अक्टूबर 1990 : जर्मनी में कम्युनिज्म के पतन की कहानी

कम्युनिस्ट ताकतों द्वारा शासित हो रहे पूर्वी जर्मनी के लोगों की मौलिक स्वतंत्रता को भी लगभग खत्म कर दिया गया था। इस क्षेत्र में कम्युनिस्ट नीतियों के तहत कोई ठोस आर्थिक नीति नहीं थी, आम जनता को किसी प्रकार का विरोध करने या अपनी बात रखने की स्वतंत्रता नहीं थी, मीडिया-प्रेस की कोई स्वतंत्रता नहीं थी और किसी तरह का जनाधिकार का कानून नहीं था।

The Narrative World    16-Oct-2024   
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अक्टूबर का महीना वैश्विक इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण महीनों में से एक है। इसी महीने ने दो भागों में बंटे जर्मनी को पुनः एकीकृत किया और इसी माह में कभी जर्मनी के पूर्वी हिस्से में एक ऐसी सरकार की स्थापना हुई थी जिसे कम्युनिस्ट सोवियत द्वारा रिमोट कंट्रोल से चलाया जा रहा था।


दरअसल जब द्वितीय विश्व युद्ध खत्म हुआ और हिटलर की मौत के साथ जर्मनी इस युद्ध का सबसे बड़ा गुनहगार बनकर सामने आया तब विजित शक्तियां जर्मनी समेत संपूर्ण यूरोप में अपना प्रभुत्व चाहती थीं। लेकिन इसमें एक अड़चन यह थी कि विजित देशों में ही एक तरफ अमेरिका, फ्रांस और यूके जैसे लोकतांत्रिक और पूंजीवादी राष्ट्र थे तो विश्वयुद्ध जीतने वाले मित्र देशों में कम्युनिस्ट सोवियत संघ भी शामिल था।


पूंजीवादी शक्तियां जर्मनी समेत यूरोप को पूंजीवाद और लोकतांत्रिक प्रणाली में ढालना चाहती थीं, वहीं कम्युनिस्ट सोवियत संघ इसके लिए तैयार नहीं था और वह इसमें कम्युनिज्म की धारा का प्रवाह चाहता था।


यही कारण है कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विश्व ने एक ऐसा युद्ध देखा जो वैश्विक इतिहास में ना सिर्फ अनूठा था बल्कि अपने आप में विचित्र भी था। यह युद्ध 45 वर्षों तक चला, जिसे हम शीत युद्ध के नाम से जानते हैं।


शीत युद्ध के दौरान दोनों शक्तियां अपने विचार को प्रभावी बनाने के लिए विभिन्न प्रयासों में जुटी हुई थीं, और इसी का परिणाम निकला कि जर्मनी की क्षेत्रीय सीमाओं पर मित्र देशों के द्वारा नियंत्रण हासिल किया गया और उसे 4 भागों में विभाजित किया गया।


इस विभाजन के फलस्वरूप अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम और फ्रांस के हिस्से में पश्चिमी क्षेत्र आया और सोवियत संघ ने पूर्वी जर्मनी में अपना नियंत्रण स्थापित किया। इसके बाद जो सबसे बड़ी चुनौती थी वह थी राजधानी बर्लिन की।

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चूंकि भौगोलिक रूप से बर्लिन कम्युनिस्ट सोवियत के क्षेत्र में अर्थात पूर्वी क्षेत्र में अवस्थित था, लेकिन राजधानी होने के कारण इसे भी चार भागों में विभाजित किया गया। यहां भी पश्चिम बर्लिन और पूर्वी बर्लिन स्थापित हुए जिसमें दोनों शक्तियों का अधिपत्य रहा। इसके बाद दोनों विचारों के बीच का तनाव बढ़ता ही रह और इसका व्यापक असर बर्लिन से लेकर जर्मनी के दोनों हिस्सों में दिखाई देने लगा।


इस शीत युद्ध का नतीजा यह था कि पूर्वी जर्मनी से लेकर लगभग पूरा पूर्वी यूरोप कम्युनिज्म के प्रभाव में था, वहीं पश्चिम जर्मनी से लेकर पूरा पश्चिमी यूरोप पूंजीवाद लोकतांत्रिक मूल्यों को मान रहा था।


अब जहां कम्युनिस्ट शासन होगा वहां अराजकता, तानाशाही, भूखमरी, गरीबी और भ्रष्टाचार की व्यापकता तो देखने को मिलेगी ही, कुछ यही हाल पूर्वी जर्मनी का होता चला गया।


एक तरफ जहां पश्चिमी जर्मनी अमेरिका के सहयोग से फल-फूल रहा था, रोजगार के अवसर देने के साथ-साथ विकास कार्यों में भी उन्नति कर रहा था, वहीं दूसरी ओर पूर्वी जर्मनी में कम्युमिस्ट तानाशाही की प्रणाली ने आम जनता को पश्चिम की ओर भागने पर मजबूर कर दिया।


