भारत बनाम हमारा जातिवाद

इस देश कि अखंडता, एकता और एकजुटता को खत्म करके अपना शासन जमाने की ताक में देश और विदेशो में बैठी शक्तियों को हमें पहचानना होगा।

The Narrative World    19-Oct-2024
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हमारे समाज में आज सबसे प्रमुख समस्या अगर कोई है तो वह हमारी जाति व्यवस्था है।
 
हिन्दू समाज के छोटे-बड़े टुकड़ों में विभाजित होने का प्रमुख कारण हमारी क्षीण वैचारिक शक्ति एवं हमारे बीच एक-दूसरे के प्रति कटुता व घृणास्पद भावना को बढ़ावा देने वाले विष की उपस्थिती है।
 
भारत की अखंडता की वाहिनी हमारी हिन्दू संस्कृति में यह दूषण कब और क्यों शुरू हुआ, इसका अध्ययन हम सबको करना चाहिए।
 
हमारी अक्षुण्ण एकता से बने भारत की धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान के इतिहास पर नजर करें तो, 632 से लेखर 750 तक पश्चिम की ओर जिब्राल्टर से लेकर पूर्व में मध्य-एशिया तक के संपूर्ण भूभाग पर नियंत्रण प्राप्त कर लेने के बाद अरबों ने केवल 200 वर्षो में ही पूरे क्षेत्र के लोगों को इस्लाम संप्रदाय और अरब की संस्कृति को स्वीकार करने पर बाध्य किया। यह वैश्विक इतिहास में चमत्कार ही था।
 
परंतु भारत में 1100 वर्षों के अनेक अत्याचारों के बाद भी हिंदुओं ने अपने धर्म और प्राचीन संस्कृति का त्याग नहीं किया। हमने अपनी भाषा, संस्कार और परंपरा को सहेजकर रखा।
 
इस्लामिक आक्रांताओं को भारत में अपने पाव जमाने के लिए सदी के लंबे कालखंड तक इंतजार करना पड़ा इसका कारण हमारी आपसी एकजुटता और अपने सांस्कृतिक मूल्यो के प्रति हमारी अखंड श्रद्धा भाव है। मुस्लिम आक्रमणकारियों के इतिहास में यह एक अपवाद है।
 
ऐसा भव्य और गौरवपूर्ण इतिहास रखने वाला यह समाज आज अपने ही देश में 9 प्रांत एवं 200 से अधिक जिल्लों में नाम शेष हो ने की कगार पर है और इनमें से कई जिल्लों में तो नाम शेष हो भी गया हैं।
 
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हम इतने कमजोर, कायर और स्वार्थी कैसे हो गए, जिसे कोई भी आकार आसानी से बाँटकर हम पर हावी हो रहा है। इसके पीछे के मुख्य कारक के बारे में गंभीरता से आत्ममंथन करके इस प्रणाली को तोड़ने का समय अब आ गया हैं।
 
हमारी सामूहिक शक्ति को हमने जाती, भाषा, प्रांत में विभाजित करके छिन्न कर दिया और यहा तक सीमित न रहकर विश्व के एक मात्र हमारे सनातन धर्म को हमने अपनी मनमर्जी के भिन्न-भिन्न पंथ, संप्रदायों में बाँट दिया। हमारी विभाजनकारी सोच इतनी क्षीण हो चुकी है कि हमने हमारे आराध्य देवी-देवताओं को भी नहीं छोड़ा, उसे भी अपना और तुम्हारा बना दिया। हमारी यहीं मानसिकता भविष्य के लिए गंभीर खतरा बनने वाली हैं।
 
हिंदू समाज की इस कमजोरी का विरोधी शक्ति बखूबी लाभ उठा रहे है। अदरणीय सरसंघचालक प.पू. श्री मोहन भागवत जी ने इस बार विजयादशमी उत्सव के अपने उद्बोधन में हिंदू समाज की विभाजनकारी सोच पर चिंता जताई और कहाँ कि हमारे ऋषिमुनियों और देश के महा पुरुषों को भी हमने अपने-अपने स्वार्थ मुताबिक बाँट दिया हैं। इन सबके कार्यों के कारण देश को मिली उपलब्धियां किसी एक समाज के लिए नहीं थी, अपितु समूचे भारत के लिए थी। इसलिए किसी एक समाज के साथ इनको नहीं जोड़ना चाहिए। यह सभी हम सबके हैं और हम सब एक ही हैं। यहीं सोच अब अपनानी होगी।
 
भारत में जाति व्यवस्था का इतिहास देखें तो, पौराणिक तथ्यों के हिसाब से हमारे यहाँ जाति, वर्ण व्यवस्था का एक हिस्सा है। इसे सही या गलत मानना अपने-अपने नजरिए पर आधारित होगा।
 
“ब्राह्मण, क्षत्रिय, वेश्य और शूद्र” मनुस्मृति में भगवान मनु ने समाज को इन चार श्रेणियों में विभाजित किया है। अपने कर्म एवं काम के हिसाब से इन चार श्रेणियों को अलग-अलग पहचान मिली है।
 
