किसी भी जीवंत लोकतंत्र में चुनाव एक अनिवार्य प्रक्रिया है। स्वस्थ और निष्पक्ष चुनाव लोकतंत्र की आधारशिला होते हैं। भारत जैसे विशाल देश में लगातार निष्पक्ष चुनाव कराना हमेशा से एक चुनौती रहा है।
यदि हम देश में हो रहे चुनावों पर नज़र डालें, तो यह स्पष्ट होता है कि हर वर्ष किसी न किसी राज्य में चुनाव होते रहते हैं। चुनावों की इस निरंतरता के कारण देश हमेशा चुनावी मोड में रहता है।
इससे न केवल प्रशासनिक और नीतिगत निर्णय प्रभावित होते हैं, बल्कि देश के खजाने पर भी भारी बोझ पड़ता है।
इन सबसे बचने के लिए वर्तमान सरकार के नीति-निर्माताओं की कैबिनेट ने लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं का चुनाव एक साथ कराने की दिशा में "एक देश, एक चुनाव" की मंजूरी दी, जो एक सराहनीय कदम है।
एक देश, एक चुनाव को लेकर रामनाथ कोविंद जी की अध्यक्षता वाली उच्च स्तरीय समिति (एचएलसमिति) ने इस विषय पर सभी 47 प्रमुख राजनीतिक दलों से विचार-विमर्श किया, जिनमें से 32 दल इसके समर्थन में और 15 विरोध में थे।
इस विषय पर समिति को देश भर से मिले सुझावों में 80% समर्थन में थे। समिति ने अपनी रिपोर्ट में कई महत्वपूर्ण सिफारिशें की हैं, जिनमें एक देश, एक चुनाव को देश में दो चरणों में लागू करने की बात शामिल है।
पहले चरण में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव कराए जाएंगे और दूसरे चरण में नगरीय निकायों और पंचायतों के चुनाव कराए जाएंगे, लेकिन इन्हें पहले चरण के 100 दिनों के भीतर ही संपन्न किया जाएगा।
लोकसभा का कार्यकाल समाप्त होते ही राज्यों की विधानसभाओं का चुनाव कराया जाएगा। अगर किसी विधानसभा का चुनाव अपरिहार्य कारणों से एक साथ नहीं हो पाता है, तो बाद की तिथि में होगा, लेकिन कार्यकाल उसी दिन समाप्त होगा।
यदि किसी राज्य की विधानसभा बीच में भंग हो जाती है, तो नया चुनाव विधानसभा के बाकी कार्यकाल के लिए ही कराया जाएगा।
सभी चुनावों के लिए एक समान मतदाता सूची तैयार की जाएगी। इसे अमल में लाने के लिए एक कार्यान्वयन समूह का गठन किया जाएगा।
कोविंद समिति ने 18 संविधान संशोधनों की सिफारिश भी की है, जिनमें से अधिकांश में राज्य विधानसभाओं के अनुमोदन की आवश्यकता नहीं होगी, जबकि समान मतदाता सूची और समान मतदाता पहचान पत्र से जुड़े कुछ प्रस्तावित बदलावों के लिए आधे राज्यों के अनुमोदन की आवश्यकता होगी।
राजनीतिक दृष्टिकोण से यह हैरान करने वाली बात है कि कांग्रेस के पूर्व नेता पहले तो "एक देश, एक चुनाव" का समर्थन कर रहे थे, किंतु जब वर्तमान सरकार ने इसे लागू करने की दिशा में कदम बढ़ाया, तो कांग्रेस और उसके इंडी गठबंधन के सहयोगी दल इसका विरोध करने लगे।
इन राजनीतिक दलों का मानना है कि भारत में "एक देश, एक चुनाव" की व्यवस्था अलोकतांत्रिक, असंवैधानिक और असंभव है। कांग्रेस के तथाकथित राष्ट्रीय अध्यक्ष इसे वर्तमान सरकार का मात्र एक शिगूफा कह रहे हैं।
इस नीति का क्षेत्रीय दलों द्वारा विरोध किए जाने का एक बड़ा कारण यह भी है कि उन्हें आशंका है कि इस प्रणाली के लागू हो जाने से उनका अस्तित्व समाप्त हो जाएगा।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत में 1967 तक लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ होते रहे हैं। उस समय संपूर्ण भारत में कांग्रेस और उसके समर्थित दलों की सरकारें ही राज्य विधानसभाओं में हुआ करती थीं।
चुनाव आयोग ने 1982 में और फिर जस्टिस बी. बी. जीवन की अध्यक्षता वाले विधि आयोग ने "एक देश, एक चुनाव" की सिफारिश की थी। 2018 में जस्टिस बी. एस. चौहान की अध्यक्षता वाले विधि आयोग ने एक ड्राफ्ट रिपोर्ट में एक साथ चुनाव कराने की बात की थी, जिसमें संविधान के अनुच्छेद 83, 85, 172, 174 और 356 में संशोधन की बात कही गई थी।
2015 में संसद की स्थायी समिति ने भी दो चरणों में लोकसभा और विधानसभा चुनाव कराने की सिफारिश की थी। 1967 के बाद, कुछ राजनीतिक कारणों से कई विधानसभाओं को भंग करना पड़ा और इसके परिणामस्वरूप लंबे समय तक केंद्र और राज्यों की राजनीति में अस्थिरता रही।
