लोकसभा में 24 नवंबर, 1970 का दिन जनजातियों के लिए ऐतिहासिक था, जब लोहरदगा के सांसद डॉ. कार्तिक उरांव ने कहा "जिन्होंने ईसाई धर्म ग्रहण किया है, उनको (अनुसूचित जनजाति में) सूचीबद्ध नहीं किया गया है, और ना ही (अनुसूचित जनजाति में) सूचीबद्ध किया जा सकता है।" डॉ. कार्तिक ने उक्त वक्तव्य तब दिया जब संसद में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति आदेश (संशोधन) विधेयक पर लोकसभा में बहस हो रही थी। यह विधेयक ही ईसाई व इस्लाम मजहब में कन्वर्ट हो चुके लोगों को अनुसूचित जनजाति की सूची से हटाने के लिए राष्ट्रीय डी-लिस्टिंग आन्दोलन का बीजारोपण करता है।
डॉ. कार्तिक उरांव के अनुसार जनजातियों के हितों के विरुद्ध अब तक चल रही यह संवैधानिक व्यवस्था विदेशी सफेदपोश अपराध जैसी है, जिसमें अमीर और शक्तिशाली लोग कानून-व्यवस्था की धज्जियां उड़ाते हुए अपने प्रभाव से अपराध से मुक्त हो जाते हैं। यही भारत में अनुसूचित जनजाति समाज के साथ अब तक हुआ है।
अपनी हैरानी और परेशानी को डॉ. कार्तिक उरांव ने 'बीस वर्ष की काली रात' नामक पुस्तक और अपने उक्त वक्तव्य में प्रस्तुत करते हुए इस असंवैधानिक वैधानिक प्रावधानों को उजागर किया था। उनके अनुसार सरकार के समक्ष जब भी अनुसूचित जनजाति का प्रश्न आता है तब सरकार जनजातियों के खेमे से ही ईसाई सांसदों की ओर देखती थी।
बाबा कार्तिक उरांव के अनुसार 1970 में कुल 6 ईसाई सांसद थे जिनमें से दो को मंत्री बनाया था, जबकि मूल अनुसूचित जनजाति के सांसदों की संख्या 32 थी, परंतु मंत्रिपरिषद में इनका प्रतिनिधित्व 'शून्य' था। ऐसे कई और तथ्य उजागर करते हुए कार्तिक बाबा ने कहा कि अब तक की सरकार ने अनुसूचित जनजाति के प्रतिनिधित्व करने के लिए सदैव एक ईसाई की प्रतीक्षा करने की प्रवृति की ओर संकेत किया है। उनके अनुसार हमारे धर्मनिरपेक्ष राज्य में इस प्रावधान के चलते बड़े पैमाने पर कन्वर्जन का लाइसेंस ईसाई मिशनरी को स्वतः मिल रहा है, जो शासकीय नीति का एक कपटपूर्ण संस्करण ही है।
बाबा कार्तिक उरांव ने ही सबसे पहले जनजातीय समाज की पीड़ा को समझा था, यही कारण है कि स्वतंत्रता के 2 दशक बीतने के बाद उन्होंने 'बीस वर्ष की काली रात' पुस्तक लिखी, जिसमें उन्होंने जनजाति समाज की व्यथा का उल्लेख किया था। कार्तिक बाबू स्वयं झारखंड क्षेत्र की उरांव जनजाति से आते थे। उन्होंने अपनी योग्यता और परिश्रम से इंजीनियरिंग की उपाधि प्राप्त की और उसी क्षेत्र में उच्चशिक्षा लेने हेतु वे इंग्लैंड गये और डॉक्टरेट की डिग्री प्राप्त की।
संसद में रहते हुये उन्होंने लगातार जनजातियों के हित में अपनी आवाज उठाई और उन्हीं के प्रयत्नों से संसद द्वारा 1968-69 में अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के संदर्भ में एक संयुक्त संसदीय समिति का गठन किया गया और उसकी अनुशंसाओं के आधार पर अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आदेश (संशोधन) विधेयक 1969 संसद में प्रस्तुत किया गया।
बाबा कार्तिक उरांव ने जो आंकड़े संसद में प्रस्तुत किए, उनके अनुसार अनुसूचित जनजातियों को मिले आरक्षण के लाभार्थियों में अधिकांश लोग ईसाई थे। सिद्धांततः जो व्यक्ति कन्वर्ट होकर ईसाई बन जाता है, वह अपने जनजातीय देवी-देवताओं की पूजा करना, अपने रीति-रिवाजों का पालन करना और अपनी संस्कृति के अनुसार जीवनयापन करना छोड़ चुका होता है।