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समाज में कर्मकांड एवं शिक्षा का कार्य करने वाला ब्राह्मण, समाज की रक्षा करने वाला क्षत्रिय, खेती, व्यापार करने वाला वैश्य और समाज में साफ-सफाई एवं स्वच्छता का कार्य केरने वाले की पहचान शूद्र समाज से होती थी।
 
इन चार वर्णो में आपका जन्म चाहे किसी भी वर्ण में हो अपितु आपके कर्म व कार्यों के आधारित आपकी पहचान होती थी।
 
लेकिन पश्चिमी देशों एवं वामपंथी इतिहासकारों ने मनुस्मृति के कुछ भाग को गलत अनुवादित करके भारतीय जाति व्यवस्था को जन्म के आधार पर कुप्रचारित किया, उसका उचित उदाहरण आप सिर्फ इस बात से लगा सकते हैं कि, 1861 में जब लॉर्ड रिजवी की देखरेख में भारत में जातीय सूचकांक बनाया गया तब उन्होंने पाया कि भारत में 60 से 70 प्रतिशत लोग वर्ण व्यवस्था से खुद को जुड़ा हुआ पाते हैं।
 
उदहारण के लिए यादव, चौहान, चौधरी, राठोड जाति के लोगों को भारत के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग रूप में जाना जाता है। कहीं उन्हें क्षत्रिय, कहीं शूद्र, कहीं गोपालक, वहीं भारत में ज्यादातर राजवंश यादव, चौधरी, चौहान जाति के नाम से ही थे।
 
भारत में धर्म और जाति की सामाजिक श्रेणियां ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान प्रचलन में थीं। जाति व्यवस्था शब्द 1840 के दशक से शुरू हुआ, जबकि जाति शब्द 1500 के दशक से शुरू हुआ।
 
हमारी गुलामी का इतिहास उठाकर देखले, हमारी एक-दूसरे के प्रति आपसी कटुता की जहरीली सोच की वजह से हुआ आपसी बँटवारा ही हमारी गुलामी एवं हमारी पराजित का कारण रहा है। वरना हमको गुलाम या पराजित करने वाला विश्व में कोई नहीं था।
 
सल्तनत काल में रियासतों को बाँटकर आपस में लड़ाने का कुचक्र चला। अंग्रेजी काल में रियासतों के साथ समाज को बाँटने की भी नीति बनी। अंग्रेजों ने इसे छुपाया भी नहीं, उन्होंने तो स्पष्ट कहा था "डिवाइड एंड रूल" अर्थात बाँटो और राज करो।
 
अंग्रेजों ने इसकी शुरुआत 1757 में प्लासी का युद्ध जीतने के साथ की थी। उन्होंने अपनी सत्ता विस्तार के लिए चर्च को सक्रिय किया। चर्च ने भारत के राजनीतिक और सामाजिक जीवन का मनोवैज्ञानिक सर्वे किया। फिर विभाजन नीति तैयार करके शुरुआत वन क्षेत्रों से की। ऐसा साहित्य तैयार कराया और ऐसी कहानियाँ गढ़ीं जिससे वनवासी और नगरवासी समाज अलग-अलग दिखें।
 
अंग्रेजों ने भ्रमित साहित्य बनाकर विभाजन की रेखा खिचते हुए, उस पर वैमनस्यता का रंग भी चढ़ाया। इसके बाद ही नगरीय और ग्रामीण क्षेत्रों में विभाजन की लकीरें खींचने की योजना बनी। अंग्रेजों ने इसका आधार जाति को बनाया।
 
अंग्रेजों ने पहली बार जन्म आधारित जाति व्यवस्था घोषित की और शासकीय अभिलेखों में जाति लिखना आरंभ किया। अंग्रेज यहीं तक नहीं रुके। उन्होंने सेना को भी जाति आधारित गठित किया।
 
जैसे एक ही प्रांत महाराष्ट्र में "महार रेजिमेंट" अलग और "मराठा रेजिमेंट" अलग। राजस्थान में "राजपूताना राइफल्स" अलग और "राजस्थान राइफल्स" अलग। इसी तरह पंजाब में "सिख रेजिमेंट" अलग और "पंजाब रेजिमेंट" अलग।
 
ऐसा विभाजन पूरे देश में किया। अपनी सैन्य छावनियों में भी ऐसा वातावरण बनाया जिससे जातीय स्पर्धा और ईर्ष्या बढ़े। गोरे अग्रेजों के चले जाने के बाद भी बँटवारे की यह नीति-रीति एसे ही चल रही है।
 
अभी हाल ही में देश की सर्वोच्च न्यायालय ने देश की पुलिस व्यवस्था को टकोर करते हुए जेलों में बंद कैदियों को जाती आधारित काम देने को बंद करने की सूचना दी।
 
आज जातिवाद का जहर हममें इस कदर घुल गया है कि हमने हमारी ही जाति की न जाने कितनी पेटा जातिया बना कर रख दी हैं।
 