बेहतर जीवनशैली, जीवन स्तर, लोकतांत्रिक समाज, स्वतंत्रता एवं रोजगार के अवसर के उद्देश्य से पूर्वी जर्मनी से निकलकर लोग पश्चिम की ओर भागने लगे और इसी दौरान वर्ष 1948 कम्युनिस्ट शासन ने बर्लिन में नाकेबंदी की घोषणा कर दी, ताकि पूर्वी ओर की जनता पश्चिम की ओर ना जा सके।


बाद में इसी नाकेबंदी ने बर्लिन के दीवार बनने की योजना की नींव रखी, जिसने ना सिर्फ सम्पूर्ण विश्व को चकित किया बल्कि यह भी बताया कि कम्युनिस्ट तानाशाही प्रणाली अपने नागरिकों के जीवन को बदतर करने के लिए क्या क्या कर सकती है।


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इन सब के बाद आया वर्ष 1949 का अक्टूबर का महीना। 7 अक्टूबर 1949 को पूर्वी जर्मनी में कम्युनिस्ट सोवियत संघ ने जर्मन डेमोक्रेटिक रिपब्लिक की स्थापना की, जिसे पूर्वी जर्मनी की सरकार के नाम से भी जाना जाता है।


यह वो दौर था जब पश्चिम जर्मनी में संसदीय लोकतंत्र स्थापित किया जा चुका था और पूर्वी जर्मनी में कथित लोकतंत्र एवं गणतंत्र के नाम पर सोवियत संघ के द्वारा कम्युनिस्ट तानाशाही चलाई जा रही थी, जिसका शिकार केवल पूर्वी जर्मनी ही नहीं बल्कि पोलैंड, हंगरी, रोमानिया जैसे देश भी थे।


सोवियत संघ की कम्युनिस्ट सरकार द्वारा पूर्वी जर्मनी की तानाशाही सरकार को एक समाजवादी श्रमिकों एवं किसानों की सरकार के रूप में प्रस्तुत किया जाता था, जबकि वास्तव में यह सोवियत की कम्युनिस्ट शक्तियों के तहत संचालित होती थी।


सोवियत संघ ने पूर्वी जर्मनी की सरकार स्थापित करने के बाद इसे लोकतांत्रिक एवं जर्मन नागरिकों द्वारा प्रशासित दिखाने के लिए जर्मनी के कम्युनिस्ट नेताओं को प्रशासनिक पदों पर नियुक्त करना शुरू किया।


“कम्युनिस्ट ताकतों द्वारा शासित हो रहे पूर्वी जर्मनी के लोगों की मौलिक स्वतंत्रता को भी लगभग खत्म कर दिया गया था। इस क्षेत्र में कम्युनिस्ट नीतियों के तहत कोई ठोस आर्थिक नीति नहीं थी, आम जनता को किसी प्रकार का विरोध करने या अपनी बात रखने की स्वतंत्रता नहीं थी, मीडिया-प्रेस की कोई स्वतंत्रता नहीं थी और किसी तरह का जनाधिकार का कानून नहीं था।”


इसके अलावा सोवियत के कम्युनिस्ट आकाओं द्वारा स्थापित सरकार को प्रशासित कर रही पूर्वी जर्मनी की सोशलिस्ट यूनिटी पार्टी ऑफ जर्मनी ने विद्यालयों में मार्क्सवाद-लेनिनवाद की शिक्षा एवं रूसी भाषा को अनिवार्य करवा दिया था।


इस पार्टी का गठन वर्ष 1946 में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ जर्मनी एवं सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ जर्मनी के विलय से हुआ था। इन दोनों दलों का विलय भी सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी के दबाव में हुआ था, क्योंकि कम्युनिस्ट पार्टी चाहती थी कि सभी कम्युनिस्ट विचार के दल एक छत के नीचे कार्य करे।


इसके अलावा पूर्वी जर्मनी में अर्थव्यवस्था पर पूरा नियंत्रण केंद्रीकृत था एवं मांग और आपूर्ति के नियम को धता बताते हुए कम्युनिस्ट नीतियों के तहत आर्थिक फैसले लिए जा रहे थे।


यही कारण था कि पूर्वी यूरोप में सबसे अच्छी अर्थव्यवस्था होने के बाद भी पूर्वी जर्मनी आर्थिक मामलों में नीचे फिसल रहा था। इन विषयों को देखते हुए तमाम बुद्धिजीवी वर्ग, कौशल से पूर्ण युवावर्ग एवं आम जनता पूर्वी जर्मनी से निकलकर पश्चिम की ओर जाने लगी, जिससे पूर्वी जर्मनी की अर्थव्यवस्था को चोट पहुंची।


सोवियत की कम्युनिस्ट सरकार ने इस पलायन को रोकने और अपने शोषण को जारी रखने के किए वर्ष 1961 में बर्लिन की दीवार का निर्माण करवाया। ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि इस बर्लिन की दीवार के निर्माण से पूर्व 10 लाख लोग पूर्व से पश्चिम की ओर भाग चुके थे। हालांकि दीवार बनाई गई और फिर शुरू हुआ कम्युनिस्ट तानाशाही और एक और क्रूरतम रूप।


