1857 की महान क्रांति से भी पहले देश के विभिन्न स्थलों पर कई छोटी-बड़ी क्रांतिकारी घटनाएं हुई थीं, जिसने ब्रिटिश ईसाईयों की सत्ता की नींव हिला दी थी। इस दौरान कई महानायक हुए जिन्होंने भारत की स्वाधीनता के लिए अपने प्राणों की आहुति दी और अंतिम श्वास तक राष्ट्र की सुरक्षा के लिए संघर्ष किया।
ऐसे ही एक महान क्रांतिकारी हुए तिलका मांझी, जिन्हें ब्रिटिश ईसाई सत्ता के विरुद्ध स्वाधीनता संग्राम के पहले बलिदानी के रूप में याद किया जाता है। माँ भारती के वीर सपूत तिलका मांझी भारत में ब्रिटिश ईसाइयों की सत्ता को चुनौती देने वाले पहाड़िया समुदाय के जनजाति वीर थे।
बिहार की पुण्यभूमि पर पैदा हुए तिलका मांझी का जन्म 11 फरवरी 1750 को हुआ था। उनके जन्म के समय उनका नाम रखा गया था 'जबरा पहाड़िया'। पहाड़िया जनजाति बोली में तिलका का अर्थ होता है ऐसा व्यक्ति जो गुस्सैल हो एवं उसकी आँखें लाल हो। चूँकि गांव के प्रधान को उनके समुदाय में 'मांझी' कहा जाता था, इसीलिए कालांतर में अपने गांव के प्रधान बनने के बाद उनका नाम तिलका मांझी पड़ा।
ब्रिटिश ईसाइयों ने उस दौर में तेज़ी से वन्य क्षेत्रों में अपना अधिकार जमाना आरम्भ किया। इसके बाद वर्ष 1750 में जंगल महल और वर्ष 1765 तक ब्रिटिश ईसाईयों ने संथाल परगना और छोटा नागपुर समेत जनजातियों के वृहद क्षेत्र में कब्जा कर लिया था। ब्रिटिश ईसाई स्थानीय वनवासी ग्रामीणों से भारी मात्रा में कर वसूलने लगे।
तिलका मांझी का पूरा बचपन इन्हीं गतिविधियों और घटनाओं को देखते हुए बिता। लेकिन उन्होंने 1870 के दशक के आते तक ब्रिटिश ईसाईयों से लोहा लेने के लिए पूरी तैयारी कर ली। तिलका मांझी ने स्थानीय निवासियों को एकत्रित कर ब्रिटिश ईसाईयों के द्वारा किए जा रहे शोषण के बारे में जागरूक करना शुरू किया। उनके आह्वान पर ना सिर्फ जनजाति समाज बल्कि सम्पूर्ण समाज उनके साथ खड़ा था।
वर्ष 1770 में बंगाल में भीषण अकाल पड़ा जिसका प्रभाव जनजाति बाहुल्य क्षेत्र संथाल परगना पर भी पड़ा। इस दौरान स्थानीय जनजाति चाहते थे कि उनके द्वारा दिए जा रहे कर को कम किया जाए लेकिन ब्रिटिश ईसाईयों ने कर को दोगुना कर दिया और जबरन वसूली शुरू कर दी।
अंग्रेज़ ईसाईयों की इन हरकतों के बाद स्थानीय वनवासियों में उनके प्रति आक्रोश और बढ़ चुका था। इस दौरान तिलका मांझी ने भागलपुर में अंग्रेजो के द्वारा भारतीयों से वसूले गए खजाने को लूट लिया। तिलका मांझी ने कर और अकाल से जूझ रहे गरीबों और वनवासियों में उन लुटे हुए पैसे को बांट दिया।
इस घटना के बाद ब्रिटिश ईसाई सत्ता की हालात खराब हो गई और तत्कालीन ब्रिटिश ईसाई सत्ता के गवर्नर वारेन हेस्टिंग्स ने तिलका मांझी को पकड़ने के लिए 800 सैनिकों की फौज भेज दी।
वर्ष 1778 में अंग्रेजों के द्वारा स्थापित की गई रामगढ़ कैंटोनमेंट में तैनात ब्रिटिश ईसाइयों की पंजाब रेजीमेंट पर तिलका मांझी के नेतृत्व में जनजातियों ने हमला कर दिया था। इसके बाद तिलका मांझी की सूझबूझ और सैन्य रणनीति के आगे ब्रिटिश ईसाई सैनिक पूरी तरह भाग खड़े हुए हैं। ईसाई इस हार से पूरी तरह तिलमिला चुके थे।
इसके बाद अंग्रेजों ने अपनी रणनीति को बदलते हुए मुंगेर, भागलपुर और राजमहल जिले के नए कलेक्टर के रूप में ऑगस्ट क्लेवलेंड को भेजा। ऑगस्ट ने स्थानीय जनजातियों को लुभाने के लिए पहले संथाली भाषा सिखी और फिर उन्हें कर में छूट, रोजगार एवं अन्य प्रलोभन देकर जनजातियों की एकता को तोड़ने का प्रयास किया।
हालांकि तिलका मांझी अब तक ब्रिटिश ईसाईयों की चाल को समझ चुके थे और उनके साथ अभी भी जनजाति समाज का एक बड़ा वर्ग साथ था।
तिलका मांझी ने सभी वनवासी समुदाय को एकजुट करने के लिए साल के पत्ते पर संदेश लिखकर अन्य समुदायों के प्रमुखों को पत्र भेजा। इसके बाद विभिन्न ने जनजाति समुदाय के लोग अपने देश की रक्षा के लिए आगे आए और तिलका मांझी को व्यापक रूप से समर्थन मिला।
तिलका मांझी ने वर्ष 1784 में वनवासी क्रांतिकारियों का नेतृत्व करते हुए ब्रिटिश ईसाईयों के भागलपुर मुख्यालय पर बड़ा हमला कर दिया। इस हमले में तिलका मांझी ने ब्रिटिश ईसाई सत्ता के निर्देश पर वनवासियों को प्रताड़ित करने वाले कलेक्टर क्लेवलेंड को तीर से मारकर उसे मौत के घाट उतार दिया। कलेक्टर की मौत ब्रिटिश ईसाई सत्ता के लिए एक बड़ा झटका थी।
ब्रिटिश ईसाई सरकार ने लेफ्टिनेंट जनरल स्तर के एक ब्रिटिश अधिकारी को तिलका मांझी को पकड़ने के लिए भेजा। स्थानीय ग्रामीणों में से ही किसी ने तिलका मांझी के बारे में ब्रिटिश ईसाइयों को जानकारी दे दी। जिसके बाद अंग्रेजों ने आधी रात में तिलका मांझी और उनके साथियों पर हमला कर दिया।
इस हमले में तिलका मांझी बच गए लेकिन उनके कई साथी बलिदान हो गए। इसके बाद तिलका मांझी अपने गृह जिले सुल्तानगंज के अंदरूनी वन्य क्षेत्रों में जाकर रहने लगे। यहां से उन्होंने ब्रिटिश ईसाई सत्ता के विरुद्ध गोरिल्ला युद्ध छेड़ दिया।
अंततः 12 जनवरी 1785 के दिन तिलका मांझी को अंग्रेजों ने पकड़ लिया। इसके बाद 13 जनवरी 1785 को अंग्रेज़ ईसाइयों ने 35 वर्षीय वीर तिलका मांझी को ब्रिटिश ईसाईयों ने फांसी दे दी, और माँ भारती के इस महान सपूत ने अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए बलिदान दे दिया।