ऐसे में यह प्रश्न उठता है कि वह जनजातीय कहां रह जाता है? वह तो ईसाई बन जाता है। फिर ऐसे व्यक्ति को आरक्षण इत्यादि का लाभ क्यों मिले? यही बात डॉ. कार्तिक उरांव ने संसद में बहुत जोरदार तरीके से उठाई। उन्हीं के प्रयासस्वरुप संसद द्वारा एक संयुक्त संसदीय समिति का गठन 1968 में किया गया। इसमें लोकसभा के 22 और राज्यसभा के 11 सदस्य रखे गये थे। डॉ. कार्तिक उरांव भी इसके सदस्य थे। इस समिति ने कुल 22 बैठकें कीं और 17 नवंबर 1969 को अपनी रिपोर्ट संसद में पेश की।
इस रिपोर्ट में अन्य सिफारिशों के अलावा एक महत्वपूर्ण सिफारिश यह भी थी- "2 अ कंडिका 2 में निहित किसी बात के होते हुए कोई भी व्यक्ति किसने जनजाति, 'आदि' मत तथा विश्वासों का परित्याग कर दिया हो और ईसाई या इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिया हो, वह अनुसूचित जनजाति का सदस्य नहीं समझा जाएगा"। (पृष्ठ 29, पंक्ति 38 की अनुसूचि 2, कंडिका 2 अ)। किंतु यह अत्यंत खेद का विषय है कि संबंधित मंत्री ने इस सिफारिश को मानने में असमर्थता व्यक्त की और कहा कि इस प्रश्न को कानून मंत्रालय, गृह मंत्रालय और विदेश मंत्रालय के साथ परामर्श कर सावधानीपूर्वक परीक्षण करने की आवश्यकता है।
स्वयं डॉ. कार्तिक उरांव ने 10 नवंबर 1970 को 348 संसद सदस्यों (322 लोकसभा से और 26 राज्यसभा से) के हस्ताक्षरयुक्त एक ज्ञापन तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को सौंपा जिसमें संयुक्त संसदीय समिति की उक्त सिफारिश को स्वीकार करने की मांग की गई, परंतु सरकार इस विषय पर बहस कराने का साहस नहीं दिखा पाई। उसके पश्चात् 16 नवंबर 1970 को लोकसभा में बहस शुरू हो गई और 17 नवंबर 1970 को भारत सरकार की ओर से एक संशोधन पेश किया गया कि विधेयक में से संयुक्त संसदीय समिति की उस सिफारिश को हटा लिया जाय। यह पूरे जनजातीय समाज के हितों पर भयंकर वज्राघात थी।
इस पर भी स्व. कार्तिक बाबू ने हार नहीं मानी और 24 नवंबर 1970 को लोकसभा में जोरदार बहस करते हुए संयुक्त संसदीय समिति की सिफारिश को मंजूर करने की पुरजोर मांग की। वे इतने भावुक हो गए कि उन्होंने सरकार से कहा कि या तो आप इस संयुक्त संसदीय समिति की सिफारिश को वापस लेने की बात को हटा दें या मुझे इस दुनिया से हटा दें। इस पर सभी संसद सदस्यों ने संयुक्त संसदीय समिति की सिफारिश का साथ दिया। ऐसी परिस्थिति में सरकार ने बहस को स्थगित कर दिया और आश्वासन दिया कि बहस उसी सत्र के अंत में की जाएगी। परंतु दुर्भाग्य से ऐसा न हो सका क्योंकि 27 दिसंबर 1970 को लोकसभा भंग हो गई।
परिणाम यह हुआ कि 1970 में जनजातीय समाज के लिए आरक्षित पदों पर धर्मांतरित ईसाइयों का जो प्रतिशत काबिज था, वह 50 साल बाद भी घटा नहीं है बल्कि बेतहाशा बढ़ा है।
अपनी पुस्तक 'बीस वर्ष की काली रात' में बाबा कार्तिक उरांव लिखते हैं कि -
अपने देश की महान जनजातियां जिन्होंने आजादी की लड़ाई में भी बढ़-चढ़ कर भाग लिया, गांधीजी के रामराज्य के सुख एवं सामाजिक सम्मान से आज भी वंचित हैं। संविधान सभा द्वारा इच्छित आरक्षण एवं सुविधाओं का जनजाति समाज को लाभ न मिल पाने का प्रमुख कारण है 'जनजाति से अलग होने वाले कन्वर्टेड व्यक्तियों द्वारा उन सुविधाओं का अत्यधिक लाभ उठाना।' जनजाति समाज के वे लोग जो कन्वर्ट होकर इसाई या मुस्लिम बन गए हैं, वे ही इसका तकरीबन पूरा लाभ ले रहें हैं और 80% से अधिक मूल जनजाति जनसंख्या आज भी वंचित-शोषित की तरह दो जून की दाल-रोटी और सम्मानपूर्ण जीवन के लिए संघर्षरत है। भारत में अनेक परिवर्तन देखा है और परिवर्तन का कार्य तो जारी ही है, किन्तु जनजातियों के जीवन में तनिक भी परिवर्तन नहीं हुआ। परिवर्तन इतना ही हुआ कि जो उनके पास था यह भी खोया और पाया कुछ नहीं।