वर्तमान समय में भारत में दो लोकसभा चुनावों के बीच, पांच सालों में कहीं न कहीं विधानसभा चुनाव होते रहते हैं, जिसके कारण बार-बार आचार संहिता लागू होती है और जनहित तथा विकास के कार्यक्रम प्रभावित होते हैं।
भारत में नगर निगम, नगर निकाय और ग्राम पंचायतों के चुनाव भी हर वर्ष कहीं न कहीं होते ही रहते हैं, और बीच-बीच में उपचुनाव भी होते हैं, जो विकास कार्यों को बाधित करते हैं।
"एक देश, एक चुनाव" एक विकासोन्मुखी विचार है। देश में एक ही बार में लोकसभा, राज्यों की विधानसभाओं, स्थानीय पंचायत और नगरपालिका के चुनाव कराने से आदर्श आचार संहिता कुछ ही समय तक लागू रहेगी, और इसके बाद विकास कार्यों को निर्बाध रूप से पूरा किया जा सकेगा।
जाहिर है, एक ही चुनाव के कारण देश में बार-बार आदर्श आचार संहिता लागू नहीं करनी पड़ेगी, जिससे देश में आवश्यक नीतिगत निर्णय और विभिन्न योजनाओं को लागू करने में आचार संहिता की बाधा नहीं आएगी।
इसके कारण विकास कार्य प्रभावित नहीं होंगे। आर्थिक विशेषज्ञों का मत है कि "एक देश, एक चुनाव" से सरकारें सही मायने में कम से कम साढ़े चार वर्ष विकास कार्य करा सकेंगी।
देश में एक साथ चुनाव होने से सरकारी खजाने पर अतिरिक्त आर्थिक बोझ भी नहीं पड़ेगा। देश में एक साथ चुनाव कराए जाने से देश की जीडीपी में लगभग 1.5 प्रतिशत वृद्धि का अनुमान लगाया जा रहा है।
चुनावों पर होने वाले खर्च में लगातार हो रही वृद्धि इस बात का प्रमाण है कि यह देश की आर्थिक सेहत के लिए ठीक नहीं है।
इसलिए "एक देश, एक चुनाव" से बार-बार चुनावों के कारण होने वाले भारी खर्च में कमी आएगी। चुनावों के दौरान राजनीतिक दलों और प्रत्याशियों द्वारा काले धन का उपयोग खुलेआम किया जाता है।
हालांकि देश में प्रत्याशियों द्वारा चुनावों में किए जाने वाले खर्च की सीमा निर्धारित की गई है, किंतु राजनीतिक दलों द्वारा किए जाने वाले खर्च की कोई सीमा निर्धारित नहीं है।
कुछ विश्लेषक मानते हैं कि लगातार चुनाव होते रहने से राजनेताओं और पार्टियों को सामाजिक समरसता भंग करने का मौका मिल जाता है, जिसकी वजह से अनावश्यक सामाजिक तनाव और धार्मिक वैमनस्यता फैलने की समस्याएं बढ़ जाती हैं।
अब एक साथ चुनाव कराए जाने से इस प्रकार की समस्याओं से निजात मिलेगी और इससे काले धन और भ्रष्टाचार पर भी रोक लगाने में मदद मिलेगी।
एक साथ चुनाव कराने से सरकारी कर्मचारियों और सुरक्षा बलों को बार-बार चुनावी ड्यूटी पर लगाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। इससे उनका समय बचेगा और वे अपने कर्तव्यों का पालन भी सही तरीके से कर पाएंगे।
देश में शिक्षकों और सरकारी कर्मचारियों की भारी कमी के कारण, लगातार हो रहे चुनावों में उनकी सेवाएं ली जाती हैं, जिससे उनका शैक्षणिक और सरकारी कार्य प्रभावित होता है। इतना ही नहीं, चुनाव कराने के लिए भारी संख्या में पुलिस और सुरक्षा बलों की आवश्यकता होती है।
इसके अलावा, बार-बार होने वाले चुनावों से आम जन-जीवन भी प्रभावित होता है। अब देश में एक साथ चुनाव कराने के इस विधेयक को संसदीय मंजूरी मिलने के बाद इन सभी समस्याओं का समाधान हो सकेगा।
"एक देश, एक चुनाव" को लोकतंत्र और संविधान विरोधी बताने वाले राजनीतिक दलों को स्पष्ट करना चाहिए कि यदि 1951-52 से 1967 तक लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव साथ-साथ कराए जा रहे थे, तब क्या संविधान विरोधी सरकारें चल रही थीं?
समिति की रिपोर्ट को मान्य रखते हुए, अब "एक देश, एक चुनाव" परिकल्पना को कैबिनेट की मंजूरी मिलने के बाद इस बात की प्रबल संभावना बन गई है कि संसद के आगामी शीतकालीन सत्र में इस हेतु आवश्यक संविधान संशोधन विधेयक प्रस्तुत किए जाएंगे।
राष्ट्रहित और देश के विकास के लिए इसे लागू करने हेतु सभी राजनीतिक दलों के बीच सहमति बनना आवश्यक है। उचित तो यही है कि सभी विपक्षी दलों को एक साथ आकर उन विषयों का समर्थन करना चाहिए जो एक राष्ट्र के रूप में भारत के हित में हैं और जो भारत को विकसित राष्ट्र की दिशा में आगे बढ़ाने में सहायक हैं...!!!
लेख
हिरेन वी. गजेरा
यंगइंकर
सूरत, गुजरात