“कम्युनिस्ट सरकार का स्पष्ट आदेश था कि यदि इस दीवार को कोई पार करने का प्रयास करता है तो उसे मार दिया जाएगा, और हुआ भी वही। दीवार को पार करने के दौरान सैकड़ों लोग कम्युनिस्ट तानाशाही का शिकार बने। 13 अगस्त, 1961 को बनी यह बर्लिन की दीवार शीत युद्ध की सबसे बड़ी निशानी थी, जिसे शीत युद्ध खत्म होते ही गिरा दिया गया।”


इस दीवार ने मासूम बच्चों को अनाथ होते देखा है, इस दीवार ने उन चीखों को सुना है जो इतिहास के पन्नों में कहीं गुम हो गईं हैं, इस दीवार ने कम्युनिस्ट नरसंहार की उस दास्तान को देखा है जिसे षड्यंत्रकारी इतिहासकारों ने इतिहास से ही गायब कर दिया।


पूर्वी जर्मनी के तानाशाही शासन में थियेटर से लेकर म्यूजिक तक सेंसरशिप लगी हुई थी। किसी थियेटर शो के होने से पहले उसके डायलॉग्स कम्युनिस्ट प्रशासकों को दिखाए जाते थे और उनसे अनुमति ली जाती थी, यहां तक कि जर्मनी के प्रसिद्ध कलाकारों को भी इससे छूट नहीं थी।


पूर्वी जर्मनी में म्यूजिक बैंड्स के बढ़ते प्रभाव और युवाओं के बीच उनकी लोकप्रियता को देखते हुए कम्युनिस्ट सरकार ने इस पर भी कड़े प्रतिबंध लगाए और कुछ मामलों में इन्हें नियंत्रित भी कर लिया।


यहां तक कि वोल्फ बाईरमन जैसे समाजवादी विचार के ही गायकों पर प्रतिबंध लगा दिए गए क्योंकि उन्होंने समाजवाद को लेकर कम्युनिस्ट पार्टी से भिन्न विचार रखे थे। टेलीविजन और रेडियो पर कम्युनिस्ट सरकार का एकाधिकार था और वही बातें टेलीकास्ट की जाती थी जो कम्युनिस्ट सरकार चाहती थी।


जर्मनी को लेकर विशेषज्ञों का मानना है कि पूर्वी जर्मनी का अस्तित्व 1985 से ही खतरे में आना शुरू हो गया था। जब सोवियत संघ में मिखाइल गोर्बाचेव सत्ता में आये तब तक सोवियत संघ कमजोर हो चुका था।


दरसअल गोर्बाचेव ही वही नेता थे जिन्होंने 20वीं सदी के अंत में यूरोप को वह दिशा दी जो आज 21वीं सदी में हमें दिखाई दे रही है। 1985 में गोर्बाचेव को सोवियत की कम्युनिस्ट पार्टी का प्रमुख बनाया गया और इसके बाद उन्होंने युद्ध को पीछे छोड़कर प्रगति की ओर ध्यान देने का निर्णय लिया। उन्होंने ग्लासनोस्त और पेरेस्रोइका का आह्वान किया जिसका अर्थ होता है खुलापन और पुनर्संरचना। इन नीतियों के साथ गोर्बाचेव ने सोवियत और अमेरिका के बीच के संबंधों में सुधार लाया।


1990 में गोर्बाचेव पहली बार सोवियत के राष्ट्रपति बने और फिर उन्होंने जर्मनी के एकीकरण के लिए सबसे बड़ा कदम उठाया। सोवियत के कम्युनिस्ट नेताओं के विरोध के बावजूद भी गोर्बाचेव ने जर्मनी के लोगों की मांग का सम्मान किया और जर्मनी के एकीकरण को मंजूरी दी। इस दौरान जर्मनी के चांसलर रहे हेल्मुट कोल ने कहा था कि बर्लिन की दीवार गिरने के 24 घंटे के भीतर ही केजीबी ने सोवियत सेना के दखल की मांग की थी, लेकिन गोर्बाचेव ने सोवियत के दखल से इंकार कर दिया।


इस घटना के बाद बर्लिन की दीवार गिरी और जर्मनी में वामपंथ का पतन हुआ। साथ ही सोवियत का विघटन भी आरंभ हुआ। बाल्टिक देशों ने अलग होने की पहल की और देखते ही देखते सोवियत विखंडित होता चला गया।


हालांकि इस एक निर्णय ने जर्मनी में वामपंथ की उपस्थिति को खत्म करने का कार्य किया और पूर्वी जर्मनी के लोगों को कम्युनिस्ट तानाशाही से मुक्त कराया। इसके अलावा यह भी समझा जा सकता है कि सोवियत संघ द्वारा पोषित दुनियाभर के साम्यवादी समूह सोवियत के कमजोर होते ही धराशायी हो गए, क्योंकि इनके पास ना ही कोई जनाधार था और ना ही इन्होंने आम जनता कस लिए कोई कार्य किया था।