मैं इसका दोष किसी और को देना नहीं चाहता, किन्तु जनजाति समाज खुद इसके लिए जिम्मेदार है। सरकार को में इतना ही कह सकता हूं कि उन्होंने न्याय नहीं किया, किन्तु न्याय तो किसी को दिया नहीं, जाता यह तो लिया जाता है। हमने लिया ही नहीं। हर जनजाति इसे अच्छी तरह जान ले कि उनके कल्याण के लिये उसे स्वयं संघर्ष करना पड़ेगा। यह बात सही है कि किसी भी समाज का निर्माण देश के विधेयक से नहीं हो सकता। जनजातियों ने सदा से ही कांग्रेस का विरोध किया। कांग्रेस ने जनजातियों के लिये क्या किया और ईसाईयों के लिए क्या किया "बीस वर्ष की काली रात' इसकी साक्षी है। मैं स्वयं एक कांग्रेसी हूं और यह मान कर चलता हूँ कि जिस कांग्रेस पार्टी में किसी समाज को बर्बाद करने की क्षमता है, उसी पार्टी के दिमाग से उस लड़खड़ाते जनजाति समाज का निर्माण भी हो सकता है।
याद रहे कि नागालैंड के 44.33% निरिह जनजाति और मेघालय के 55.87% असहाय जनजाति, अपनी संस्कृति सभ्यता, परम्परा और धर्म को ज्यादा दिनों तक नहीं निभा सकेंगे। धर्मनिर्पेक्षता तो है लेकिन जनजातियों के लिये नहीं है। इतिहास के पन्ने बतायेंगे कि जो अंग्रेज राज्य के 150 वर्षों में ईसाई मिशनरियों से इतना धर्म परिवर्तन नहीं हुआ जितना आजादी मिलने पर गत 23 वर्षों में हुआ। 1947 ई. में मणिपुर में 7% जनजाति ईसाई थे लेकिन यह संख्या आज बढ़कर 70% हो गयी। आजादी अगर मिली है तो ईसाई मिशनरियों को।
भारत के अन्य भागों में धर्म परिवर्तन के कार्य में काफी प्रगति, हुई है। उनका दावा है कि संविधान की धारा 15(1) के अनुसार धर्म, कुटुम्ब, भाषा, जाति, लिंग, उत्पति के स्थान या इन में से किसी के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव नही होना चाहिये। लेकिन भेदभाव तो इनके आधार पर नहीं है। संविधान में तो ईसाई लोगों के लिये अनुसूचित जनजाति की सूची में कोई स्थान ही नहीं है। गृह मंत्रालय की एक विज्ञप्ति के आधार पर धर्म, कुटुम्ब, जाति के सम्बन्ध में भी भेदभाव किये जा सकते हैं, लेकिन वह केवल अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के लिये। (गृह मंत्रालय की विज्ञप्ति संख्या 42/21/89 एन.जी.एस. नई दिल्ली, दिनांक 13, 1950 पढ़ें।)
संविधान की 15 (1) धारा की आड़ में तो केवल धर्म परिवर्तन ही हो रहा है। लेकिन धर्मनिर्पेक्षता तो धार्मिक विषय को लेकर साम्प्रदायिक तनाव को बन्द करने लिये बनायी गयी है। मैं पाठकों का ध्यान रोमन कैथोलिक मिशन की पत्रिका 'ट्रिब्यून' जून 1970 की उस पंक्तियों की ओर खींचना चाहता हूँ जिसमें उन्होंने अपनी नियत की खुले आम चर्चा की है। उन्होंने कहा है कि अनुसूचित जनजाति की सूची में न रहने देने से उनके धर्म प्रकाशन एवं प्रसारण में बाधा होगी। क्या अनुसूचित करण धर्म प्रचार के लिये हुआ है?
मूल बात यही है कि यदि कोई जनजाति व्यक्ति ईसाई या इस्लाम में कन्वर्ट होता है तो उसे अनुसूचित जनजाति के लिए अयोग्य ठहराया जाना चाहिए। अंत में हम भारत की जनता को यह विश्वास दिलाना चाहते हैं कि भारत के जनजाति किसी भी दृष्टिकोण से कम आजाद प्रिय एवं देश भक्त नहीं हैं। हम किसी के प्रति अन्याय नहीं चाहते हैं और न किसी का हक छीनना चाहतें हैं। हम तो केवल न्याय चाहतें हैं। संविधान में दिये गये हक का पूरा हिस्सा हमें चाहिये। एक शानदार नागरिक की तरह जीवित रहने के लिये एक मात्र साधन है कि जिस तरह अनुसूचित जातियों को अपनी संस्कृति, सभ्यता, परम्परा और धर्म को बचाने के लिये ऐसा प्रबन्ध है कि जो हिन्दू और सिख धर्म को छोड़ कर किसी अन्य विदेशी धर्म को ग्रहण कर लेता है, उसे अनुसूचित जाति का सदस्य नहीं समझा जाता है। जनजातियों के लिये भी इसी प्रकार के संशोधन से उनका भला बन सकता है।