भारतीय इतिहास के स्वतंत्रता संग्राम में ऐसा सेनानी भी था, जिसने मातृभूमि के लिए सर्वस्व अर्पित कर दिया। खंडवा की माटी में जन्में महारथी टंट्या भील को इतिहास के पन्नों में टंट्या मामा के नाम से भी जाना जाता है। ब्रिटिश सरकार से 24 युद्ध लड़ने वाले टंट्या भील को अंग्रेज कभी परास्त नहीं कर पाए। जब भी पकड़ा तो ज्यादा दिन कैद भी नहीं कर सके। आखिरकार धोखे से रक्षाबंधन के दिन बहन के घर से गिरफ्तार किया और खंडवा के बाद जबलपुर जेल में बंद कर दिया। यहीं फांसी पर चढ़ने के बाद वह अमर बलिदानियों में शामिल हो गए, जिनकी वीरगाथा आज भी पढ़ी और सुनी जाती है।
दरअसल टंट्या भील के महान योगदान का इतिहास स्वाधीनता के अमृत महोत्सव वर्ष में तब सामने आया जब वर्ष 2021 में मध्य प्रदेश सरकार ने टंट्या भील के के बलिदान स्थली जबलपुर सेंट्रल जेल से 25 नवंबर को पवित्र मिट्टी का संचयन कर कलश टंट्या भील की जन्म स्थली खंडवा भेजी गई।
महारथी टंट्या भील अंग्रेजी शासन को ध्वस्त करने के लिए 12 वर्ष तक लगातार 24 युद्ध लड़े और अपराजेय रहे, उन्हें सुनियोजित षड्यंत्र कर ही गिरफ्तार किया गया था। महारथी टंट्या महिला सशक्तिकरण के संरक्षक थे, इसलिए उन्हें टंट्या मामा के नाम से भी जाना जाता है। महारथी टंट्या गरीबों के मसीहा थे। कतिपय पश्चिमी लेखक और अंग्रेज अधिकारी उन्हें भारत के राबिन हुड के नाम से रेखांकित करते हैं।
खंडवा के बड़दा (बडाडा) गांव में हुआ था जन्म
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अमर बलिदानी महारथी टंट्या भील की कर्मभूमि मध्य भारत मध्य प्रांत एवं मुंबई प्रेसिडेंसी के क्षेत्र थे, जहां उन्होंने ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध स्वतंत्रता संग्राम का शंखनाद किया था। महारथी टंट्या का जन्म पूर्वी निमाड़ (खंडवा जिले) के पंधाना तहसील के बड़दा (बडाडा) गांव में 1840 में हुआ था।
महारथी टंट्या के पिता का नाम भाऊ सिंह था और उनकी पत्नी का नाम कागज बाई था। टंट्या शब्द का अर्थ विभिन्न् इतिहासकारों ने प्रकारांतर से अलग-अलग बताया है परंतु वास्तव में टंट्या का शाब्दिक अर्थ है 'संघर्ष" और इसी नाम को आगे जाकर महारथी टंट्या ने सार्थक किया।
तात्या टोपे से सीखी थी गुरिल्ला युद्ध पद्धति
बाल्यकाल से ही महारथी टंट्या कुशाग्र बुद्धि के थे। तीर कमान लाठी और गोफन में प्रशिक्षण प्राप्त कर महारत हासिल कर ली थी। दावा या फलिया उनका मुख्य हथियार था और उन्होंने बंदूक चलाना भी भली-भांति सीख लिया था। धनुर्विद्या में महारत हासिल कर ली थी। महारथी टंट्या का संबंध सन 1857 के स्वतंत्रता संग्राम से भी है जिसमें वे तात्या टोपे के साथ रहे और उन्हीं से उन्होंने गुरिल्ला युद्ध पद्धति में महारत हासिल की थी।
300 निर्धन कन्याओं का कराया विवाह तो बने मामा
बाल्यकाल में ही में ही उनके पिता भाऊ सिंह ने आमजा माता के समक्ष महारथी टंट्या को शपथ दिलाई थी, कि वह बेटियों, बहुओं और बहनों की सदैव रक्षा करेगा। आगे चलकर टंट्या भील ने 300 निर्धन कन्याओं का विवाह कराया और महिलाओं के उत्थान के लिए अनेक कार्य किए इसलिए उन्हें टंट्या मामा भी कहा जाता है।
पिता की मौत के बाद जमीन के मामले में वे जेल गए और एक साल की कठोर सजा मिली, जहां उन्होंने कैदियों पर अंग्रेजों के अत्याचार को देखा और उनके मन में स्वतंत्रता संग्राम की इच्छा बलवती हुई।
सन 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के उपरांत ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन समाप्त हुआ और सन 1858 में भारत का शासन ब्रिटिश क्रॉउन के अधीन आ गया। इसके उपरांत ब्रिटिश सरकार का अत्याचार और अनाचार बढ़ा तो महारथी टंट्या ने वनवासियों और पीड़ितों को एकत्रित कर अंग्रेजों के विरुद्ध स्वतंत्रता संग्राम छेड़ दिया।
1700 गांव में चलाई समानांतर सरकार
