: जब एक वर्ष पूर्व मेवात हिंसा भड़की थी, तो वामपंथी वेब मीडिया कंपनियों या 'मीडिया जमात' (जैसे द वायर, द क्विंट) ने इस बात पर जोर दिया कि यह बजरंग दल की गलती है, जबकि वास्तविकता कुछ और ही थी। जब मज़हब विशेष के लोग विरले ही पीड़ित होते हैं, तो उनका नाम न्यूज रिपोर्ट के शीर्षक में लिखा जाता है। और विडंबना यह है कि जब यही लोग अपराधी होते हैं, तो उनका नाम बदलकर हिंदू नाम कर दिया जाता है, या नाम ही नहीं बताया जाता। कई मीडिया चैनलों ने तथ्यात्मक रूप से सिद्ध किया कि बजरंग दल के जुलूस को षड्यंत्र के तहत मज़हबी समुदाय द्वारा सुनियोजित तरीके से बाधित किया गया था। इस प्रकार, मीडिया जमात ने इस पूरी घटना का एक वैकल्पिक अर्थ बनाने के लिए 'डिकंस्ट्रक्शन' सूत्र का पूरा उपयोग किया।
 
एक अन्य उदाहरण पिछले वर्ष सितंबर माह में उज्जैन में घटित बलात्कार मामले में देखने को मिला। इस घटना में मीडिया ने बड़ी चतुराई से पुजारी राहुल शर्मा (जिसने पीड़ित लड़की को सहायता दी थी) का नाम छिपा दिया और इस मुद्दे को जातिगत रंग दे दिया।
 
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बॉलीवुड: बॉलीवुड की कलात्मकता तो मानो हिंदू घृणा से प्रारंभ होकर हिंदू घृणा पर समाप्त होती है। आपराधिक, आतंकी, और अनुचित मामलों को हिंदुओं और सनातन धर्म से जोड़ना बॉलीवुड के पटकथाकारों की आदत बन चुकी है। उदाहरण के लिए, एक वेब सीरीज 'सिटी ऑफ ड्रीम्स' में बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों को एक हिंदू के साथ जोड़ते हुए दिखाया गया कि अपराधी के माथे पर एक तिलक है और उसने 'रुद्राक्ष माला' पहनी है। 90 के दशक की फिल्म 'दुश्मन' में आशुतोष राणा का पात्र एक सीरियल बलात्कारी के रूप में दिखाया गया है, जो हर आपत्तिजनक डायलॉग के पहले 'कसम भोला की' कहता है। उस पात्र का नाम गोकुल पंडित है और उसके घर में भगवान शिव की तस्वीर रखी हुई है। 70 के दशक की हिट फिल्म 'बेमिसाल' के एक दृश्य में मुगल आक्रांताओं का महिमामंडन दिखाया गया है। इसके साथ ही, शुद्ध हिंदी भाषी पात्रों को हमेशा कमजोर और उपहास के पात्र के रूप में दिखाया जाता है। खैर, सूची बहुत लंबी है, लेकिन यह आवश्यक है कि बॉलीवुड का यह दुस्साहस जनता में आक्रोश और असहिष्णुता उत्पन्न करे, जिससे बॉलीवुड 'कलात्मकता' की स्वतंत्रता का संतुलित और निष्पक्ष उपयोग कर सके।
 
शासकीय संस्थान: शासकीय संस्थानों में इस विष का प्रवेश हमारी कल्पना से अधिक घातक सिद्ध होने वाला है। उदाहरणस्वरूप, हाल ही में वित्त मंत्रालय ने कहा कि एलजीबीटीक्यू समुदाय के लोग अब संयुक्त बैंक खाता खोल सकते हैं, या समलैंगिक रिश्ते में रहने वाले व्यक्ति को लाभार्थी के रूप में नामित कर सकते हैं। कितनी विचित्र बात है कि जिस विचारधारा को लेकर समाज में व्यापक स्तर पर द्वंद्व बना हुआ है, जिस समुदाय की मांगों और उनकी नैतिकता पर समाज का अधिकांश हिस्सा प्रश्नचिन्ह लगाता है, उसे कानूनी अधिकार प्रदान करना कहां तक उचित है?
 
इसी प्रकार, न्यायपालिका भी 'न्यायिक' निर्णय लेने के मामले में अल्पसंख्यक समुदाय को कभी निराश नहीं करती। अभी हाल ही में, सितंबर में उत्तर प्रदेश में माफियाओं और अपराधियों की अवैध संपत्तियों को ध्वस्त करने की कार्रवाई पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी थी। सुप्रीम कोर्ट के न्यायधीशों का कहना था, “अगर ध्वस्तीकरण की कार्रवाई को 2 सप्ताह के लिए रोका जाए, तो आसमान नहीं गिरेगा। 15 दिन में क्या हो जाएगा?” इसी प्रकार समलैंगिक विवाह के मामले में पांच न्यायधीशों की पीठ ने 3:2 के अनुपात में निर्णय दिया था, जिसमें दो न्यायधीशों ने कहा कि समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता दी जानी चाहिए। वाह री मेरी न्यायपालिका वाह!
 
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एक ओर जहां न्यायपालिका निर्णय लेने के लिए कानूनी विश्लेषण और संवैधानिक सिद्धांतों पर भरोसा करने का दावा करती है, और पूर्वाग्रह के बजाय निष्पक्षता और कानूनी अखंडता पर जोर देती है, वहीं दूसरी ओर, जब हिंदू भावनाओं की बात आती है, तो इन मापदंडों को हमेशा अलग रखा जाता है। आखिर क्यों? ऐसे में न्यायपालिका में व्याप्त संभावित पूर्वाग्रह का सूक्ष्म विश्लेषण करने की अत्यधिक आवश्यकता प्रतीत होती है, साथ ही विदेशी या बाहरी हस्तक्षेप / प्रभावों के प्रश्न पर विचार किया जाना भी आवश्यक है।
 
इस तरह हमने देश में उभर रही तमाम समस्याओं के मूल कारण का विश्लेषण कर लिया है। अब सवाल यह उठता है कि इसका समाधान क्या होना चाहिए? कभी-कभी दुश्मनों की रणनीति उन्हीं पर लागू करना हमारे लिए लाभकारी सिद्ध हो सकता है। लेकिन इसके लिए समस्या की सावधानीपूर्वक पड़ताल करने की आवश्यकता होती है।
 
महाभारत के शल्य पर्व में, दुर्योधन और भीम के बीच गदा लड़ाई का एक दृश्य है, जहां यह युद्ध समाप्त होते नहीं दिख रहा था। तब भगवान श्रीकृष्ण ने भीम को दुर्योधन की जांघ पर आक्रमण करने का संकेत दिया, यद्यपि यह युद्ध के नियमों के विरुद्ध था, फिर भी स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने ऐसा करने की आज्ञा दी। युधिष्ठिर, जो श्रीकृष्ण के साथ खड़े थे, ने इस नियम के उल्लंघन पर प्रश्नवाचक दृष्टि से श्रीकृष्ण की ओर देखा। तब श्रीकृष्ण ने कहा, 'मायावी मायया वध्य:' – माया वाले को माया से ही मारा जा सकता है। इसलिए जब समाधान की बात आती है, तो भगवान श्रीकृष्ण की इस सीख को हमेशा याद रखना चाहिए।
 
लेख
 
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जान्हवी नाईक
समाजशास्त्र स्नातक अंतिम वर्ष की छात्रा
पूर्व कंटेंट राइटर और रिपोर्टर, द नैरेटिव वर्ल्ड
ग्वालियर, मध्य प्रदेश