हमने हमारे इतिहास का अध्ययन करना चाहिए, उसमें से सीख लेनी चाहिए। आपको जातिभेद की जाल में फंसाकर छोटे-छोटे समूह में विभाजित करने के बाद तोड़ने के पश्चात ही आपको मिटाया जा सकता है।
 
हमारे इतिहास से हम तो कुछ नहीं सीखें लेकिन हमें पुनः गुलाम बनाकर हमारे अस्तित्व को मिटाने की वर्तमान में सोच रखने वाली देश की समूची शक्तियों ने आपके बृहद इतिहास का अध्ययन करके बखूबी सीखा हैं।
 
आपके आस-पास विद्यमान यह सर्व शक्तिया जानती है कि, जिस समाज की शक्ति सामाजिक एकता, समरसता, बंधुभाव-एकत्व, साथ मिलकर राष्ट्रवाद और सांस्कृतिक प्रणालिकों अपनाने में है। इसे तोड़ने का अंग्रेजों का दिया हुआ एक ही हथियार है, “बाँटो और राज करों।“ इसीलिए देश में अभी जातीय आधारित जनगणना का मार्ग बनाया जा रहा है।
 
सनातन धर्म को डेंग्यु, मलेरिया का मच्छर, एचआईवी जीवाणु कहने वाली, भारत में गजवा-ए-हिन्द की मंशा को प्रोत्साहित करने वाली, सनातन धर्म को समाप्त करने का आह्वान करने वाली और बांग्लादेश की भाँति भारत में आंदोलन की धमकी देने वाली इन सभी शक्तियों को पहचान कर उनके मंसूबों को हमें भापना होगा।
 
इसका सामना हमारी एकता और समाज की संगठित शक्ति से ही किया जा सकता है। लेकिन यदि इस तनाव के बीच हमारा समाज एसेही जातिगत खिंचाव में उलझा रहा तो भविष्य की दीवारों पर उभर रही इन समस्याओं पर हमारा ध्यान कभी नहीं पड़ेगा।
 
वर्तमान में आपको भारत में एक बार फिर जाती आधारित जनगणना की माँग जोर पकड़ती नजर आ रही होगी। अगर यह संभव हुआ भी तो इससे केवल जातीय आँकड़े ही सामने नहीं आएंगे, अपितु ओर जातिवाद फैलाकर भारत को अशांत और भटका कर सनातन विरोधी शक्तियों द्वारा अपने मंसूबों को साकार करने का साफ रास्ता बनाया जाएगा।
 
जाति नाम का यह घातक हथियार हमारे मानवतावादी समाज को छोटे-छोटे टुकड़ों में बिखरकर रख देगा। हमारे पड़ोसी देशों में घटित घटनाओं और इन घटनाओं की तर्ज पर हमारे देश में इनको दौहरा कर हम पर एक बार फिर हावी होने के चल रहे षड्यंत्रों को महसूस करते हुए हमें अपनी जातियों से ऊपर उठ कर केवल एक हिंदू हो कर रहना पड़ेगा, यहीं आने वाले समय की मांग हैं।
 
इस देश कि अखंडता, एकता और एकजुटता को खत्म करके अपना शासन जमाने की ताक में देश और विदेशो में बैठी शक्तियों को हमें पहचानना होगा, भविष्य के खतरें को हमें अभी भापना होगा।
 
अगर हम सब अपने और अपने परिवार के लिए सुखमई भविष्य चाहते है तो, अपनी जाति भूल कर एक सामूहिक शक्ति बन कर रहेना होगा।
 
हमारी किसी भी सामाजिक संस्थाएं, भवन व स्थल केवल अपने ही समाज के उपयोग के लिए न होकर समूचे हिंदू समाज के लिए होनी चाहिए, चाहे वो स्वास्थ्य लक्षी हो, आर्थिक उपार्जन लक्षी हो, रोजगार, सार्वजनिक उपयोग के अलावा चाहे किसी भी क्षेत्र के कार्य के लिए हो, इसे किसी भी एक जाति के लिए सीमित नहीं होना चाहिए।
 
हम सब की एक ही जाति हैं और वह हिन्दू ही हैं। अपने सुखमय भविष्य के लिए इस दिशा में हमने सोचना ही होगा।
 
याद रखें, एक लकड़ी को कोई आसानी से तोड़ सकता हैं, इसलिए आइए तुट कर टुकड़े होने वाली एक कमजोर लकड़ी न रहते हुए एकजुट हो कर एक मजबूत स्थंभ बने जो हमारे सनातनी समाज के कमजोर परिवार का आधार और ताकत बनेगा।
 
इस तरह हम अपनी शक्ति को एक सामूहिक शक्ति में परिवर्तित करें, हमें विभाजित करके मिटाने वाली सभी ताकतों के सामने मजबूती से अड़ग खड़े रहे, क्योकि आने वाले समय में इन ताकतों की बौद्धिक नष्टता के लिए हमारी सामूहिक शक्ति की बहुत ही आवश्यता पड़ने वाली हैं!
 
लेख
 
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हिरेन वी. गजेरा
यंगइंकर
सूरत, गुजरात