सन 1876 से महारथी टंट्या भील का ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध विधिवत स्वतंत्रता संग्राम का शुभारंभ हुआ। 20 नवंबर 1878 को उन्हें धोखे से पकड़कर खंडवा जेल में डाल दिया गया परंतु 24 नवंबर 1878 को रात में वह अपने साथियों के साथ दीवार लांघकर कर मुक्त हो गए। इसके बाद उन्होंने संगठन को मजबूत किया जिसमें बिजानिया भील, दौलिया, मोडिया और हिरिया जैसे साथी मिले और उसी के साथ महारथी टंट्या ने ब्रिटिश सरकार के समानांतर 1700 गांव में सरकार चलाना आरंभ कर दी।
महारथी टंट्या ने एक विशेष दस्ता 'टंट्या पुलिस" के नाम से गठित किया और साथ ही चलित न्यायालय बनाए जिसमें न्याय किया जाता था। महारथी टंट्या का 12 वर्षीय स्वतंत्रता संग्राम रहा है जिसमें अंतिम सात वर्ष बहुत ही महत्वपूर्ण हैं क्योंकि ब्रिटिश सरकार को स्पेशल टास्क फोर्स गठित करनी पड़ी थी। इस स्पेशल टास्क फोर्स के कमांडर एस ब्रुक की एक हमले में महारथी टंट्या ने नाक काट दी थी।
भूख से किसी को मरने नहीं दिया
महारथी टंट्या ने ब्रिटिश सरकार से 24 बार संघर्ष किया और वह विजयी रहे इसके साथ ही ब्रिटिश सरकार के खजाने और जमीदारों तथा मालगुजारों से सभी निर्धन वर्गों के लिए के लिए 400 बार धनराशि एकत्र कर उन्हें वितरित की। अकाल के समय भी उन्होंने किसी को भूख से मरने नहीं दिया। इसके बाद उन्होंने कई बार अंग्रेजी सरकार द्वारा रेल से भेजे जा रहे अनाज को एकत्र किया।
यह बात प्रचलित हो गई थी, कि महारथी टंट्या के राज में कोई भूखा नहीं सो सकेगा। एक बार महारथी टंट्या और बिजानिया को गिरफ्तार करके जबलपुर सेंट्रल जेल लाया गया परंतु दोनों पुन: भाग निकले परंतु दुर्भाग्य से बिजानिया, दौलिया मोडिया और हिरिया पकड़े गए और उन्हें फांसी दे दी गई जिससे महारथी टंट्या का संगठन कमजोर हो गया, फिर भी ब्रिटिश सरकार उन्हें गिरफ्तार नहीं कर सकी।
जबलपुर में चला था देशद्रोह का मुकदमा
ब्रिटिश सरकार ने महारथी टंट्या को पकड़ने के लिए उनकी मुंह बोली बहन के पति गणपत सिंह का सहयोग लिया और 11 अगस्त 1889 को रक्षाबंधन के दिन षड्यंत्र के चलते जब राखी बंधवाने के लिए टंट्या पहुंचे तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।
टंट्या को पहले खंडवा जेल में रखा गया फिर उन्हें जबलपुर सेंट्रल जेल (वर्तमान नेताजी सुभाष चंद्र बोस केन्द्रीय जेल) में स्थानांतरित कर दिया गया। जबलपुर के सत्र न्यायालय में महारथी टंट्या पर विभिन्न् आपराधिक मामलों के साथ देशद्रोह का मुकदमा प्रारंभ हुआ।
जब महारथी टंट्या को जबलपुर लाया गया तो हजारों की संख्या में लोग उनके दर्शन के लिए एकत्रित हुए थे, इसलिए आगे चलकर सेंट्रल जेल क्षेत्र में कर्फ्यू की घोषणा कर दी गई थी। अंतत: महारथी टंट्या भील को 19 अक्टूबर 1889 में फांसी की सजा सुनाई गई।
संयुक्त राज्य अमेरिका के न्यूयार्क टाइम्स समाचार पत्र में तो 10 नवंबर 1889 को टंट्या भील की गिरफ्तारी पर एक खबर प्रकाशित की जिसमें उन्हें भारत के राबिनहुड के रूप में रेखांकित किया गया था।
चार दिसंबर को दी गई थी फांसी
महारथी टंट्या को अंततः फांसी की सजा सुनाई गई। फांसी की सजा के विरुद्ध मर्सी पिटिशन दाखिल की गई परंतु 25 नवंबर 1889 को मर्सी पिटीशन खारिज कर दी गई और 4 दिसंबर 1889 को महारथी टंट्या को नेताजी सुभाष चंद्र बोस केंद्रीय जेल में फांसी पर लटका दिया गया। फांसी के उपरांत उनके मृत शरीर को पातालपानी के कालाकुंड रेलवे ट्रैक पर फेंक दिया गया ताकि ब्रिटिश सरकार की दहशत और सर्वोच्चता बनी रहे।
महारथी टंट्या का पार्थिव शरीर तो नष्ट हो गया परंतु वह अमर हो गए। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि ऐसे महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी महारथी टंट्या का पूर्ववर्ती इतिहास में पश्चिमी, वामी और परजीवी इतिहासकारों ने लुटेरा और डकैत के रूप में उल्लेख किया गया है जो दुखद है।
यह मौलिक शोध है, जिसमें उपर्युक्त मत प्रवाहों को ध्वस्त किया है। संदर्भ के लिए प्राथमिक स्रोतों के रूप में जबलपुर सेंट्रल जेल की फाइलें, सन् 1930 में प्रकाशित हिन्दू पंच बलिदान अंक, सन् 1988 में प्रकाशित चाँद फाँसी अंक और जबलपुर कमिश्नरी द्वारा प्रकाशित जबलपुर अतीत दर्शन के साथ अन्य द्वितीयक स्रोतों को लिया है।